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सोमवार, नवंबर 29, 2010

"लघुकथा : आनन्द गोपाल सिंह बिष्ट" (प्रस्तोता:डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

जीवनी बनाम रोज़गार

काफ़ी समय से मन में विचार कौंध रहा था कि उत्तराखण्ड के स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन पर एक पुस्तक लिखूँ परन्तु समयाभाव के कारण शुरुआत ही नहीं कर पा रहा था। एक दिन फुर्सत निकाल कर एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के घर जा पहुँचा। घर के लोगों को अपना परिचय दिया तथा अपनी मंशा जाहिर की।
उस सेनानी के परिजन पहले तो मेरी बात चुपचाप सुनते रहे, फिर निर्विकार भाव से उनके बेरोज़गार पुत्र ने पूछा, मेरे पिता जी की जीवनी लिखकर क्या मुझे रोज़गार मिल जाएगा?’’ मैंने हैरत से उसकी तरफ़ देखा और एक लम्बी साँस लेकर कहा, ‘‘नहीं। किन्तु स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियाँ पढ़कर हमारी आने वाली पीढ़ी देशभक्ति का सबक लेगी और हमारे राज्य के उन भूले-बिसरे स्वतंत्रता सेनानियों को उचित सम्मान मिलेगा।
इतना सुनते ही वह युवक तमतमाकर बोला, ‘‘क्या मिला ऐसी आज़ादी से, जो एक स्वतंत्रता सेनानी के वंशजों को रोज़गार न दे सकी? बेरोज़गारी, भुखमरी में दिन गुज़ारने से तो हम पराधीन ही अच्छे थे। कम से कम अंग्रेज़ों की चाकरी करके परिवार को दो-जून की रोटी तो दे सकते थे। जाओ, दोबारा यहाँ आने की हिमाकत न करना। 
वहाँ से बाहर आते-आते में उस आक्रोषित युवक की बातों पर ग़ौर कर रहा था। उसका सच मेरे सामने था।

आनन्द गोपाल सिंह बिष्ट
संजय नगर-2, बिन्दुखत्ता, 
पो. लालकुआँ, जि. नैनीताल-262402 उत्तराखण्ड

सोमवार, सितंबर 28, 2009

‘‘आजादी का जश्न’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)

लघु-कथा


गर्मियों के दिन थे। अतः सुबह के दस बजे भी काफी गरमी थी।
एक बहेलिये ने 25-30 तोतों को एक बड़े से जालीदार पिंजड़े में कैद कर रखा था। गरमी और प्यास के कारण कुछ तोतों के मुँह खुले हुए थे, कुछ 
तोते हाँफ रहे थे और कुछ तोते अनमने से पड़े थे।
बहेलिया आवाज लगा-लगा रहा था- 
‘‘तोते ले लो........तोतेएएएएएएएएएए!’’ 
सामने एक सर्राफ की दूकान थी। दूकान पर बैठे लाला जी ने जब बहेलिए 
को देखा तो उसे इशारे से अपने पास बुलाया।उन्होंने बहेलिए से पूछा कि सारे तोतों के दाम बताओ।बहेलिए ने सारे तोतों के दाम पाँच सौ रुपये बताए। मोल-भाव करके लाला जी ने चार सौ रुपये में सारे तोते खरीद लिए। 

अब बहेलिए ने कहा कि लाला जी पिंजड़े मँगाइए। 
लाला जी ने जब यह सुना तो बहेलिए के हाथ में चार सौ रुपये देकर पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया। 

एक-एक करके तोते आसमान में उड़ने लगे। जब तक उनका एक-एक साथी आजाद नही हो गया वो सभी वहीं आसमान में चक्कर लगाते रहे। सब तोते रिहा होते ही झुण्ड के रूप में एक तालाब पर गये। जी भरकर उन्होंने पानी पिया। अब तोते बहुत खुश थे। वे सबके-सब तालाब के किनारे पेड़ पर बैठ कर कलरव कर रहे थे। उनके हाव-भाव देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कि कोई देश आजाद हुआ हो और उसके बाशिन्दे मिल कर आजादी का जश्न मना रहे हों।

