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मंगलवार, जुलाई 15, 2014

"स्वाभिमानी बाबा नागार्जुन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

      नैनीताल जनपद तथा आस-पास के क्षेत्र के सात्यिकारों को अखबारों से जब यह पता लगा कि बाबा नागार्जुन खटीमा आये हुए हैं तो मेरे तथा वाचस्पति जी के पास उनके फोन आने लगे।
      हम लोगों ने भी सोचा कि बाबा के सम्मान में एक कवि-गोष्ठी ही कर ली जाये।
(चित्र में-सनातन धर्मशाला, खटीमा में 9 जुलाई,1989 को सम्पन्न 
कवि गोष्ठी के चित्र में-गम्भीर सिंह पालनी, जवाहरलाल वर्मा, 
दिनेश भट्ट, बल्लीसिंह चीमा, वाचस्पति, कविता पाठ करते हुए
ठा.गिरिराज सिंह, बाबा नागार्जुन तथा ‘डा. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक’) 
      अतः 9 जलाई 1989 की तारीख, समय दिन में 2 बजे का और स्थान सनातन धर्मशाला का सभागार निश्चित कर लिया गया।
      उन दिनों ठा. गिरिराज सिंह नैनीताल जिला को-आपरेटिव बैंक के महाप्रबन्धक थे। वो एक बड़े साहित्यकार माने जाते थे। जब उनको इस गोष्ठी की सूचना अखबारों के माध्यम से मिली तो वह भी बाबा से मिलने के लिए पहुँच गये।
     सनातन धर्मशाला , खटीमा में गोष्ठी शुरू हो गयी। जिसकी अध्यक्षता ठा. गिरिराज सिंह ने की। बाबा को मुख्य अतिथि बनाया गया। इस अवसर पर कथाकार गम्भीर सिंह पालनी, गजल नवोदित हस्ताक्षर बल्ली सिंह चीमा, जवाहर लाल वर्मा, दिनेश भट्ट,देवदत्त प्रसून, हास्य-व्यंग के कवि गेंदालाल शर्मा निर्जन, टीका राम पाण्डेय एकाकी,रामसनेही भारद्वाज स्नेही, डा. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक, भारत ग्राम समाचार के सम्पादक मदन विरक्त, केशव भार्गव निर्दोष आदि ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। गोष्ठी का संचालन राजकीय महाविद्यालय, खटीमा के हिन्दी के प्राध्यापकवाचस्पति ने किया।
     इस अवसर पर साहित्य शारदा मंच, खटीमा का अध्यक्ष होने के नाते मैंने बाबा को शॉल ओढ़ा कर साहित्य-स्नेही की मानद उपाधि से अलंकृत भी किया था।
        उन दिनों मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की स्थायी समिति का सदस्य था। सम्मेलन के प्रधानमन्त्री श्री श्रीधर शास्त्री से मेरी घनिष्ठता अधिक थी। मैंने उन्हें भी बाबा नागार्जुन के खटीमा में होने की सूचना दे दी थी। 
         उनका उत्तर आया कि बाबा को 14 सितम्बर, हिन्दी दिवस के अवसर पर प्रयाग ले आओ। सम्मेलन की ओर से उन्हें सम्मानित कर देंगे।
       मैंने बाबा के सामने श्रीधर शास्त्री जी का प्रस्ताव रख दिया। बाबा ने अनसुना कर दिया। मैंने बाबा को फिर याद दिलाया। अब तो बाबा का रूप देखने वाला था।
     वह बोले-‘‘श्रीधर जी से कह देना कि मैं उनका वेतन भोगी दास नही हूँ। उन्हें ससम्मान मुझे स्वयं ही आमन्त्रित करना चाहिए था।’’
      मैंने बाबा को बहुत समझाया परन्तु बाबा ने एक बार जो कह दिया वह तो अटल था।
इतने स्वाभिमानी थे बाबा।

गुरुवार, मई 26, 2011

"पिकनिक में मामा-मामी उपहार में मिले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


पिकनिक में मामा-मामी उपहार में मिले!
यह बात 1966 की है। उन दिनों मैं कक्षा 11 में पढ़ रहा था। परीक्षा हो गईं थी और पूरे जून महीने की छुट्टी पड़ गई थी। इसलिए सोचा कि कहीं घूम आया जाए। तभी संयोगवश् मेरे मामा जी हमारे घर आ गये। वो उन दिनों जिला पिथौरागढ़ में ठेकेदारी करते थे। उन दिनों मोटरमार्ग तो थे ही नहीं इसलिए पहाड़ों के दुर्गम स्थानों पर सामान पहुँचाने का एक मात्र साधन खच्चर ही थे।
मेरे मामा जी के पास उन दिनों 20 खच्चर थीं जो आरएफसी के चावल को दुर्गम स्थानों तक पहुँचातीं थीं। दो खच्चरों के लिए एक नौकर रखा गया था इसलिए एक दर्जन नौकर भी थे। खाना बनाने वाला भी रखा गया था और पड़ाव बनाया गया था लोहाघाट। मैं पढ़ा-लिखा था इसलिए हिसाब-किताब का जिम्मा मैंने अपने ऊपर ही ले लिया था।
मुझे यहाँ कुछ दिनों तक तो बहुत अच्छा लगा। मैं आस-पास के दर्शनीय स्थान मायावती आश्रम और रीठासाहिब भी घूम आया था। मगर फिर लौटकर तो पड़ाव में ही आना था और पड़ाव में रोज-रोज आलू, अरहर-मलक की दाल खाते-खाते मेरा मन बहुत ऊब गया था। हरी सब्जी और तरकारियों के तो यहाँ दर्शन भी दुर्लभ थे। तब मैंने एक युक्ति निकाली जिससे कि मुझे खाना स्वादिष्ट लगने लगे।
मैं पास ही में एक आलूबुखारे (जिसे यहाँ पोलम कहा जाता था) के बगीचे में जाता और कच्चे-कच्चे आलूबुखारे तोड़कर ले आता। उनको सिल-बट्टे पर पिसवाकर स्वादिष्ट चटनी बनवाता और दाल में मिलाकर खाता था। दो तीन दिन तक तो सब ठीक रहा मगर एक दिन बगीचे का मालिक नित्यानन्द मेरे मामा जी के पास आकर बोला ठेकेदार ज्यू आपका भानिज हमारे बगीचे में से कच्चे पोलम रोज तोड़कर ले आता है। मामा जी ने मुझे बुलाकार मालूम किया तो मैंने सारी बता दी।
नित्यानन्द बहुत अच्छा आदमी था। उसने कहा कि ठेकेदार ज्यू तुम्हारा भानिज तो हमारा भी भानिज। आज से यह खाना हमारे घर ही खाया करेगा और मैं नित्यानन्द जी को मामा जी कहने लगा।

