नैनीताल जनपद तथा आस-पास के क्षेत्र
के सात्यिकारों को अखबारों से जब यह पता लगा कि बाबा नागार्जुन खटीमा आये हुए
हैं तो मेरे तथा वाचस्पति जी के पास उनके फोन आने लगे।
हम लोगों ने भी सोचा कि बाबा के
सम्मान में एक कवि-गोष्ठी ही कर ली जाये।
(चित्र में-सनातन धर्मशाला, खटीमा में 9 जुलाई,1989 को सम्पन्न
कवि गोष्ठी के चित्र में-गम्भीर सिंह पालनी, जवाहरलाल वर्मा,
दिनेश भट्ट, बल्लीसिंह चीमा, वाचस्पति, कविता पाठ करते हुए
ठा.गिरिराज सिंह, बाबा नागार्जुन तथा ‘डा. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक’)
अतः 9 जलाई 1989
की तारीख, समय दिन में 2 बजे का और स्थान सनातन धर्मशाला का
सभागार निश्चित कर लिया गया।
उन दिनों ठा. गिरिराज सिंह नैनीताल जिला को-आपरेटिव बैंक के महाप्रबन्धक थे। वो एक बड़े
साहित्यकार माने जाते थे। जब उनको इस गोष्ठी की सूचना अखबारों के माध्यम से मिली
तो वह भी बाबा से मिलने के लिए पहुँच गये।
सनातन धर्मशाला , खटीमा
में गोष्ठी शुरू हो गयी। जिसकी अध्यक्षता ठा. गिरिराज सिंह ने की। बाबा को मुख्य
अतिथि बनाया गया। इस अवसर पर कथाकार गम्भीर सिंह पालनी, गजल
नवोदित हस्ताक्षर बल्ली सिंह चीमा, जवाहर लाल वर्मा, दिनेश
भट्ट,देवदत्त प्रसून, हास्य-व्यंग
के कवि गेंदालाल शर्मा निर्जन, टीका राम पाण्डेय एकाकी,रामसनेही
भारद्वाज स्नेही, डा. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक, भारत
ग्राम समाचार के सम्पादक मदन विरक्त, केशव भार्गव निर्दोष आदि ने अपनी रचनाओं का
पाठ किया। गोष्ठी का संचालन राजकीय महाविद्यालय, खटीमा के हिन्दी के
प्राध्यापकवाचस्पति ने किया।
इस अवसर पर साहित्य शारदा मंच, खटीमा
का अध्यक्ष होने के नाते मैंने बाबा को शॉल ओढ़ा कर साहित्य-स्नेही की मानद
उपाधि से अलंकृत भी किया था।
उन दिनों मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
की स्थायी समिति का सदस्य था। सम्मेलन के प्रधानमन्त्री श्री श्रीधर शास्त्री से
मेरी घनिष्ठता अधिक थी। मैंने उन्हें भी बाबा नागार्जुन के खटीमा में होने की
सूचना दे दी थी।
उनका उत्तर आया कि बाबा को 14 सितम्बर,
हिन्दी दिवस के अवसर पर प्रयाग ले
आओ। सम्मेलन की ओर से उन्हें सम्मानित कर देंगे।
मैंने बाबा के सामने श्रीधर शास्त्री
जी का प्रस्ताव रख दिया। बाबा ने अनसुना कर दिया। मैंने बाबा को फिर याद दिलाया।
अब तो बाबा का रूप देखने वाला था।
वह बोले-‘‘श्रीधर
जी से कह देना कि मैं उनका वेतन भोगी दास नही हूँ। उन्हें ससम्मान मुझे स्वयं ही
आमन्त्रित करना चाहिए था।’’
मैंने बाबा को बहुत समझाया परन्तु
बाबा ने एक बार जो कह दिया वह तो अटल था।
इतने स्वाभिमानी थे बाबा।
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मंगलवार, जुलाई 15, 2014
"स्वाभिमानी बाबा नागार्जुन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुरुवार, मई 26, 2011
"पिकनिक में मामा-मामी उपहार में मिले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011
"क्या भारतीय बदबूदार होते हैं? " (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शनिवार, जनवरी 29, 2011
"बाबा नागार्जुन और निशंक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
मुझे इस सन्दर्भ में बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण याद आ रहा है!