शुक्रवार, अगस्त 14, 2009

‘‘हिन्दू धर्म में दया और क्षमा के उच्च मानदण्ड आज भी मौजूद हैं।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


पं0 सोमदेव जी बड़े कर्मकाण्डी बाह्मण थे।
कथा करते- करते उन्होंने अपना नाम सौम्य मुनि रख लिया था। वे कृष्ण भगवान की कथा बहुत सुन्दर करते थे।
उनकी आयु लगभग 35 वर्ष की थी, परन्तु विवाह नही किया था।
संयोगवश् एक बार उनकी कथा सुनने एक ईसाई युवती भी आ गयी। सौम्य मुनि जी की वाणी में तो सरस्वती का वास था ही। वह महिला उनसे काफी प्रभावित दिखी। अब तो अक्सर वो महिला इनकी कथा में आने लगी।
मुनि जी तो स्त्री सुख से अब तक वंचित थे ही। अतः वे भी इस युवती की तरफ आकृष्ट होते चले गये।
लोगों ने समझा कि मुनि जी इस महिला को हिन्दू धर्म में दीक्षित कर ही लेंगे। परन्तु यह क्या?
मुनि जी ने हिन्दू धर्म का चोला उतार फेंका और रातों-रात ईसाई धर्म अपना लिया। अब उनका नया नाम था- ‘‘जॉन करमेल शर्मा।
समय गुजरता रहा। मुनि जी इस महिला के पब्लिक स्कूल में ही रहने लगे थे। धीरे-धीरे मुनि जी का यौवन ढलने लगा। उन्हें भयंकर खाँसी ने जकड़ लिया। डाक्टरों ने उन्हें टी0बी0 साबित कर दी।
अपने बेड रूम में सुलाने वाली महिला ने भी इन्हें सरवेन्ट क्वाटर के हवाले कर दिया। अब ये बड़े परेशान हुए।
मौका देख कर ये इस महिला के स्कूल से खिसक लिए और अपने गृह-जनपद बिजनौर वापिस आ गये। पुराने लोंगों ने इन्हें पहचान लिया। इनके भतीजों ने इनकी कृषि की भूमि का भी हिस्सा इन्हें दे दिया।
इतना ही नही इनके एक भतीजे ने इन्हें टी0बी0 सेनेटोरिम भवाली (नैनीताल) में दाखिल करा दिया।
कुछ दिनों के बाद इनकी टी0बी0 ठीक हो गई। एक विधवा महिला ने इनसे पुनर्विवाह भी कर लिया। अब ये सुखपूर्वक अपना जीवन-यापन करने लगे हैं।
भगवान कृष्ण की कथा कहनी इन्होंने फिर शुरू कर दी है। लेकिन आज यह हिन्दू धर्म की महानता का वर्णन करते नही अघाते हैं।
अपनी कथा की शुरूआत में ये अपने जीवन की इस महत्वपूर्ण घटना को अवश्य सुनाते हैं और कहते हैं-
‘‘हिन्दू धर्म में दया और क्षमा के उच्च मानदण्ड आज भी मौजूद हैं और सदैव रहेंगे।’’

शुक्रवार, जुलाई 10, 2009

‘‘नहले पे दहला या दहले पे नहला’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


लगभग 10 साल पुरानी बात है। उन दिनों चावल का रेट सस्ता ही था। पर इतना भी नही कि हर आदमी बासमती चावल खा सके। इसलिए लोग शरबती अर्थात बिना खुशबू वाली बासमती चावल ही अक्सर खाते थे।