उनके घर में अरहर-मलक की दाल तो बनती थी मगर उसके साथ खीरे का रायता भी बनता था। कभी-कभी गलगल नीम्बू की चटनी भी बनती थी। जिसका स्वाद मुझे आज भी याद है। पहाड़ी खीरे का रायता उसका तो कहना ही क्या? पहाड़ में खीरे का रायता विशेष ढंग से बनाया जाता है जिसमें कच्ची सरसों-राई पीस कर मिलाया जाता है जिससे उसका स्वाद बहुत अधिक बढ़ जाता है। ऐसे ही गलगल नीम्बू की चटनी भी मूंगफली के दाने भूनकर-पीसकर उसमें भाँग के बीज पीसकर मिला देते हैं और ऊपर से गलगल नींबू का रस पानी की जगह मिला देते हैं। (भाँग के बीजों में नशा नहीं होता है)
एक महीने तक मैंने चीड़ के वनों की ठण्डी हवा खाई और पहाड़ी व्यंजनों का भी मजा लिया। अब सेव भी पककर तैयार हो गये थे और आलूबुखारे भी। जून के अन्त में जब मैं घर वापिस लौटने लगा तो मामा और मामी ने मुझे घर ले जाने के लिए एक कट्टा भरकर सेव और आलूबुखारे उपहार में दिये।
आज भी जब मामा-मामी का स्मरण हो आता है तो मेरा मन श्रद्धा से अभिभूत हो जाता है।
काश् ऐसी पिकनिक सभी को नसीब हो! जिसमें की मामा-मामी उपहार में मिल जाएँ!
--
आज वो पहाड़ी मामा-मामी तो नहीं रहे मगर उनका बेटा नीलू आज भी मुझे भाई जितना ही प्यार करता है।
पहाड़ का निश्छल जीवन देखकर मेरे मन में बहुत इच्छा थी कि मैं भी ऐसे ही निश्छल वातावरण में आकर बस जाऊँ और मेरा यह सपना साकार हुआ 1975 में। मैं पर्वतों में तो नहीं मगर उसकी तराई में आकर बस गया।

शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

"क्या भारतीय बदबूदार होते हैं? " (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


आज से लगभग 32 साल पुरानी बात है। उन दिनों मेरा निवास बनबसा में हुआ करता था। मैं शुरू से ही "अतिथि देवो भव" के सिद्धान्त को मानता आया हूँ।  नेपाल को जाने वाली -रोड पर  मेरा अस्पताल और निवास था। सीमा पर बसे इस कस्बे में आज भी नेपालियों की चहल-पहल रहती है। उन दिनों भी यही क्रम था। मगर शाम के 5-6 बजे चहल-पहल कम हो जाती थी और मैं इसका पूरा सदुपयोग करता था। शाम को 5-6 बजे के बीच मैं पैदल ही 3 किमी दूर बनवसा बैराज घूमने के लिए निकल जाता था।
उन दिनों मेरी मुलाकात पीटर नाम के एक अंग्रेज से हुई। जो रोज बैराज घूमने जाता था। थोड़े दिन में उससे मित्रता भी हो गई। मगर मैं उससे दूरी बना कर ही चलता था। क्योंकि उसके मुँह से सिगरेट की दुर्गन्ध आती थी।
वह भारत में रहकर टूटी-फूटी हिन्दी वोलने और समझने भी लगा था! प्रसंगवश् यहाँ यह भी उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ कि बनबसा में एक बहुत बड़ा कृषि फार्म है। जिसे गुड शैफर्ड एग्रीकल्चर मिशन के नाम से जाना जाता है। उसमें एक अनाथालय भी है। जिसमें नेपाल के निर्धन और बेसहारा बालकों को आश्रय दिया जाता है। उसे अंग्रेज लोग ही चलाते हैं। जो इन बच्चों में ईसाइयत को कूट-कूटकर भर देते हैं और उन्हें मिशनरी बना देते हैं।

अब मूल बात पीटर की कहानी पर आता हूँ।

धीरे-धीरे पीटर का आना-जाना मेरे घर में भी हो गया! 6 किमी की चहल-कदमी के बाद वह मेरे यहाँ अक्सर चाय पीता था। हम भारतीयों की मानसिकता भी विचित्र है। हम गोरी चमड़ी के लोगों को अपने से सुपर समझते हैं। मेरे मुहल्ले वाले भी अपनी इसी मानसिकता के कारण मुझे अब बहुत पहुँच वाला समझने लगे थे।
एक दिन पीटर ने मेरे यहाँ चाय पीने के बाद शौच जाने की इच्छा प्रकट की। मैंने उसे शौचालय का रास्ता बता दिया। जब वो निवृत्त होकर आया तो उसका रूमाल गीला था। शायद उसने उसे साबुन से धोया होगा।
मैंने जब उससे रूमाल गीला होने का कारण पूछा तो उसने बताया कि टुमारे ट़यलेट में टिशू पेपर नही था तो मैंने अपना हैंकी स्टेंमाल कर लिया था। लेकिन वो बहुत गंडा (गन्दा) हो गया था। इसलिए मैने इसे साबुन से धो डाला।
उसके मुँह से ऐसी बात सुनकर मुझे बहुत हँसी आई। मैंने उससे कहा कि फ्रैण्ड इतना सारा पानी टॉयलेट में था उसको तुमने प्रयोग क्यों नही किया। वह बोला कि यह हमारी कल्चर नहीं है।
अन्त में यही कहूँगा कि यह तो बिल्कुल सत्य है कि शराब, लहसुन, प्याज और तम्बाकू की गन्ध पसीने में तो आती ही है साथ ही मुँह और शरीर में भी आती है! लेकिन वो अंग्रेज जो चेन स्मोकर हैं दूसरों की परवाह ही कब करते हैं! दूसरों की सुविधा का ख्याल करना सभी का कर्तव्य होना चाहिए! 
अब आप ही अन्दाजा लगा लीजिए कि क्या सिर्फ भारतीय ही बदबूदार होते हैं या कि खुशबू के ठेकेदार विदेशी भी।

(स्पंदन SPANDAN  पर आज एक पोस्ट पढ़कर)