बात1989 की है। उस समय बाबा एक माह के खटीमा प्रवास पर थे! इस अवधि में वह कई बार मेरे यहाँ भी 2-3 दिनों के लिए रहने के लिए आये थे!
एक दिन उन्होंने मुझे एक पुराना संस्मरण सुनाते हुए कहा था
"शास्त्री जी! उन दिनों मैं हिन्दी के प्राध्यापक वाचस्पति के यहाँ जयहरिखाल (लैंसडाउन) में प्रवास पर था! एक लड़का मेरे पास कभी-कभी कुछ कविताएँ सुनाने के लिए आता था! उसका नाम रमेश पोखरियाल था। वह "निशंक" उपनाम से कविताएँ लिखता था! "
बाबा ने आगे कहना जारी रखा और कहा-
"उसकी कविताएँ उसके शुरूआती दौर की कविताएँ थी, जिनमें कुछ कविताएँ तो बहुत अच्छी थीं। लेकिन कुछ कविताएँ बहुत सारा संशोधन चाहतीं थी। जो कविताएँ मुझे अच्छी लगतीं थी मैं उन पर उसे जी भरकर दाद दिया करता था। लेकिन जो कविताएँ मुझे अच्छी नहीं लगतीं थी उनको सुनकर मैं केवल हाँ - हूँ कर देता था! फिर भी वह लड़का मुझे बहुत प्रतिभाशाली लगता था।"
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आज मैं कह सकता हूँ कि वह नवयुवक निश्चितरूप से डॉ. रमेश पोशरियाल निशंक ही रहे होंगे। जो आज उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री के पद को सुशोभित कर रहे हैं।
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जब मुझे सन् 2008 में बनारस जाने का सौभाग्य मिला तो मैं अपने मित्र वाचस्पति के घर भी गया था! उस समय डॉ. रमेश पोशरियाल निशंक उत्तराखण्ड सरकार में स्वास्थ्यमन्त्री थे। तब हिन्दी के प्रोफेसर वाचस्पति ने भी मुझे यही बताया था कि 1885-86 में रमेश पोखरियाल निशंक नाम का एक नवयुवक हमारे घर बाबा नागार्जुन से मिलने के लिए आया करता था। सुना है कि आज वह उत्तराखण्ड सरकार में मंत्री है। तब मैंने उन्हें बताया था कि डॉ. रमेश पोशरियाल निशंक उत्तराखण्ड के स्वास्थ्यमन्त्री है। इस बात को सुन कर वह बहुत प्रसन्न नजर आये! उस अवधि में मैंने उनसे कहा कि आप मेरे साथ देहरादून चलें । मैं उत्तराखण्ड सरकार में अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य हूँ! भेंट करने में आसानी हो जाएगी। लेकिन वह समय कभी नहीं आया।
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बाबा का सुनाया हुआ यह संस्मरण मैं जब भी याद करता हूँ तो मुझे आभास होता है कि बाबा ने जिसे भी अपना आशीर्वाद दिया वह मुझे ऊँचाइयों की बुलन्दी पर पहुँचा हुआ मिला।
बुधवार, दिसंबर 15, 2010
" संस्मरण शृंखला-1" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