अब तो उसमें भी पीआर-14 की मिलावट होने लगी है। शुद्ध शरबती बासमती का रेट उन दिनों 16 रु0 प्रति किलो चल रहे थे जबकि पीआर-14 कर रेट 7 रु0 प्रति किलो ही था।
रंग-रूप में दोनों किस्म के चावल एक जैसे ही लगते हैं परन्तु पकने के बाद शरबती लम्बा, बारीक और मुलायम हो जाता है और पीआर-14 मोटा और कठोर हो जाता है।
उन्ही दिनों दो फारमर टाइप के व्यापारी एक मिनी ट्रक में रामपुर जिले से चावल भर कर लाये। अच्छे-अच्छे घरों में उन्होंने 200-200 ग्राम के लगभग चावल पकाने के लिए दिये। चावल बेहतरीन थे। अतः हाथों-हाथ उनके चावल बिक गये।
मैंने भी 50 किलो चावल उनसे 15 रु0 के रेट में ले लिए। अगले दिन वो चावल पकाये गये तो वो मोटे और कठोर हो गये थे। खैर ये चावल रख दिये गये।
ये था नहले पे दहला।
2-3 महीने बाद वही फारमर टाइप के व्यापारी फिर दिखाई दिये।
बानगी के रूप में चावल पकाने के लिए दे ही रहे थे कि इस बार मैंने 100 किलो की पूरी बोरी तुलवा ली।
जब पैसा देने का नम्बर आया तो मैंने उसे डाँटना शुरू किया और उसके खिलाफ धोखाधड़ी की रिपोर्ट करने की धमकी दी।
अब तो वह दोनों लोग माफी माँगने लगे। आखिर कार उन्हे अपना 3 माह पुराना चावल वापिस लेना ही पड़ा और पूरे पैसे देकर चलते बने।
ये था दहले पे नहला।
आज इस घटना को 9-10 साल हो गये हैं। तब से ऐसा कोई व्यापारी खटीमा में चावल बेचता हुआ दिखाई नही दिया है।

बुधवार, जून 10, 2009

‘‘भूख’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

लगभग दो वर्ष पूर्व की बात है। उन दिनों मैं उत्तराखण्ड सरकार में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य था।

मेरे साथ एक सज्जन आयोग में अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए जा रहे थे। गर्मी का मौसम था इसलिए रोडवेज बस की रात्रि-सेवा से जाने का कार्यक्रम बनाया गया। रुद्रपुर से हमें देहरादून के लिए एसी बस पकड़नी थी।

खटीमा से रात्रि 8 बजे चलकर 10 बजे रुद्रपुर पहुँचे। बस के आने में एक घण्टे का विलम्ब था। सोचा खाना ही खा लिया जाये। हम दोनों खाने खाने लगे।

हमारे पास ही एक व्यक्ति जो पुलिस की वर्दी पहने था। आकर बैठ गया।

हमने उससे कहा कि भाई! हमें खाना खा लेने दो।

हमने खाना खा लिया, लेकिन 3 पराँठे बच गये।

मैं इन्हें किसी माँगने वाले या गैया को देने ही जा रहा था कि वो बोला- ‘‘साहब ये पराँठे मुझे दे दीजिए। मैं सुबह से भूखा हूँ।’’

मैंने कहा- ‘‘पुलिस वाले होकर भूखे क्यों हो।’’

वह बोला- ‘‘साहब! मेरी जेब कट गयी है।’’

मैंने अब उससे विस्तार से पूछा और कहा कि पुलिस कोतवाली में जाकर कुछ खर्चा क्यों नही ले लेते?

वह बोला- ‘‘साहब! वहाँ तो मुझे बहुत झाड़-लताड़ खानी पड़ेगी। इससे तो अच्छा है कि किसी कण्डक्टर की सिफारिश करके बस में बैठ जाऊँगा।’’

बातों बातों में मुझे पता चला कि यह सिपाही तो खटीमा थाने में ही तैनात है। मैंने उसे पचास रुपये बतौर किराये भी दे दिये। जो उसने खटीमा आने पर मुझे चार-पाँच दिन बाद लौटा दिये थे।

मुझे उस दिन आभास हुआ कि भूख क्या होती है।

एक ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति भूख में झूठे पराँठे और सब्जी खाने को भी मजबूर हो जाता है।

बुधवार, मई 27, 2009

‘‘................और रेखा छोटी हो गयी’’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