शनिवार, जनवरी 29, 2011

"बाबा नागार्जुन और निशंक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

"बाबा नागार्जुन और निशंक" 
कल उत्तराखण्ड के यशस्वी मुख्यमन्त्री डॉ.रमेश पोखरियाल "निशंक" खटीमा के भ्रमण पर आ रहे हैं!
मुझे इस सन्दर्भ में बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण याद आ रहा है!
बात1989 की है। उस समय बाबा एक माह के खटीमा प्रवास पर थे! इस अवधि में वह कई बार मेरे यहाँ भी 2-3 दिनों के लिए रहने के लिए आये थे!
एक दिन उन्होंने मुझे एक पुराना संस्मरण सुनाते हुए कहा था 
"शास्त्री जी! उन दिनों मैं हिन्दी के प्राध्यापक वाचस्पति के यहाँ जयहरिखाल (लैंसडाउन) में प्रवास पर था! एक लड़का मेरे पास कभी-कभी कुछ कविताएँ सुनाने के लिए आता था! उसका नाम रमेश पोखरियाल था। वह "निशंक" उपनाम से कविताएँ लिखता था! "
बाबा ने आगे कहना जारी रखा और कहा- 
"उसकी कविताएँ उसके शुरूआती दौर की कविताएँ थी, जिनमें कुछ कविताएँ तो बहुत अच्छी थीं। लेकिन कुछ कविताएँ बहुत सारा संशोधन चाहतीं थी। जो कविताएँ मुझे अच्छी लगतीं थी मैं उन पर उसे जी भरकर दाद दिया करता था। लेकिन जो कविताएँ मुझे अच्छी नहीं लगतीं थी उनको सुनकर मैं केवल हाँ - हूँ कर देता था! फिर भी वह लड़का मुझे बहुत प्रतिभाशाली लगता था।"
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आज मैं कह सकता हूँ कि वह नवयुवक निश्चितरूप से डॉ. रमेश पोशरियाल निशंक ही रहे होंगे। जो आज उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री के पद को सुशोभित कर रहे हैं।
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जब मुझे सन् 2008 में बनारस जाने का सौभाग्य मिला तो मैं अपने मित्र वाचस्पति के घर भी गया था! उस समय  डॉ. रमेश पोशरियाल निशंक उत्तराखण्ड सरकार में स्वास्थ्यमन्त्री थे। तब हिन्दी के प्रोफेसर वाचस्पति ने भी मुझे यही बताया था कि 1885-86 में रमेश पोखरियाल निशंक नाम का एक नवयुवक हमारे घर बाबा नागार्जुन से मिलने के लिए आया करता था। सुना है कि आज वह उत्तराखण्ड सरकार में मंत्री है। तब मैंने उन्हें बताया था कि  डॉ. रमेश पोशरियाल निशंक उत्तराखण्ड के स्वास्थ्यमन्त्री है। इस बात को सुन कर वह बहुत प्रसन्न नजर आये! उस अवधि में मैंने उनसे कहा कि आप मेरे साथ देहरादून चलें । मैं उत्तराखण्ड सरकार में अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य हूँ! भेंट करने में आसानी हो जाएगी। लेकिन वह समय कभी नहीं आया।
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बाबा का सुनाया हुआ यह संस्मरण मैं जब भी याद करता हूँ तो मुझे आभास होता है कि बाबा ने जिसे भी अपना आशीर्वाद दिया वह मुझे ऊँचाइयों की बुलन्दी पर पहुँचा हुआ मिला।

बुधवार, दिसंबर 15, 2010

" संस्मरण शृंखला-1" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

प्रिया स्कूटर
1976 की बात है! मैं तब बनबसा जिला नैनीताल में रहता था। 
उन दिनों मुझे नई-नई चीजे खरीदने का बहुत शौक था। तभी मुझे किसी काम से दो दिन के लिए दिल्ली जाना पड़ा। लेकिन डेढ़ दिन में ही काम निबट गया । समय काटने के उद्देश्य से मैं करौलबाग के दुपहिया वाहनों के बाजार में चला गया!
तब "प्रिया" स्कूटर का बड़ा चलन था। बाजार में मुझे एक प्रिया स्कूटर पसंद आ गया। जिसे मैंने 5800 रुपयों में खरीद लिया।
अब इसको बनबसा ले जाने की समस्या थी!
एक बार तो मन में विचार आया  कि कल सुबह इसको चलाकर ही शाम तक बनबसा पहुँच जाऊँगा। मगर तभी इरादा बदल गया और मैं स्कूटर पर सवार होकर कश्मीरीगेट अन्तर्राज्यीय बस स्टैण्ड पर चला गया। देका तो टनकपुर-डिपो की बस तैयार खड़ी थी। जिसमें नेपाली सवारियों की भरमार थी!
मैंने कणडक्टर और ड्राईवर से कहा कि मेरा स्कूटर बनबसा जाना है और इसमें खरौंच नहीं लगनी चाहिए!
दोनों ने कहा कि ले जाएँगे मगर इसे ले जाने के लिए 100 रुपये देने होंगे!
अन्धे को तो केवल दो आँखे ही चाहिए। मैंने तुरंत हाँ भर दी और देखने लगा कि स्कूटर बस में कहाँ और कैसे लादा जाएगा? 
अब कण्डक्टर और ड्राईवर ने बस में सवार नेपालियों से कहा -
"हुजूर! स्कूटर बस की छत पर जब तक नहीं रक्खा जाएगा तब तक बस नही चलेगी!
अब तो करीब 20 नेपाली युवकों ने मेरा स्कूटर बस की छत पर पहुँचा दिया और दोनों ओर बिस्तरबन्द रखकर बीच में इसको खड़ाकरके रस्सी और त्रिपाल से ढक दिया!
सुबह 5 बजे जब बस बनबसा पहुँची तो ड्राईवर और कण्डक्टर ने फिर नेपालियो से कहा  "हुजूर बनबसा आ गया है। अब उतरो और बार्डर पार करके नेपाल जाओ!"
नेपलियों ने फिर बहुत यत्न से मेरा स्कूटर मेरे घर के आगे उतार दिया।
सुबह-सुबह श्रीमती जी ने जब मुझे स्कूटर के साथ देखा तो उन्हें भी हर्ष और आश्चर्य हुआ!