प्रिया स्कूटर 1976 की बात है! मैं तब बनबसा जिला नैनीताल में रहता था। अब कण्डक्टर और ड्राईवर ने बस में सवार नेपालियों से कहा - "हुजूर! स्कूटर बस की छत पर जब तक नहीं रक्खा जाएगा तब तक बस नही चलेगी! अब तो करीब 20 नेपाली युवकों ने मेरा स्कूटर बस की छत पर पहुँचा दिया और दोनों ओर बिस्तरबन्द रखकर बीच में इसको खड़ाकरके रस्सी और त्रिपाल से ढक दिया! सुबह 5 बजे जब बस बनबसा पहुँची तो ड्राईवर और कण्डक्टर ने फिर नेपालियो से कहा "हुजूर बनबसा आ गया है। अब उतरो और बार्डर पार करके नेपाल जाओ!" नेपलियों ने फिर बहुत यत्न से मेरा स्कूटर मेरे घर के आगे उतार दिया। सुबह-सुबह श्रीमती जी ने जब मुझे स्कूटर के साथ देखा तो उन्हें भी हर्ष और आश्चर्य हुआ! |
शनिवार, अक्टूबर 30, 2010
"शेरू तुझे सलाम!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
पराया देश पर श्री राज भाटिया जी का संस्मरण पढ़ रहा था आज मुझे भी 27 वर्ष पुराना एक ऐसा ही संस्मरण याद आ रहा है! उन दिनों भी मुझे कुत्ते पालने का बहुत शौक था! मेरे एक वनगूजर मित्र ने मुझे एक भोटिया नस्ल की कुतिया लाकर दी! दो महीने बाद उसने बहुत ही प्यारे-प्यारे 13 पिल्लों को जन्म दिया! पिल्लों के जन्म के चार दिन बाद ही वह इस दुनिया से चली गई! लेकिन अब इन 13 पिल्लों को पालने की जिम्मेदारी मेरी थी! मैंने इनके लिए दूधवाले से 2 किलो दूध ज्यादा लेना शुरू कर दिया! अब इन अबोध श्वान शिशुओं को दूध पिलाने में बहुत समस्या आई! खैर मैंने बाजार से दो निप्पल और दो दूध पिलाने की बोतलें खरीद लीं! बारी-बारी से उन सबकों 3 टाइम दूध पिलाना मेरी दिनचर्या बन चुकी थी! 15 दिनों बाद यह पिल्ले भात-खचड़ी भी खाने लगे थे! अपनी भोटिया नस्ल के कारण इनकी सेहत बहुत अच्छी थी! अतः मेरे इष्ट-मित्रों ने बहुत शौक से 12 पिल्ले पालने के ले मुझसे लिए! एक पूरी तरह से काला-कलूटा पिल्ला मैंने स्वयं ही रख लिया! वह भी इसलिए कि वह अपने भाई-बहनों में सबसे कमजोर था! साज-संभाल और खातिरदारी के कारण यह भी थोड़े ही दिनों में हृष्ट-पुष्ट हो गया! मैंने प्यार से इसका नाम रक्खा शेरू! शेरू अपनी नस्ल के कारण बहुत बड़े आकार का था! मेरे पिता जी से वह बहुत प्यार करता था! अगर कोई प्यार से भी पिता जी का हाथ पकड़ता था तो शेरू यह सोचता था कि वह पिता जी से झगड़ा कर रहा हैं अतः वो भौंकने लगता था और उस पर हमला करने को तैयार हो जाता था! हम लोग दोमंजिले पर रहते थे मगर पिता जी नीचे ही एक कमरे में रहते थे! उन दिनों मेरे घर का आँगन कच्चा ही था! गर्मी के दिनों में पिता जी बाहर आँगन में ही चारपाई बिछा कर सोते थे! एक दिन मैंने देखा कि पिता जी की चारपाई के नीचे एक 3 फीट लम्बा खून से लहूलुहान साँप मरा पड़ा था! मुझे यह समझते देर न लगी कि यह शेरू का ही कारनामा रहा होगा! जिसने अपनी जान पर खेलकर पिता जी पर कोई आँच नही आने दी थी! काश् मेरे पास आज उस स्वामीभक्त शेरू का फोटो होता तो इस पोस्ट के साथ जरूर लगाता! उसके लिए अब भी मेरे मुँह से यही निकलता है- "शेरू तुझे सलाम!" |
शुक्रवार, जून 18, 2010
“मेरी गुरूकुल यात्रा-२” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
"पिता जी पीछे-पीछे!
और मैं आगे-आगे!!"
गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरिद्वार) से मैं भाग कर घर आ गया था। पिता जी को यह अच्छा नही लगा। अतः वे मुझे अगले दिन फिर ज्वालापुर गुरूकुल में लेकर चल दिये। सुबह 10 बजे मैं और पिता जी गुरूकुल पहुँच गये। संरक्षक जी ने पिता जी कहा- ‘‘इस बालक का पैर एक बार निकल गया है, यह फिर भाग जायेगा।’’ पिता जी ने संरक्षक जी से कहा- ‘‘ अब मैंने इसे समझा दिया है। यह अब नही भागेगा।’’ मेरे मन में क्या चल रहा था। यह तो सिर्फ मैं ही जानता था। दो बातें उस समय मन में थीं कि यदि मना करूँगा तो पिता जी सबके सामने पीटेंगे। यदि पिता जी ने पीटा तो साथियों के सामने मेरा अपमान हो जायेगा। इसलिए मैं अपने मन की बात अपनी जुबान पर नही लाया और ऊपर से ऐसी मुद्रा बना ली, जैसे मैं यहाँ आकर बहुत खुश हूँ। थोड़ी देर पिता जी मेरे साथ ही रहे। भण्डार में दोपहर का भोजन करके वो वापिस लौट गये। शाम को 6 बजे की ट्रेन थी, लेकिन वो सीधी नजीबाबाद नही जाती थी। लक्सर बदली करनी पड़ती थी। वहाँ से रात को 10 बजे दूसरी ट्रेन मिलती थी। इधर मैं गुरूकुल में अपने साथियों से घुलने-मिलने का नाटक करने लगा। संरक्षक जी को भी पूरा विश्वास हो गया कि ये बालक अब गुरूकुल से नही भागेगा। शाम को जैसे ही साढ़े चार बजे कि मैं संरक्षक जी के पास गया और मैने उनसे कहा- ‘‘गुरू जी मैं कपड़े धोने ट्यूब-वैल पर जा रहा हूँ।’’ उन्होंने आज्ञा दे दी। मैंने गन्दे कपड़ों में एक झोला भी छिपाया हुआ था। अब तो जैसे ही ट्यूब-वैल पर गया तो वहाँ इक्का दुक्का ही लड्के थे, जो स्नान में मग्न थे। मैं फिर रेल की लाइन-लाइन हो लिया। कपड़े झोले मे रख ही लिए थे। ज्वालापुर स्टेशन पर पहुँच कर देखा कि पिता जी एक बैंच पर बैठ कर रेलगाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे। मैं भी आस-पास ही छिप गया। जैसे ही रेल आयी-पिता जी डिब्बे में चढ़ गये। अब मैं भी उनके आगे वाले डिब्बे में रेल में सवार हो गया। लक्सर स्टेशन पर मैं जल्दी से उतर कर छिप गया और पिता जी पर नजर रखने लगा। कुद देर बाद वो स्टेशन की बैंच पर लेट गये और सो गये। अब मैं आराम से टिकट खिड़की पर गया और 30 नये पैसे का नजीबाबाद का टिकट ले लिया। रात को 10 बजे गाड़ी आयी। पिता जी तो लक्सर स्टेशन पर सो ही रहे थे। मैं रेल में बैठा और रात में साढ़े ग्यारह बजे नजीबाबाद आ गया। नजीबाबाद स्टेशन पर ही मैं भी प्लेटफार्म की एक बैंच पर सो गया। सुबह 6 बजे उठ कर मैं घर पहुँच गया। माता जी और नानी जी ने पूछा कि तेरे पिता जी कहाँ हैं? मैं क्या उत्तर देता। एक घण्टे बाद पिता जी जब घर आये तो नानी ने पूछा-‘‘रूपचन्द को गुरूकुल छोड़ आये।‘‘ पिता जी ने कहा-‘‘हाँ, बड़ा खुश था, अब उसका गुरूकुल में मन लग गया है।’’ तभी माता जी मेरा हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर लायीं और कहा-‘‘ये कौन है?’’ यह मेरी गुरूकुल की अन्तिम यात्रा रही। |
रविवार, जून 13, 2010
“मेरी गुरूकुल यात्रा-1” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“बचपन के संस्मरण”