दो-शब्दों में अपनी बात कहना चाहता हूँ और वे दो-शब्द हैं, ‘‘अभिमान और स्वाभिमान’’। दोनों का ही अपना-अपना महत्व है।
अभिमान में यदि ‘‘सु’’ लगा दिया जाये तो वह गौरव का प्रतीक बन जाता है। एक ओर जहाँ अभिमान हमें पतन के रास्ते की ओर लेकर जाता है तो दूसरी ओर स्वाभिमान हमारे लिए उन्नति के मार्ग प्रशस्त करता है।
मेरे एक अभिन्न मित्र हैं। वो बड़े विद्वान हैं लेकिन अभिमान उनका स्वाभविक गुण-धर्म है।यदि उनसे कोई भूल हो जाये तो वो उसको कभी स्वीकार नही करते हैं। लेकिन दूसरों की बहुत छोटी-छोटी गल्तियों को उजागर करने में कभी नही हिचकते हैं। वो यह भी जानने का प्रयास नही करते कि कहीं किसी मजबूरी के चलते तो यह मानव-सुलभ त्रुटियाँ तो नही हो गयी हैं।
बस, उन्हें एक ही चिन्ता रहती है कि उनका कथित एकाधिकार कोई छीनने का प्रयास नही कर रहा है।
मुझे याद है आ रही है अपने बाल्य-काल की एक घटना।
मैं उन दिनों कक्षा-8 का छात्र था।
सामान्य ज्ञान का पीरियड चल रहा था। मौलाना फकरूद्दीन सामान्य-ज्ञान पढ़ा रहे थे।
उन्होंने श्याम-पट पर एक रेखा खींच दी और कक्षा के छात्रों को बारी-बारी से बुलाकर कहा कि इस रेखा को छोटी कर दो। कक्षा के सभी छात्रों ने उस रेखा को मिटा-मिटा कर छोटा किया और एक स्थिति यह आयी कि वो रेखा मिटने की कगार पर पहुँच गयी।
तब मौलाना साहब ने चॉक अपने हाथ में ले ली और छात्रों को अपने स्थान पर बैठ जाने को कहा।
उन्होंने फिर से एक रेखा श्यामपट पर खींची और कहा कि अब मैं इसको छोटा करने जा रहा हूँ। परन्तु यह क्या, उन्होंने उस रेखा के नीचे उससे बड़ी एक रेखा खींच कर बताया कि अब पहले वाली रेखा छोटी हो गयी है।
कहने का तात्पर्य यह है कि किसी को मिटा कर उसका वजूद छोटा नही किया जा सकता है, अपितु उससे बड़ा बन कर ही छोटे बड़े के अन्तर को समझाया जा सकता है।
इस पोस्ट को लगाने का मेरा उद्देश्य किसी को उपदेश देने या मानसिक सन्ताप पहुँचाने का कदापि नही है। मैं तो केवल यह कहना चाहता हूँ कि-
ईष्र्या छोड़कर प्रतिस्पर्धा करना सीखो। छिद्रान्वेषी बनने से कुछ भी प्राप्त होना असम्भव है।
कमिंया खोजना बहुत सरल है, लेकिन गुणों का बखान करना बहुत कठिन।

मंगलवार, मई 26, 2009

‘‘सच्चा शिष्य’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

बहुत पुरानी बात है। एक विद्वान आचार्य थे। उनका एक गुरूकुल था।

प्राचीन काल में आचार्य विद्याथियों को निशुल्क शिक्षा दिया करते थे।

एक दिन आचार्य जी ने गुरूकुल के सारे विद्यार्थियों को अपने पास बुलाया और कहा-

‘‘प्रिय विद्यार्थियों मेरी कन्या विवाह योग्य हो गयी है। परन्तु इसका विवाह करने के लिए मेरे पास धन नही है। मेरी समझ में नही आ रहा है कि कैसे इसका विवाह करूँ।’’

कुछ विद्यार्थी जिनके माता-पिता धनवान थे।

उनसे बोले- ‘‘गुरू जी! हम लोग अपने माता‘पिता से कह कर आपको धन दिलवा देंगे।’’

आचार्य जी बोले- ‘‘शिष्यों! मुझे संकोच होता है, मैं लालची आचार्य नही कहाना चाहता।’’ फिर बोले कि मैं अपनी पुत्री का विवाह अपने शिष्यों के धन से ही करना चाहता हूँ। परन्तु ध्यान रहे कि तुममे से कोई भी धन माँग कर नही लायेगा। जो विद्यार्थी धनी परिवारों के नही थे उनसे आचार्य जी ने कहा कि तुम लोग भी अपने घरों से कुछ न कुछ ले आना परन्तु किसी को पता नही लगना चाहिए और उस वस्तु पर किसी की दृष्टि भी नही पड़नी चाहिए।"

कुछ ही दिनों में आचार्य जी के पास पर्याप्त धन व वस्तुएँ एकत्रित हो गयी।

तभी आचार्य जी के पास एक अत्यन्त धनी परिवार का शिष्य आकर बोला-

‘‘आचार्य जी मेरे घर में किसी प्रकार की कमी नही है, परन्तु मैं आपके लिए कुछ भी नही ला पाया हूँ।’’

आचार्य जी बोले- ‘‘ क्यों ? क्या तुम गुरू की सेवा नही करना चाहते हो?’’