शनिवार, अक्टूबर 30, 2010

"शेरू तुझे सलाम!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

पराया देश पर 
श्री राज भाटिया जी का 
संस्मरण पढ़ रहा था
आज मुझे भी 27 वर्ष पुराना 
एक ऐसा ही संस्मरण याद आ रहा है! 
उन दिनों भी मुझे कुत्ते पालने का बहुत शौक था! मेरे एक वनगूजर मित्र ने मुझे एक भोटिया नस्ल की कुतिया लाकर दी! 
दो महीने बाद उसने बहुत ही प्यारे-प्यारे 13 पिल्लों को जन्म दिया! पिल्लों के जन्म के चार दिन बाद ही वह इस दुनिया से चली गई!
लेकिन अब इन 13 पिल्लों को पालने की जिम्मेदारी मेरी थी!
मैंने इनके लिए दूधवाले से 2 किलो दूध ज्यादा लेना शुरू कर दिया! अब इन अबोध श्वान शिशुओं को दूध पिलाने में बहुत समस्या आई!
खैर मैंने बाजार से दो निप्पल और दो दूध पिलाने की बोतलें खरीद लीं!
बारी-बारी से उन सबकों 3 टाइम दूध पिलाना मेरी दिनचर्या बन चुकी थी! 15 दिनों बाद यह पिल्ले भात-खचड़ी भी खाने लगे थे! अपनी भोटिया नस्ल के कारण इनकी सेहत बहुत अच्छी थी! अतः मेरे इष्ट-मित्रों ने बहुत शौक से 12 पिल्ले पालने के ले मुझसे लिए!
एक पूरी तरह से काला-कलूटा पिल्ला मैंने स्वयं ही रख लिया! वह भी इसलिए कि वह अपने भाई-बहनों में सबसे कमजोर था! 
साज-संभाल और खातिरदारी के कारण यह भी थोड़े ही दिनों में हृष्ट-पुष्ट हो गया!
मैंने प्यार से इसका नाम रक्खा शेरू!
शेरू अपनी नस्ल के कारण बहुत बड़े आकार का था! मेरे पिता जी से वह बहुत प्यार करता था! अगर कोई प्यार से भी पिता जी का हाथ पकड़ता था तो शेरू यह सोचता था कि वह पिता जी से झगड़ा कर रहा हैं अतः वो भौंकने लगता था और उस पर हमला करने को तैयार हो जाता था!
हम लोग दोमंजिले पर रहते थे मगर पिता जी नीचे ही एक कमरे में रहते थे! 
उन दिनों मेरे घर का आँगन कच्चा ही था! गर्मी के दिनों में पिता जी बाहर आँगन में ही चारपाई बिछा कर सोते थे!
एक दिन मैंने देखा कि पिता जी की चारपाई के नीचे एक 3 फीट लम्बा  खून से लहूलुहान  साँप मरा पड़ा था!
मुझे यह समझते देर न लगी कि यह शेरू का ही कारनामा रहा होगा! जिसने अपनी जान पर खेलकर पिता जी पर कोई आँच नही आने दी थी!
काश् मेरे पास आज उस स्वामीभक्त शेरू का फोटो होता तो इस पोस्ट के साथ जरूर लगाता!
उसके लिए अब भी मेरे मुँह से यही निकलता है- 
"शेरू तुझे सलाम!" 

शुक्रवार, जून 18, 2010

“मेरी गुरूकुल यात्रा-२” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

"पिता जी पीछे-पीछे!

और मैं आगे-आगे!!"

गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरिद्वार) से मैं भाग कर घर आ गया था। पिता जी को यह अच्छा नही लगा। अतः वे मुझे अगले दिन फिर ज्वालापुर गुरूकुल में लेकर चल दिये। सुबह 10 बजे मैं और पिता जी गुरूकुल पहुँच गये।
संरक्षक जी ने पिता जी कहा- ‘‘इस बालक का पैर एक बार निकल गया है, यह फिर भाग जायेगा।’’ पिता जी ने संरक्षक जी से कहा- ‘‘ अब मैंने इसे समझा दिया है। यह अब नही भागेगा।’’
मेरे मन में क्या चल रहा था। यह तो सिर्फ मैं ही जानता था। दो बातें उस समय मन में थीं कि यदि मना करूँगा तो पिता जी सबके सामने पीटेंगे। यदि पिता जी ने पीटा तो साथियों के सामने मेरा अपमान हो जायेगा। इसलिए मैं अपने मन की बात अपनी जुबान पर नही लाया और ऊपर से ऐसी मुद्रा बना ली, जैसे मैं यहाँ आकर बहुत खुश हूँ। थोड़ी देर पिता जी मेरे साथ ही रहे। भण्डार में दोपहर का भोजन करके वो वापिस लौट गये।
शाम को 6 बजे की ट्रेन थी, लेकिन वो सीधी नजीबाबाद नही जाती थी। लक्सर बदली करनी पड़ती थी। वहाँ से रात को 10 बजे दूसरी ट्रेन मिलती थी।
इधर मैं गुरूकुल में अपने साथियों से घुलने-मिलने का नाटक करने लगा। संरक्षक जी को भी पूरा विश्वास हो गया कि ये बालक अब गुरूकुल से नही भागेगा।
शाम को जैसे ही साढ़े चार बजे कि मैं संरक्षक जी के पास गया और मैने उनसे कहा- ‘‘गुरू जी मैं कपड़े धोने ट्यूब-वैल पर जा रहा हूँ।’’
उन्होंने आज्ञा दे दी। मैंने गन्दे कपड़ों में एक झोला भी छिपाया हुआ था। अब तो जैसे ही ट्यूब-वैल पर गया तो वहाँ इक्का दुक्का ही लड्के थे, जो स्नान में मग्न थे। मैं फिर रेल की लाइन-लाइन हो लिया। कपड़े झोले मे रख ही लिए थे।
ज्वालापुर स्टेशन पर पहुँच कर देखा कि पिता जी एक बैंच पर बैठ कर रेलगाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे। मैं भी आस-पास ही छिप गया।
जैसे ही रेल आयी-पिता जी डिब्बे में चढ़ गये। अब मैं भी उनके आगे वाले डिब्बे में रेल में सवार हो गया। लक्सर स्टेशन पर मैं जल्दी से उतर कर छिप गया और पिता जी पर नजर रखने लगा। कुद देर बाद वो स्टेशन की बैंच पर लेट गये और सो गये।
अब मैं आराम से टिकट खिड़की पर गया और 30 नये पैसे का नजीबाबाद का टिकट ले लिया। रात को 10 बजे गाड़ी आयी। पिता जी तो लक्सर स्टेशन पर सो ही रहे थे। मैं रेल में बैठा और रात में साढ़े ग्यारह बजे नजीबाबाद आ गया। नजीबाबाद स्टेशन पर ही मैं भी प्लेटफार्म की एक बैंच पर सो गया। सुबह 6 बजे उठ कर मैं घर पहुँच गया।
माता जी और नानी जी ने पूछा कि तेरे पिता जी कहाँ हैं? मैं क्या उत्तर देता।
एक घण्टे बाद पिता जी जब घर आये तो नानी ने पूछा-‘‘रूपचन्द को गुरूकुल छोड़ आये।‘‘
पिता जी ने कहा-‘‘हाँ, बड़ा खुश था, अब उसका गुरूकुल में मन लग गया है।’’
तभी माता जी मेरा हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर लायीं और कहा-‘‘ये कौन है?’’
यह मेरी गुरूकुल की अन्तिम यात्रा रही।