बात लगभग 45 वर्ष पुरानी है। मेरे मामा जी आर्य समाज के अनुयायी थे। उनके मन में एक ही लगन थी कि परिवार के सभी बच्चें पढ़-लिख जायें और उनमें आर्य समाज के संस्कार भी आ जायें। मेरी माता जी अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं और मैं अपने घर का तो इकलौता पुत्र था ही साथ ही ननिहाल का भी दुलारा था। इसलिए मामाजी का निशाना भी मैं ही बना। अतः उन्होंने मेरी माता जी और नानी जी अपनी बातों से सन्तुष्ट कर दिया और मुझको गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरद्वार) में दाखिल करा दिया गया। घर में अत्यधिक लाड़-प्यार में पलने के कारण मुझे गुरूकुल का जीवन बिल्कुल भी अच्छा नही लगता था। मैं कक्षा में न जाने के लिए अक्सर नये-नये बहाने ढूँढ ही लेता था और गुरूकुल के संरक्षक से अवकाश माँग लेता था। उस समय मेरी बाल-बुद्धि थी और मुझे ज्यादा बीमारियों के नाम भी याद नही थे। एक दो बार तो गुरू जी से ज्वर आदि का बहाना बना कर छुट्टी ले ली। परन्तु हर रोज एक ही बहाना तो बनाया नही जा सकता था। अगले दिन भी कक्षा में जाने का मन नही हुआ, मैंने गुरू जी से कहा कि-‘‘गुरू जी मैं बीमार हूँ, मुझे प्रसूत का रोग हुआ है।’’ गुरू जी चौंके - हँसे भी बहुत और मेरी जम कर मार लगाई। अब तो मैंने निश्चय कर ही लिया कि मुझे गुरूकुल में नही रहना है। अगले दिन रात के अन्तिम पहर में 4 बजे जैसे ही उठने की घण्टी लगी। मैंने शौच जाने के लिए अपना लोटा उठाया और रेल की पटरी-पटरी स्टेशन की ओर बढ़ने लगा। रास्ते में एक झाड़ी में लोटा भी छिपा दिया। 3 कि.मी. तक पैदल चल कर ज्वालापुर स्टेशन पर पहँचा तो देखा कि रेलगाड़ी खड़ी है। मैं उसमें चढ़ गया। 2 घण्टे बाद जैसे ही नजीबाबाद स्टेशन आया मैं रेलगाड़ी से उतर गया और सुबह आठ बजे अपने घर आ गया। मुझे देखकर मेरी छोटी बहन बहुत खुश हुई। माता जी ने पिता जी के सामने तो मुझ पर बहुत गुस्सा किया लेकिन बाद में मुझे बहुत प्यार किया। यह थी मेरी गुरूकुल यात्रा की पहली कड़ी। क्रमशः…… |
शनिवार, जून 05, 2010
‘‘बाबा नागार्जुन के तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया था।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-11”
26 मई 2010 से 26 मई 2011 तक बाबा नागार्जुन का जन्म-शती वर्ष मनाया जाएगा! इस अवधि में आप भी बाबा के सम्मान में अपने स्तर पर कोई आयोजन अवश्य करें! समय पर सूचना देंगे तो मैं भी सम्मिलित होने का प्रयास करूँगा! ![]() वे जो कुछ बोलते थे। तर्क की कसौटी पर कस कर बहुत ही नपा तुला ही बोलते थे। बात 1989 की है। उन दिनों मेरे एक जवाँदिल बुजुर्ग मित्र ठा. कमला कान्त सिंह थे, इनका खटीमा शहर में ‘होटल बेस्ट व्यू’ के नाम से एक मात्र थ्री स्टार होटल था। ये बाबा नागार्जुन के हम-उम्र ही थे। बिहार से लगते हुए क्षेत्र पूर्वी उत्तर-प्रदेश के ही मूल निवासी थे। बाबा से मिलने अक्सर आ जाते थे। एक दिन बातों-बातों में ठाकुर साहब को पता लग ही गया कि बाबा मीट भी खा लेते हैं। बस फिर क्या था, उन्होंने बाबा को खाने की दावत दे दी। बाबा ने कहा- ‘‘ठाकुर साहब! मैं होटल का मीट नही नही खाता हूँ। घर पर ही मीट बनवाना।’’ शाम को ठाकुर साहब ने बाबा को बुलावा भेज दिया। मैं बाबा को साथ लेकर ठाकुर साहब के घर गया। अब ठा. साहब ने अपनी कार में बाबा को बैठाया और अपने होटल ले गये। बस फिर क्या था? बाबा बिफर गये और बड़ा अनुनय-विनय करने पर भी बाबा ने ठाकुर साहब की दावत नही खाई और होटल से वापिस लौट आये। मेरे घर पर खिचड़ी बनवा कर बडे प्रेम से खाई। मैंने बाबा से पूछा- ‘‘बाबा! आपने ठा. साहब की दावत क्यों अस्वीकार कर दी।’’ बाबा ने कहा- ‘‘शास्त्री जी! मैंने ठा. साहब से पहले ही कहा था कि मैं होटल का मीट नही खाता हूँ।’’ मैंने प्रश्न किया- ‘‘ बाबा! होटल में क्यों नही खाते हो?’’ बाबा बोले- ‘‘अरे भाई! होटल के खाने में घर के खाने जितना प्यार और अपनत्व नही होता है। प्यार पैसा खर्च करके तो नही खरीदा जा सकता।’’ बाबा के तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया था। |
बुधवार, जून 02, 2010
"बाबा नागार्जुन अक्सर याद आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-10”
उत्तर-प्रदेश के नैनीताल जिले के काशीपुर शहर (यह अब उत्तराखण्ड में है) से धुमक्कड़ प्रकृति के बाबा नागार्जुन का काफी लगाव था। सन् 1985 से 1998 तक बाबा प्रति वर्ष एक सप्ताह के लिए काशीपुर आते थे। वहाँ वे अपने पुत्र तुल्य हिन्दी के प्रोफेसर वाचस्पति जी के यहाँ ही रहते थे। मेरा भी बाबा से परिचय वाचस्पति जी के सौजन्य से ही हुआ था। फिर तो इतनी घनिष्ठता बढ़ गयी कि बाबा मुझे भी अपने पुत्र के समान ही मानने लगे और कई बार मेरे घर में प्रवास किया। प्रो0 वाचस्पति का स्थानानतरण जब जयहरिखाल (लैन्सडाउन) से काशीपुर हो गया तो बाबा ने उन्हें एक पत्र भी लिखा। जो उस समय अमर उजाला बरेली संस्करण में छपा था। इसके साथ बाबा नागार्जुन का एक दुर्लभ बिना दाढ़ी वाला चित्र भी है। जिसमें बाबा के साथ प्रो0 वाचस्पति भी हैं। बाबा ने 15 अक्टूबर,1998 को अपना मुण्डन कराया था। उसी समय का यह दुर्लभ चित्र प्रो0 वाचस्पति और अमर उजाला के सौजन्य से प्रकाशित कर रहा हूँ। ![]() बाबा अक्सर अपनी इस रचना को सुनाते थे- खड़ी हो गयी चाँपकर कंगालों की हूक नभ में विपुल विराट सी शासन की बन्दूक उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं मूक जिसमें कानी हो गयी शासन की बन्दूक बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य, वह धन्य है, शासन की बन्दूक सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक जहाँ-तहाँ ठगने लगी, शासन की बन्दूक जले ठूँठ पर बैठ कर, गयी कोकिला कूक बाल न बाँका कर सकी, शासन की बन्दूक |
रविवार, मई 30, 2010
‘‘अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है’’-बाबा नागार्जुन। (डा. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-9”
चित्र में- (बालक) मेरा छोटा पुत्र विनीत, मेरे कन्धें पर हाथ रखे बाबा नागार्जुन और चाय वाले भट्ट जी, पीछे-चालीस वर्ष पूर्व का खटीमा बस स्टेशन। बाबा नागार्जुन की तो इतनी स्मृतियाँ मेरे मन व मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं कि एक संस्मरण लिखता हूँ तो दूसरा याद हो आता है। मेरे व वाचस्पति जी के एक चाटुकार मित्र थे। जो वैद्य जी के नाम से मशहूर थे। वे अपने नाम के आगे ‘निराश’ लिखते थे। अच्छे शायर माने जाते थे। आजकल तो दिवंगत हैं। परन्तु धोखा-धड़ी और झूठ का व्यापार इतनी सफाई व सहजता से करते थे कि पहली बार में तो कितना ही चतुर व्यक्ति क्यों न हो उनके जाल में फँस ही