शिष्य ने उत्तर दिया- ‘‘नही गुरू जी! ऐसी बात नही है। आपने ही तो कहा था कि कोई वस्तु या धन लाते हुए किसी को पता नही लगना चाहिए और उस वस्तु पर किसी की दृष्टि भी नही पड़नी चाहिए। मुझे वह स्थान नही मिला, जहाँ कोई देख न रहा हो।’’

आचार्य जी बोले- ‘‘तुम झूठ बोलते हो। कहीं तो कोई ऐसा समय व स्थान रहा होगा जब तुम्हें कोई देख नही रहा होगा।’’

शिष्य आँखों में आँसू भर कर बोला- ‘‘गुरू जी! ऐसा समय व स्थान तो अवश्य मिला परन्तु मैं भी तो उस समय अपने इस कृत्य को देख रहा था।’’

आचार्य जी ने उस शिष्य को गले से लगा लिया और बोले-

‘‘तू ही मेरा सच्चा शिष्य है। मुझे अपनी कन्या के लिए विवाह के लिए धन की आवश्यकता नही थी। मैं तो उसके वर के रूप में तेरे जैसा ही सदाचारी वर खोज रहा था।’’

कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।

मैंने Napptol.com को Order number- 5642977
order date- 23-12-1012 को xelectron resistive SIM calling tablet WS777 का आर्डर किया था। जिसकी डिलीवरी मुझे Delivery date- 11-01-2013 को प्राप्त हुई। इस टैब-पी.सी में मुझे निम्न कमियाँ मिली-
1- Camera is not working.
2- U-Tube is not working.
3- Skype is not working.
4- Google Map is not working.
5- Navigation is not working.
6- in this product found only one camera. Back side camera is not in this product. but product advertisement says this product has 2 cameras.
7- Wi-Fi singals quality is very poor.
8- The battery charger of this product (xelectron resistive SIM calling tablet WS777) has stopped work dated 12-01-2013 3p.m. 9- So this product is useless to me.
10- Napptol.com cheating me.
विनीत जी!!
आपने मेरी शिकायत पर करोई ध्यान नहीं दिया!
नापतोल के विश्वास पर मैंने यह टैबलेट पी.सी. आपके चैनल से खरीदा था!
मैंने इस पर एक आलेख अपने ब्लॉग "धरा के रंग" पर लगाया था!

"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

जिस पर मुझे कई कमेंट मिले हैं, जिनमें से एक यह भी है-
Sriprakash Dimri – (January 22, 2013 at 5:39 PM)

शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी
नापतोल डाट काम से कार के लिए वैक्यूम क्लीनर ऑनलाइन शापिंग से खरीदा ...
जो की कभी भी नहीं चला ....ईमेल से इनके फोरम में शिकायत करना के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला ..
.हंसी का पात्र बना ..अर्थ हानि के बाद भी आधुनिक नहीं आलसी कहलाया .....
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मान्यवर,
मैंने आपको चेतावनी दी थी कि यदि आप 15 दिनों के भीतर मेरा प्रोड्कट नहीं बदलेंगे तो मैं
अपने सभी 21 ब्लॉग्स पर आपका पर्दाफास करूँगा।
यह अवधि 26 जनवरी 2013 को समाप्त हो रही है।
अतः 27 जनवरी को मैं अपने सभी ब्लॉगों और अपनी फेसबुक, ट्वीटर, यू-ट्यूब, ऑरकुट पर
आपके घटिया समान बेचने
और भारत की भोली-भाली जनता को ठगने का विज्ञापन प्रकाशित करूँगा।
जिसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे।
इत्तला जानें।