रविवार, जून 13, 2010

“मेरी गुरूकुल यात्रा-1” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

“बचपन के संस्मरण”


बात लगभग 45 वर्ष पुरानी है। मेरे मामा जी आर्य समाज के अनुयायी थे। उनके मन में एक ही लगन थी कि परिवार के सभी बच्चें पढ़-लिख जायें और उनमें आर्य समाज के संस्कार भी आ जायें।


मेरी माता जी अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं और मैं अपने घर का तो इकलौता पुत्र था ही साथ ही ननिहाल का भी दुलारा था। इसलिए मामाजी का निशाना भी मैं ही बना। अतः उन्होंने मेरी माता जी और नानी जी अपनी बातों से सन्तुष्ट कर दिया और मुझको गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरद्वार) में दाखिल करा दिया गया।
घर में अत्यधिक लाड़-प्यार में पलने के कारण मुझे गुरूकुल का जीवन बिल्कुल भी अच्छा नही लगता था। मैं कक्षा में न जाने के लिए अक्सर नये-नये बहाने ढूँढ ही लेता था और गुरूकुल के संरक्षक से अवकाश माँग लेता था।
उस समय मेरी बाल-बुद्धि थी और मुझे ज्यादा बीमारियों के नाम भी याद नही थे। एक दो बार तो गुरू जी से ज्वर आदि का बहाना बना कर छुट्टी ले ली। परन्तु हर रोज एक ही बहाना तो बनाया नही जा सकता था।
अगले दिन भी कक्षा में जाने का मन नही हुआ, मैंने गुरू जी से कहा कि-‘‘गुरू जी मैं बीमार हूँ, मुझे प्रसूत का रोग हुआ है।’’ गुरू जी चौंके - हँसे भी बहुत और मेरी जम कर मार लगाई।
अब तो मैंने निश्चय कर ही लिया कि मुझे गुरूकुल में नही रहना है। अगले दिन रात के अन्तिम पहर में 4 बजे जैसे ही उठने की घण्टी लगी। मैंने शौच जाने के लिए अपना लोटा उठाया और रेल की पटरी-पटरी स्टेशन की ओर बढ़ने लगा। रास्ते में एक झाड़ी में लोटा भी छिपा दिया।
3 कि.मी. तक पैदल चल कर ज्वालापुर स्टेशन पर पहँचा तो देखा कि रेलगाड़ी खड़ी है। मैं उसमें चढ़ गया। 2 घण्टे बाद जैसे ही नजीबाबाद स्टेशन आया मैं रेलगाड़ी से उतर गया और सुबह आठ बजे अपने घर आ गया। मुझे देखकर मेरी छोटी बहन बहुत खुश हुई।
माता जी ने पिता जी के सामने तो मुझ पर बहुत गुस्सा किया लेकिन बाद में मुझे बहुत प्यार किया।
यह थी मेरी गुरूकुल यात्रा की पहली कड़ी।

क्रमशः……

शनिवार, जून 05, 2010

‘‘बाबा नागार्जुन के तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया था।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-11”


26 मई 2010 से 26 मई 2011 तक 
बाबा नागार्जुन का जन्म-शती वर्ष मनाया जाएगा! 
इस अवधि में आप भी बाबा के सम्मान में 
अपने स्तर पर कोई आयोजन अवश्य करें!
समय पर सूचना देंगे तो
मैं भी सम्मिलित होने का प्रयास करूँगा!

[n.jpg]बाबा नागार्जुन की तो हर बात निराली ही थी।
वे जो कुछ बोलते थे। तर्क की कसौटी पर कस कर बहुत ही  नपा तुला ही बोलते थे।
बात 1989 की है। उन दिनों मेरे एक जवाँदिल बुजुर्ग मित्र ठा. कमला कान्त सिंह थे, इनका खटीमा शहर में ‘होटल बेस्ट व्यू’ के नाम से एक मात्र थ्री स्टार होटल था। ये बाबा नागार्जुन के हम-उम्र ही थे। बिहार से लगते हुए क्षेत्र पूर्वी उत्तर-प्रदेश के ही मूल निवासी थे।
बाबा से मिलने अक्सर आ जाते थे।
एक दिन बातों-बातों में ठाकुर साहब को पता लग ही गया कि बाबा मीट भी खा लेते हैं। बस फिर क्या था, उन्होंने बाबा को खाने की दावत दे दी।
बाबा ने कहा- ‘‘ठाकुर साहब! मैं होटल का मीट नही नही खाता हूँ। घर पर ही मीट बनवाना।’’
शाम को ठाकुर साहब ने बाबा को बुलावा भेज दिया।
मैं बाबा को साथ लेकर ठाकुर साहब के घर गया।
अब ठा. साहब ने अपनी कार में बाबा को बैठाया और अपने होटल ले गये।
बस फिर क्या था?
बाबा बिफर गये और बड़ा अनुनय-विनय करने पर भी बाबा ने ठाकुर साहब की दावत नही खाई और होटल से वापिस लौट आये। मेरे घर पर खिचड़ी बनवा कर बडे प्रेम से खाई।
मैंने बाबा से पूछा- ‘‘बाबा! आपने ठा. साहब की दावत क्यों अस्वीकार कर दी।’’
बाबा ने कहा- ‘‘शास्त्री जी! मैंने ठा. साहब से पहले ही कहा था कि मैं होटल का मीट नही खाता हूँ।’’
मैंने प्रश्न किया- ‘‘ बाबा! होटल में क्यों नही खाते हो?’’
बाबा बोले- ‘‘अरे भाई! होटल के खाने में घर के खाने जितना प्यार और अपनत्व नही होता है। प्यार पैसा खर्च करके तो नही खरीदा जा सकता।’’
बाबा के तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया था।

बुधवार, जून 02, 2010

"बाबा नागार्जुन अक्सर याद आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-10”