जाता था। उन दिनों बाबा का प्रवास खटीमा में ही था। वाचस्पति जी हिन्दी के प्राध्यापक थे। इसलिए विभिन्न कालेजों की हिन्दी विषय की कापी उनके पास मूल्यांकन के लिए आती थीं। उन दिनों चाँदपुर के कालेज की कापियाँ उनके पास आयी हुईं थी। तभी की बात है कि दिन में लगभग 2 बजे एक सज्जन वाचस्पति जी का घर पूछ रहे थे। उन्हें वैद्य जी टकरा गये। और राजीव बर्तन स्टोर पर बैठ कर उससे बातें करने लगे। बातों-बातों में यह निष्कर्ष निकला कि उनके पुत्र का हिन्दी का प्रश्नपत्र अच्छा नही गया था। इसलिए वो उसके नम्बर बढ़वाने के लिए किन्ही वाचस्पति प्रोफेसर के यहाँ आये हैं। वैद्य जी ने छूटते ही कहा- "प्रोफेसर वाचस्पति तो मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं। लेकिन वो एक नम्बर बढ़ाने के एक सौ रुपये लेते हैं। आपको जितने नम्बर बढ़वाने हों हिसाब लगा कर उतने रुपये दे दीजिए।" बर्तन वाला राजीव यह सब सुन रहा था। उसकी दूकान के ऊपर ही वाचस्पति जी का निवास था और वह उनका भक्त था। राजीव चुपके से अपनी दूकान से उठा और वाचस्पति जी से जाकर बोला- ‘‘सर जी! आप भी 100 रु0 नम्बर के हिसाब से ही परीक्षा में नम्बर बढ़ा देते हैं क्या?’’ और उसने अपनी दुकान पर हुई पूरी घटना बता दी। वाचस्पति जी ने राजीव से कहा- "जब वैद्य जी! चाँदपुर से आये व्यक्ति का पीछा छोढ़ दें, तो उस व्यक्ति को मेरे पास बुला लाना।" इधर बैद्य जी ने 10 अंक बढ़वाने के लिए चाँदपुर वाले व्यक्ति से एक हजार रुपये ऐंठ लिए थे। बाबा नागार्जुन भी राजीव और वाचस्पति जी की बातें ध्यान से सुन रहे थे। थोड़ी ही देर में वैद्य जी वाचस्पति जी के घर आ धमके। इसी की आशा हम लोग कर रहे थे। पहले तो औपचारिकता की बातें होती रहीं। फिर वैद्य जी असली मुद्दे पर आ गये। वाचस्पति जी ने कहा- ‘‘वैद्य जी मैं यह व्यापार नही करता हूँ।’’ तब तक राजीव चाँदपुर वाले व्यक्ति को भी लेकर आ गया। हम लोग तो वैद्य जी से कुछ बोले नही। परन्तु बाबा नागार्जुन ने वैद्य जी की क्लास लेनी शुरू कर दी। सभ्यता के दायरे में जो कुछ भी कहा जा सकता था बाबा ने खरी-खोटी के रूप में वो सब कुछ वैद्य जी को सुनाया। अब बाबा ने चाँदपुर वाले व्यक्ति से पूछा- ‘‘आपसे इस दुष्ट ने कुछ लिया तो नही है।’’ तब 1000 रुपये वाली बात सामने आयी। बाबा ने जब तक उस व्यक्ति के रुपये वैद्य जी से वापिस नही करवा दिये तब तक वैद्य जी का पीछा नही छोड़ा। बाबा ने उनसे कहा- ‘‘वैद्य जी अब तो यह आभास हो रहा है कि तुम जो कविताएँ सुनाते हो वह भी कहीं से पार की हुईं ही होंगी। साथ ही वैद्य जी को हिदायत देते हुए कहा कि
"अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है।" |
मंगलवार, मई 25, 2010
"तुम तो अखबार पढ़ना भी नही जानते" - बाबा नागार्जुन! (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-8”
शनिवार, मई 22, 2010
बाबा नागार्जुन का एक रूप ऐसा भी- (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-7”
मंगलवार, मई 18, 2010
बाबा नागार्जुन की दिनचर्चा! (डा. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-6”
कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।
"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी