सन् 1979, बनबसा जिला-नैनीताल का वाकया है। उन दिनों मेरा निवास वहीं पर था । मेरे घर के सामने रिजर्व कैनाल फौरेस्ट का साल का जंगल था। उन पर काले मुँह के लंगूर बहुत रहते थे। मैंने काले रंग का भोटिया नस्ल का कुत्ता पाला हुआ था। उसका नाम टॉमी था। जो मेरे परिवार का एक वफादार सदस्य था। मेरे घर के आस-पास सूअर अक्सर आ जाते थे। जिन्हें टॉमी खदेड़ दिया करता था । एक दिन दोपहर में 2-3 सूअर उसे सामने के कैनाल के जंगल में दिखाई दिये। वह उन पर झपट पड़ा और उसने लपक कर एक सूअर का कान पकड़ लिया। सूअर काफी बड़ा था । वह भागने लगा तो टॉमी उसके साथ घिसटने लगा। अब टॉमी ने सूअर का कान पकड़े-पकड़े अपने अगले पाँव साल के पेड़ में टिका लिए। ऊपर साल के पेड़ पर बैठा लंगूर यह देख रहा था। उससे सूअर की यह दुर्दशा देखी नही जा रही थी । वह जल्दी से पेड़ से नीचे उतरा और उसने टॉमी को एक जोरदार चाँटा रसीद कर दिया और सूअर को कुत्ते से मुक्त करा दिया। हमारे भी आस-पास बहुत सी ऐसी घटनाएँ आये दिन घटती रहती हैं परन्तु हम उनसे आँखे चुरा लेते हैं और हमारी मानवता मर जाती है। काश! जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता। |
---|
फ़ॉलोअर
शनिवार, सितंबर 18, 2010
"जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010
“काम की बातें” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
पण्डित किसे कहते हैं? जो धर्मात्मा, सत्यवादी, विद्वान और सत्य और असत्य को अपने विवेक से समझकर कार्य करता है। उसको पण्डित कहते हैं! -- मूर्ख किसे कहते हैं? जो अज्ञान, हठ, दुराग्रह और अविवेक से कार्य करता है। उसको मूर्ख कहते हैं! -- प्रसंगवश् मुझे एक संस्मरण याद आ रहा है - लगभग 15 वर्ष पूर्व की बात है एक भानजे ने अपने मामा पर स्थानीय न्यायालय में मानहानि का वाद दर्ज करा दिया। दो गवाह भी खोज लिए! दो वर्षों तक केस चलता रहा! लेकिन कुदरत की माया थी कि 6 – 6 माह के अन्तराल में उसके दोनों गवाह ऊपर वाले ने बुला लिए! अब तो केस में कुछ रहा ही नही था! एक दिन मैंने इस व्यक्ति से पूछा कि तुम अपना समय क्यों व्यर्थ की बातों में जाया करते हो? उसने उत्तर दिया- “मेरा समय नष्ट होता है इसका मुझे को गम नही है। लेकिन मेरे मामा जी का समय बहुत कीमती होता है। यदि उनका समय नष्ट होता है तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है!” आज अक्सर यही मानसिकता हमारे समाज में तेजी के साथ विकसित हो रही है! जो चिन्ता का विषय है! -- चीनी सन्त कन्फ्यूसियस मृत्यु-शैय्या पर पड़े थे! एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को अपने पास बुलाया और अपना मुँह खोल कर एक-एक को दिखते और पूछते- “देखो मेरे मुँह में दाँत है!” सभी शिष्यों ने नही में उत्तर दिया! अब कन्फ्यूसियस ने पुनः प्रश्न किया- “मेरे मुँह में जीभ है!” सभी शिष्यों ने उत्तर दिया- “जी हाँ!” सन्त ने अपने शिष्यों को कहा- “प्रिय शिष्यों देखो! दाँत मुझे भगवान ने बाद में दिये थे और जीभ माँ के उदर से साथ में आई थी। आज मैं दुनिया से जा रहा हूँ। दाँत मुझे वर्षों पूर्व छोड़ गयो और और जीभ आज भी मेरे साथ है!” जानते हो क्यों? दाँत अपनी कठोरता के कारण समय से पूर्व ही विदा हो गये! लेकिन जीभ अपनी कोमलता के कारण आजीवन साथ रही! तुम लोग भी कोमल व मधुर स्वभाव के बने रहना! यही मेरा अन्तिम उपदेश है! |
रविवार, अप्रैल 18, 2010
“स्वर्ग क्या है?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