उत्तर-प्रदेश के नैनीताल जिले के काशीपुर शहर (यह अब उत्तराखण्ड में है) से धुमक्कड़ प्रकृति के बाबा नागार्जुन का काफी लगाव था।
सन् 1985 से 1998 तक बाबा प्रति वर्ष एक सप्ताह के लिए काशीपुर आते थे। वहाँ वे अपने पुत्र तुल्य हिन्दी के प्रोफेसर वाचस्पति जी के यहाँ ही रहते थे। मेरा भी बाबा से परिचय वाचस्पति जी के सौजन्य से ही हुआ था। फिर तो इतनी घनिष्ठता बढ़ गयी कि बाबा मुझे भी अपने पुत्र के समान ही मानने लगे और कई बार मेरे घर में प्रवास किया।
प्रो0 वाचस्पति का स्थानानतरण जब जयहरिखाल (लैन्सडाउन) से काशीपुर हो गया तो बाबा ने उन्हें एक पत्र भी लिखा। जो उस समय अमर उजाला बरेली संस्करण में छपा था। 
इसके साथ बाबा नागार्जुन का 
एक दुर्लभ बिना दाढ़ी वाला चित्र भी है। 
जिसमें बाबा के साथ प्रो0 वाचस्पति भी हैं। 
बाबा ने 15 अक्टूबर,1998 को 
अपना मुण्डन कराया था। 
उसी समय का यह दुर्लभ चित्र
 प्रो0 वाचस्पति और अमर उजाला के सौजन्य से 
प्रकाशित कर रहा हूँ।

बाबा अक्सर अपनी इस रचना को सुनाते थे-
खड़ी हो गयी चाँपकर कंगालों की हूक
नभ में विपुल विराट सी शासन की बन्दूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं मूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बन्दूक
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य, वह धन्य है, शासन की बन्दूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ ठगने लगी, शासन की बन्दूक
जले ठूँठ पर बैठ कर, गयी कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी, शासन की बन्दूक

रविवार, मई 30, 2010

‘‘अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है’’-बाबा नागार्जुन। (डा. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)

“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-9”

चित्र में- (बालक) मेरा छोटा पुत्र विनीत, मेरे कन्धें पर हाथ रखे बाबा नागार्जुन

और चाय वाले भट्ट जी, पीछे-चालीस वर्ष पूर्व का खटीमा बस स्टेशन।[bhatt+ji.jpg]

बाबा नागार्जुन की तो इतनी स्मृतियाँ मेरे मन व मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं कि एक संस्मरण लिखता हूँ तो दूसरा याद हो आता है।

मेरे व वाचस्पति जी के एक चाटुकार मित्र थे। जो वैद्य जी के नाम से मशहूर थे। वे अपने नाम के आगे ‘निराश’ लिखते थे। अच्छे शायर माने जाते थे। आजकल तो दिवंगत हैं। परन्तु धोखा-धड़ी और झूठ का व्यापार इतनी सफाई व सहजता से करते थे कि पहली बार में तो कितना ही चतुर व्यक्ति क्यों न हो उनके जाल में फँस ही जाता था।

उन दिनों बाबा का प्रवास खटीमा में ही था। वाचस्पति जी हिन्दी के प्राध्यापक थे। इसलिए विभिन्न कालेजों की हिन्दी विषय की कापी उनके पास मूल्यांकन के लिए आती थीं। उन दिनों चाँदपुर के कालेज की कापियाँ उनके पास आयी हुईं थी।

तभी की बात है कि दिन में लगभग 2 बजे एक सज्जन वाचस्पति जी का घर पूछ रहे थे। उन्हें वैद्य जी टकरा गये। और राजीव बर्तन स्टोर पर बैठ कर उससे बातें करने लगे। बातों-बातों में यह निष्कर्ष निकला कि उनके पुत्र का हिन्दी का प्रश्नपत्र अच्छा नही गया था। इसलिए वो उसके नम्बर बढ़वाने के लिए किन्ही वाचस्पति प्रोफेसर के यहाँ आये हैं।

वैद्य जी ने छूटते ही कहा- "प्रोफेसर वाचस्पति तो मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं। लेकिन वो एक नम्बर बढ़ाने के एक सौ रुपये लेते हैं। आपको जितने नम्बर बढ़वाने हों हिसाब लगा कर उतने रुपये दे दीजिए।"

बर्तन वाला राजीव यह सब सुन रहा था। उसकी दूकान के ऊपर ही वाचस्पति जी का निवास था और वह उनका भक्त था।

राजीव चुपके से अपनी दूकान से उठा और वाचस्पति जी से जाकर बोला- ‘‘सर जी! आप भी 100 रु0 नम्बर के हिसाब से ही परीक्षा में नम्बर बढ़ा देते हैं क्या?’’ और उसने अपनी दुकान पर हुई पूरी घटना बता दी।

वाचस्पति जी ने राजीव से कहा- "जब वैद्य जी! चाँदपुर से आये व्यक्ति का पीछा छोढ़ दें, तो उस व्यक्ति को मेरे पास बुला लाना।"

इधर बैद्य जी ने 10 अंक बढ़वाने के लिए चाँदपुर वाले व्यक्ति से एक हजार रुपये ऐंठ लिए थे।

बाबा नागार्जुन भी राजीव और वाचस्पति जी की बातें ध्यान से सुन रहे थे।

थोड़ी ही देर में वैद्य जी वाचस्पति जी के घर आ धमके। इसी की आशा हम लोग कर रहे थे। पहले तो औपचारिकता की बातें होती रहीं। फिर वैद्य जी असली मुद्दे पर आ गये।

वाचस्पति जी ने कहा- ‘‘वैद्य जी मैं यह व्यापार नही करता हूँ।’’

तब तक राजीव चाँदपुर वाले व्यक्ति को भी लेकर आ गया। हम लोग तो वैद्य जी से कुछ बोले नही।

परन्तु बाबा नागार्जुन ने वैद्य जी की क्लास लेनी शुरू कर दी। सभ्यता के दायरे में जो कुछ भी कहा जा सकता था बाबा ने खरी-खोटी के रूप में वो सब कुछ वैद्य जी को सुनाया।

अब बाबा ने चाँदपुर वाले व्यक्ति से पूछा- ‘‘आपसे इस दुष्ट ने कुछ लिया तो नही है।’’

तब 1000 रुपये वाली बात सामने आयी।

बाबा ने जब तक उस व्यक्ति के रुपये वैद्य जी से वापिस नही करवा दिये तब तक वैद्य जी का पीछा नही छोड़ा।

बाबा ने उनसे कहा- ‘‘वैद्य जी अब तो यह आभास हो रहा है कि तुम जो कविताएँ सुनाते हो वह भी कहीं से पार की हुईं ही होंगी। साथ ही वैद्य जी को हिदायत देते हुए कहा कि

"अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है।"

मंगलवार, मई 25, 2010

"तुम तो अखबार पढ़ना भी नही जानते" - बाबा नागार्जुन! (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)

“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-8”

मेरी 6 जुलाई 1989 की सुबह, बाबा नागार्जुन की से डाँट से शरू हुई। प्रातःकाल अखबार बाँटने वाला नित्य की तरह अखबार डाल कर गया। मैं अखबार पढ़ने लगा।

बाबा भी पास ही बैठे थे। मैंने पाँच मिनट में सुर्खियाँ देख कर अखबार रख दिया ।

बाबा बोले- ‘‘शास्त्री जी! आपने अखबार पढ़ लिया।’’

मैंने कहा- ‘‘जी बाबा !

‘‘बाबा ने कहा- ‘‘आपको अखबार भी ढंग से पढ़ना नही आता।‘‘

मैंने उत्तर दिया- ‘‘बाबा आप ये क्या कह रहे हैं? अखबार कैसे पढ़ूँ ? आप ही बता दीजिए।’’

बाबा बोले - ‘‘देखो सबसे पहले समाचार पत्र में जो चित्र छपे होते हैं। उनको देखना जरूरी होता है। उसके बाद ही सुर्खियाँ पढ़ी जाती हैं। आपने तो सरसरी नजर से सिर्फ हेड-लाइन्स पढ़ जी और अखबार का काम तमाम कर दिया।’’

बाबा ने कहा- ‘‘मुझे भी इस अखबार की कुछ खबरें सुनाओ।’’

मैंने उन्हें समाचार पत्र पढ़कर सुनाना शुरू कर दिया। बाबा की नजर उम्र के इस पड़ाव में जवाब दे चुकीं थी। इसलिए वे मैग्नेफाइंग-ग्लास से ही थोड़ा-बहुत लिख पढ लेते थे।

बाबा ने अपने हाथ में मैग्नेफाइंग-ग्लास पकड़ा हुआ था।

सबसे पहले उन्होंने अखबार में छपे चित्रों को देखा और उसके नीचे लिखा विवरण मुझसे सुना।

अब बाबा को पूरा अखबार सुनाना था। मैंने अखबार सुनाना शुरू किया। सबसे पहले हत्या और लूट-पाट की एक बड़ी खबर लगी थी।

बाबा ने अनमने ढंग उसे सुना। इसके बाद स्थानीय खबरें थीं। बाबा ने उन्हे भी सुनना पसन्द नही किया। अब गैंग-रेप की एक घटना थी।

बाबा ने कहा- आगे बढ़ो।

बाबा नागार्जुन ने कौन सी खबरें पसन्द कीं थी । यही मैं बताने जा रहा हूँ।

अखबार के बीच में एक पन्ना होता है, जिसमें सम्पादकीय होता हैं।

पहले तो बाबा ने उसे सुना। उसके बाद इस पन्ने पर राजनीतिज्ञों और वरिष्ठ पत्रकारों ने जो कुछ लिखा था। वो सब बाबा ने सुना। जिसे कि कुछ ही लोग पढ़ते हैं।

बाबा ने मुझे समझाया- ‘‘शास्त्री जी अखबार पढ़ने का यही सही तरीका है। जब एक रुपया खर्च कर रहे हो तो ढाई आने की बात क्यों पढते हो? पूरे रुपये का मजा लो। एक बात ध्यान में सदैव रखना कि अखबार मनोरंजन का ही साधन नही है। यह ज्ञानवर्धन का साधन भी है।’’

शनिवार, मई 22, 2010

बाबा नागार्जुन का एक रूप ऐसा भी- (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)

“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-7”

चित्र में- (खड़े हुए) टीकाराम पाण्डेय एकाकी
(चारपाई पर बैठे हुए)
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक", बाबा नागार्जुन, देवदत्त प्रसून     
 इस संस्मरण को लिखने का मेरा उद्देश्य है कि बाबा नागार्जुन के मन में कहीं यह जरूर छिपा हुआ था कि देश के भावी कर्णधार शिक्षित हों। भारत अन्य देशों की तुलना में शिक्षा में पिछड़ा हुआ न हो। साथ ही विद्यार्थियों को इससे प्रेरणा भी मिले कि उन्हें परीक्षा में प्रथम-श्रेणी उत्तीर्ण होना चाहिए। शायद यही प्रेरणा उस महान विभूति की थी कि मेरा बड़ा पुत्र हाई-स्कूल के बाद इण्टर में भी प्रथम श्रेणी मे ही पास हुआ।
आज बाबा को साथ लेकर जाना था पीलीभीत जिले के मझोला कस्बे में। मझोला कस्बे में को-आपरेटिव शुगर फैक्ट्री में एक साहित्य विभाग भी था। यह विभाग बनवाने में पीलीभीत के महान साहित्य-सेवी स्व0 रोशन लाल शर्मा का योगदान था। इसके पीछे उनकी यह सोच थी कि इससे किसी गरीब साहित्यकार के बच्चों और उसके परिवार का पेट-पालन होगा और दूसरी बात यह थी कि फैक्ट्री की स्टेशनरी की खरीद-फरोख्त, उसकी प्रिंटिंग तथा पत्र पत्रिकाओं में फैक्ट्री के विरुद्ध या अनुकूल जो कुछ छप रहा है, उस पर दृष्टि रखना व उसका जवाब देना।
इसी शुगर फैक्ट्री में एक मदन विरक्त भी थे। उन दिनों वे इसके साहित्य विभाग में सम्पादक के पद पर नियुक्त थे। वे बाबा से बहुत लगाव रखते थे। एक दिन वे भी बाबा से मिलने के लिए आये। बाबा से बतियाते रहे और मझोला शुगर फैक्ट्री में कवि-गोष्ठी आयोजित करने के लिए बाबा से अनुमति ले ली।
रविवार के दिन मझोला शुगर फैक्ट्री के गेस्ट-हाउस में गोष्ठी निश्चित हो गयी। बाबा के सुझाव पर गोष्ठी भी ऐसी वैसी नही उच्च-कोटि की रखी गयी। बाबा ने कहा था कि गोष्ठी में क्षेत्र के उन सभी विद्यार्थियों को बुलाना है जिन्होंने 10वीं या 12वीं की परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त की हो। बस अपनी मार्क-शीट की फोटो स्टेट कापी जमा करनी होगी। शुगर फैक्ट्री की ओर से इन सब विद्यार्थियों को पुरस्कार भी बाबा के ही कर-कमलों से दिलवाया गया। मेरे ज्येष्ठ-पुत्र नितिन को भी हाई-स्कूल में प्रथम श्रेणी लाने पर एक कांस्य मैडल व प्रमाण पत्र बाबा के कर कमलों से दिया गया था।
गोष्ठी में टीकाराम पाण्डेय एकाकी, देवदत्त प्रसून, वाचस्पति जी, डा0 शम्भू शरण अवस्थी, गेन्दालाल शर्मा निर्जन, डा।रूपचन्द्र शास्त्री मयंक, ध्रुव सिंह धु्रव, रवीन्द्र पपीहा, रामदेव आर्य, मदन विरक्त, फैक्ट्री के तत्कालीन प्रशासक (जिलाधिकारी-पीलीभीत),विजय कुमार, खूबसिंह विकल, अम्बरीश कुमार आदि ने भाग लिया।
गोष्ठी के संयोजक मदन विरक्त ने तो -
‘‘वीरों की माता हूँ, वीरों की बहना।
पत्नी उस वीर की हूँ, शस्त्र जिसका गहना।’’
का सस्वर पाठ किया। जिसकी बाबा ने भूरि-भूरि प्रशंसा की।
इसके बाद बाबा ने अपनी रचना-
‘अकाल और उसके बाद’ का पाठ किया और
इसकी एक-एक लाइन की व्याख्या करके सुनाई।
कई दिनो तक चूल्हा रोया,
चक्की रही उदास,
कई दिनों तक कानी कुतिया,
 सोई उनके पास,
कई दिनों तक लगी भीत पर,
 छिपकलियों की गश्त,
कई दिनों तक चूहों की भी,
 हालत रही शिकश्त।
दाने आए घर के अंदर,
कई दिनों के बाद,
धुआँ उठा आँगन से ऊपर,
कई दिनों के बाद,
चमक उठी घर भर की आँखें,
कई दिनों के बाद,
कौए ने खुजलाई पाँखें,
कई दिनों के बाद।

मंगलवार, मई 18, 2010

बाबा नागार्जुन की दिनचर्चा! (डा. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)

“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-6”

बाबा नागार्जुन जुलाई 1989 के प्रथम सप्ताह में 5 जुलाई से 8 जुलाई तक मेरे घर में रहे। मेरे दोनो पुत्रों नितिन और विनीत के तो मजे ही आ गये। बाबा उनसे खूब बातें किया करते थे। कुछ प्रेरणा देने वाली कहानियाँ भी उन्हें सुना ही देते थे।
दिन में सोना तो बाबा का रोज का नियम था। दो-पहर को वे डेढ़-दो बजे सो जाते थे और शाम को साढ़े चार बजे तक उठ जाते थे। इसके बाद वो मेरे पिता जी से काफी बातें करते थे। दोनों की बातें घण्टों चलतीं थी।
खटीमा में जुलाई का मौसम उमस भर गर्मी का होता है और अचानक बारिस भी हो जाती है। बाबा को बारिस को देखना बड़ा अच्छा लगता था। वह घण्टों मेरे घर के बरांडे में बिछी हुई खाट बैठे रहते थे और बारिस को देखते रहते थे। हम लोग कहते थे बाबा बहुत देर से बैठे हो थोड़ा आराम कर लो। तो बाबा कहते थे कि मुझे बारिस देखना अच्छा लगता है।

बाबा को 8 जुलाई को शाम को 5 बजे मेरे दोनों पुत्र और मेरे पिता जी वाचस्पति जी के घर तक पहुँचाने के लिए गये। उसी समय का एक चित्र प्रकाशित कर रहा हूँ। जिसमें मेरे पिता श्री घासीराम जी, बड़ा पुत्र नितिन और बाबा नागार्जुन ने छोटे पुत्र विनीत के कन्धे पर हाथ रखा हुआ है।
बाबा की प्रवृत्ति तो शुरू से ही एक घुमक्कड़ की रही है। दिल्ली जाने के बाद बाबा ने मुझे एक पत्र लिखा था। जिसमें पिथौरागढ़ और शाहजहाँपुर जाने का जिक्र किया है। वो पोस्ट-कार्ड भी मैं प्रकाशित कर रहा हूँ।
बाबा नागार्जुन की स्मृति में उनकी एक रचना भी प्रस्तुत कर रहा हूँ।
जो चुनावी परिवेश पर
बिल्कुल खरी उतरती है।

आए दिन बहार के!‘
श्वेत-श्याम-रतनार’ अँखिया निहार के,

सिंडकेटी प्रभुओं की पग-धूर-झार के,

खिलें हैं दाँत ज्यों दाने अनार के,

आए दिन बहार के!


बन गया निजी काम-

दिखायेंगे और अन्न दान के, उधार के,

टल गये संकट यू. पी.-बिहार के,

लौटे टिकट मार के!

आए दिन बहार के!


सपने दिखे कार के,

गगन-विहार के,

सीखेंगे नखरे, समुन्दर-पार के,

लौटे टिकट मार के!

आए दिन बहार के!

कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।

मैंने Napptol.com को Order number- 5642977
order date- 23-12-1012 को xelectron resistive SIM calling tablet WS777 का आर्डर किया था। जिसकी डिलीवरी मुझे Delivery date- 11-01-2013 को प्राप्त हुई। इस टैब-पी.सी में मुझे निम्न कमियाँ मिली-
1- Camera is not working.
2- U-Tube is not working.
3- Skype is not working.
4- Google Map is not working.
5- Navigation is not working.
6- in this product found only one camera. Back side camera is not in this product. but product advertisement says this product has 2 cameras.
7- Wi-Fi singals quality is very poor.
8- The battery charger of this product (xelectron resistive SIM calling tablet WS777) has stopped work dated 12-01-2013 3p.m. 9- So this product is useless to me.
10- Napptol.com cheating me.
विनीत जी!!
आपने मेरी शिकायत पर करोई ध्यान नहीं दिया!
नापतोल के विश्वास पर मैंने यह टैबलेट पी.सी. आपके चैनल से खरीदा था!
मैंने इस पर एक आलेख अपने ब्लॉग "धरा के रंग" पर लगाया था!

"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

जिस पर मुझे कई कमेंट मिले हैं, जिनमें से एक यह भी है-
Sriprakash Dimri – (January 22, 2013 at 5:39 PM)

शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी
नापतोल डाट काम से कार के लिए वैक्यूम क्लीनर ऑनलाइन शापिंग से खरीदा ...
जो की कभी भी नहीं चला ....ईमेल से इनके फोरम में शिकायत करना के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला ..
.हंसी का पात्र बना ..अर्थ हानि के बाद भी आधुनिक नहीं आलसी कहलाया .....
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मान्यवर,
मैंने आपको चेतावनी दी थी कि यदि आप 15 दिनों के भीतर मेरा प्रोड्कट नहीं बदलेंगे तो मैं
अपने सभी 21 ब्लॉग्स पर आपका पर्दाफास करूँगा।
यह अवधि 26 जनवरी 2013 को समाप्त हो रही है।
अतः 27 जनवरी को मैं अपने सभी ब्लॉगों और अपनी फेसबुक, ट्वीटर, यू-ट्यूब, ऑरकुट पर
आपके घटिया समान बेचने
और भारत की भोली-भाली जनता को ठगने का विज्ञापन प्रकाशित करूँगा।
जिसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे।
इत्तला जानें।