बहुत समय पहले की बात है। चीन के एक दार्शनिक के पास एक व्यक्ति पहुँचा और स्वर्ग के विषय में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। साथ ही यह भी बताया कि मैं एक सेनापति हूँ और अपनी वीरता की डींगे भी मारनी शुरू कर दी। दार्शनिक ने कहा कि शक्ल-सूरत से तो आप सेनापति नही भिखमंगे लगते हैं। नझे तो विश्वास ही नही हो रहा है कि आपको हथियार चलाना तो दूर, उसे उठने की भी क्षमता नही है। सेनापति ने इतना सुनते ही म्यान से अपनी तलवार निकाल ली। दार्शनिक ने कहा- “अच्छा तो आप तलवार भी रखते हैं। परन्तु यह तो मुझे लकड़ी की लगती है। यदि लोहे की होती तो आपके हात से छूट कर गिर गई होती।” दार्शनिक की यह बात सुनते ही सेनापति की आँखें गुस्से से लाल हो गईं। एक क्षण को तो ऐसे लगा कि वह दार्शनिक पर हमला कर देगा। तभी दार्शनिक गम्भीर होकर बोले- “देख रहे हो! यही तो नर्क है। क्रोध से उन्मत्त होकर तुमने अपना विवेक खो दिया और हत्या जैसा जघन्य कृत्य करने को तैयार हो गये।” दार्शनिक की इस बात को सुनकर सेनापति शान्त हो गया। तलवार को उसने वापिस म्यान में डाल लिया। अब दार्शनिक ने कहा- “विवेक के कारम व्यक्ति को अपनी गलतियों का बोध होने लगता है। मन शान्त होने पर मस्तिष्क में स्थिरता आ जाती है और एक विलक्षण आनन्द की अनुभूति होने लगती है। इसी आनन्दपूर्ण स्थिति का नाम स्वर्ग है।” |
गुरुवार, सितंबर 03, 2009
‘‘अन्त समय देख कर ढोंग-ढकोसला खत्म’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हमारी रिश्तेदारी में एक सज्जन हैं ‘‘श्री रामचन्द्र आर्य’’ वो रिश्ते में हमारे मामाश्री लगते हैं। उनकी उम्र इस समय 80 वर्ष के लगभग है। प्रारम्भ से ही उनका क्रोधी स्वभाव रहा है। आज से 28 वर्ष पूर्व उनकी श्रीमती अर्थात हमारी मामी जी का देहान्त हो गया था। तब से तो वो बिल्कुल उन्मुक्त ही हो गये थे। क्योंकि सद्-बुद्धि देने वाला कोई घर में रहा ही नही। परिवार में 6 पुत्रियाँ तथा सबसे छोटा एक पुत्र है। सभी विवाहित हैं। मनमानी करने की तो शुरू से ही इनकी आदत रही है। अतः मामी जी की मृत्यु के उपरान्त इन्होंने पीले वस्त्र धारण कर लिए। दाढ़ी व केश भी बढ़ा लिए। मुकदमा लड़ना अपना पेशा बना लिया। इसके लिए इन्होंने अपने सगे पुत्र को भी नही बख्शा। छहों पुत्रियों में गुट-बन्दी करा दी। क्योंकि उस समय इनके शरीर में बल था। अब एक वर्ष से ये बीमार रहने लगे हैं। अतः ऐंठ कुछ कम हो गयी है। ![]() मृत्यु का भय भी सता रहा है तो दाढ़ी व केश कटा लिए हैं। पुत्र एवं पुत्र-वधु भी खूब सेवा कर रहे हैं। यह संस्मरण लिखने का कारण यह है कि यदि विनम्रता और सहनशीलता हो गैर भी अपने बन जाते हैं। काश् इन्होंने बलशाली होते हुए इस गुण को अपनाया होता। |
---|
गुरुवार, जुलाई 30, 2009
‘‘चीनी सन्त का अन्तिम उपदेश’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
चीनी सन्त कन्फ्यूसियस मृत्यु-शैया पर पड़े थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और एक-एक करके अपने पास आने को कहा। वह प्रत्येक शिष्य को अपना मुँह खोलकर दिखाते और पूछते-‘‘देखो मुँह में दाँत हैं?’’ प्रत्येक शिष्य देखता गया और ‘‘नही’’ में उत्तर देता गया। सन्त कन्फ्यूसियस ने पुनः सब शिष्यों को बुलाया और अपना मुँह खोलकर पुनः प्रश्न किया- ‘‘क्या मुँह में मेरी जीभ है?’’ सब शिष्यों ने एक साथ उत्तर दिया- ‘‘हाँ! जीभ तो है।’’ ![]() अब सन्त ने शिष्यों से कहा- ‘‘प्रिय शिष्यों, देखो! दाँत मुझे भगवान ने बाद में दिये थे और जिह्वा जन्म से ही मेरे साथ आई थी। आज मैं जा रहा हूँ। दाँत मुझे वर्षों पूर्व छोड़ कर चले गये और जिह्वा आज भी मेरे साथ है। ’’सन्त ने पुनः कहा- ‘‘दाँत अपनी कठोरता के कारण पहले ही चले गये और जीभ अपनी कोमलता के कारण आजीवन साथ रही। तुम लोग भी कोमल और मधुर स्वभाव को बनाये रखना। यही मेरा अन्तिम उपदेश है।’’ (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
---|
मंगलवार, जुलाई 07, 2009
‘‘नकल मत करना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हम हिन्दुस्तानियों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम बिना कुछ सोचे विचारे नकल करने लगते हैं। विदेशी संस्कृति की नकल करने में तो हमने सारे कीर्तिमान भंग कर दिये हैं। सौन्दर्य सदैव परोक्ष में निहित होता है, लेकिन हम लोग प्रत्यक्ष को सौन्दर्य मान कर इसका भौंडा प्रदर्शन करने लगे हैं। आज हमारी स्थिति रुई से लदे हुए गधे जैसी हो गयी है। प्रस्तुत है यह मजेदार लघु-कथा- एक व्यापारी घोड़े पर नमक और गधे पर रुई लाद कर बाजार जा रहा था। मार्ग में एक नदी थी। नदी में घुसते ही घोड़े ने पानी में 2-3 डुबकी लगाईं और चलने लगा। नमक पानी में घुल जाने से उसका वजन कुद हल्का हो गया था। गधे ने भी यह देख कर बिना कुछ सोचे विचारे पानी में 2-3 डुबकी लगा दी। डुबकी लगाते ही रुई की गाँठें भीग कर इतनी भारी हो गई थीं कि उसका चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया था। किसी ने सच ही कहा है- ‘‘बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताय। काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हँसाय।।’’
|
---|
शनिवार, जून 06, 2009
‘‘पाप का बाप कौन?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आतंकवादी सीमा पार से आते हैं, कुछ पकड़े जाते है और कुछ मारे जाते हैं। कुछ जघन्य काण्ड करने में सफल भी हो जाते हैं। आखिर ये इतना बड़ा जोखिम क्यों उठाते हैं?
एक झील के किनारे एक आम का पेड़ था। उस पेड़ पर एक बन्दर रहता था और झील में एक मगरमच्छ अपनी पत्नी के साथ रहता था।
जब पेड़ पर आम के फल आते थे तो बन्दर उन फलों को खाता था। कुछ आम वो झील में भी गिरा देता था। जिन्हें मगरमच्छ बड़े चाव से खाता था।
धीरे-धीरे वो दोनों अच्छे मित्र बन गये। एक दिन मगरमच्छ ने कुछ आम अपनी पत्नी को भी दिये। आम बहुत मीठे और रसीले थे । मगरमच्छ की पत्नी को वो बहुत अच्छे लगे। उसने अपने पति से कहा कि ये बन्दर इतने मीठे आम खाता है तो इसका दिल तो बहुत मीठा होगा।
उसने मगरमच्छ से कहा- ‘‘मैं तो अब बन्दर का दिल खाकर ही मानूँगी। अन्यथा अपने प्राण त्याग दूँगी’’
मगरमच्छ ने अपनी पत्नी से कहा- "बन्दर हमारा मित्र है हमें उसके साथ ऐसा सुलूक नही करना चाहिए।"
किन्तु पत्नी की हठ के आगे मगरमच्छ की एक न चली। अतः वह बन्दर को अपनी पत्नी के सामने लाने के लिए तैयार हो गया।
वह दुखी मन से बन्दर के पास गया और उससे कहने लगा- ‘‘मित्र! तुम रोज ही हमें मीठे आम खाने को देते हो। आज हमारी पत्नी ने तुम्हारी दावत की है।’’
बन्दर ने मगरमच्छ की दावत स्वीकार कर ली और वो मगरमच्छ की पीठ पर सवार हो गया।
जैसे ही मगरमच्छ बीच झील में पहुँचा तो उसने बन्दर से कहा कि मित्र तुम बहुत मीठे-मीठे आम खाते हो। तुम्हारा दिल तो बहुत मीठा होगा। आज मेरी पत्नी तुम्हारा दिल खाना चाहती है।
बन्दर ने इस विपत्ति के समय अपना धैर्य नही खोया और वह तुरन्त मगरमच्छ से बोला- ‘‘मित्र! आपने पहले क्यों नही बताया? हम तो उछल-कूद करने वाले प्राणी ठहरे। दिल को झटका न लगे। इसलिए अपने दिल को पेड़ पर ही टाँग देते है। यदि मेरा दिल चाहिए तो मुझे वापिस पेड़ के पास ले चलो। मैं अपना दिल साथ में ले आता हूँ।’’
मूर्ख मगरमच्छ ने बन्दर की बात पर विश्वास कर लिया और उसे जैसे ही पेड़ के पास लाया। बन्दर ने छलांग लगाई और पेड़ पर चढ़ गया।
बन्दर ने मगरमच्छ से कहा- "मूर्ख! कहीं दिल भी पेड़ पर लटका करते हैं।"
कहने का तात्पर्य यह है कि पाप का बाप लोभ होता है।
एक ओर तो मगरमच्छ और उसकी पत्नी को बन्दर खाने का लोभ था तो दूसरी ओर बन्दर को दावत खाने का लोभ था।
दूसरी शिक्षा इस कहानी से यह मिलती है कि यदि प्राण संकट में भी हों तो धैर्य और बुद्धि से काम लेना चाहिए।
अब तो आप समझ ही गये होंगे कि ‘‘पाप का बाप कौन होता है।’’
कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।
"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी