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गुरुवार, सितंबर 09, 2010

"जरूरत है एक अदद महापुरुष की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

पनी अल्प-बुद्धि से यह लेख लिखने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ कि मेरी विचारधारा किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की नही है। यह केवल मेरी अपनी व्यक्तिगत मान्यता है। मैं हिन्दु धर्म का विरोधी नही हूँ, बल्कि कृतज्ञ हूँ कि यदि हिन्दू नही होते तो वेदों का प्रचार-प्रसार करने वाले स्वामी देव दयानन्द कहाँ से आते?
       वैदिक विचारधारा क्या है? इस पर हमें गहराई से सोचना होगा। उत्तर एक ही है कि ‘वेदो अखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात वेद ही सब धर्मो का मूल है। जब वेद ही सब धर्मों का मूल है तो फिर विभिन्न धर्मों में एक रूपता क्यों नही है। वेद में तो केवल ईश्वर के निराकार रूप का की वर्णन है। फिर मूर्तिपूजा का औचित्य है? महर्षि स्वामी देव दयानन्द घोर मूर्तिपूजक परिवार से थे, लेकिन उन्होंने मूर्तिपूजा का घोर विरोध किया और वेदों में वर्णित धर्म के सच्चे रूप को लोगों के सामने प्रस्तुत किया।
       हमारे इतिहास-पुरूष भी निर्विकार पूजा को श्रेष्ठ मानते हैं परन्तु साथ ही साथ साकार पूजा के भी प्रबल पक्षधर हैं। कारण स्पष्ट है आज धर्म को लोगों ने आजीविका से से जोड़ लिया है।
       पहला उदाहरण-परम श्रद्धेय आचार्य श्रीराम लगातार 25 वर्षों तक स्वामी दयानन्द के मिशन आर्य समाज से मथुरा में जुड़े रहे। परन्तु वहाँ मूर्ति पूजा थी ही नही । अतः उन्होंने अपने मन से एक कल्पित गायत्री माता की मूर्ति बना ली और शान्ति कुंज का अपना मिशन हरद्वार में बना लिया। जबकि वेदों में एक छन्द का नाम ‘गायत्री’ है।
       दूसरा उदाहरण- स्वामी दिव्यानन्द ने आर्य समाज को छोड़कर श्री राम शरणम् मिशन बनाया।
       तीसरा उदाहरण आचार्य सुधांशु जी महाराज ने आर्य समाज का उपदेशक पद छोड़ कर ओम् नमः शिवाय का सहारा ले लिया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। लेकिन आजीविका का रास्ता ढूँढने की होड़ में इन्होंने वैदिक धर्म का स्वरूप ही बदल कर रख दिया। हाँ एक बात इनके प्रवचनों में आज भी दिखाई देती है । वह यह है कि ये लोग आज भी बात तर्क संगत कहते हैं। अनकी विचारधारा में अधिकतम छाप आर्य समाज की ही है। लेकिन चढ़ावा बिना गुजर नही होने के कारण इन्होंने उसमें मूर्तिपूजा का पुट डाल दिया है।
        आज सभी ‘ओम जय जगदीश हरे की आरती बड़े प्रेम से मग्न हो कर गाते हैं परन्तु यह आरती केवल गाने भर तक ही सीमित हो गयी है। यदि उसके अर्थ पर गौर करें तो- इसमे एक पंक्ति है ‘ तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति’ कभी सोचा है कि इसका अर्थ क्या है? सीधा सा अर्थ है-हे प्रभू तुम दिखाई नही देते हो, तुम हो एक लेकिन पूजा में रखे हुए हैं ‘अनेक’। आगे की एक पंक्ति में है- ‘.......तुम पालनकर्ता’ लेकिन इस पालन कर्ता की मूर्ति बनाकर स्वयं उसको भोग लगा रहे हैं अर्थात् खिला रहे हैं। क्या यही वास्तविक पूजा है? क्या यही सच्चा वैदिक धर्म का स्वरूप है। सच तो यह है कि हम पूजा पाठ की आड़ में अकर्मण्य बनते जा रहे हैं।
         दुकान पर लाला जी सबसे पहले पूजा करते हैं और पहला ग्राहक आते ही उसे ठग लेते हैं। शाम को फिर पूजा करते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो हमने आज जो झूठ बोलने के पाप कर्म किये हैं उनको क्षमा कर देना। क्योंकि हमारे धर्माचार्यों ने उनके मन में यह कूट-कूट कर भर दिया है कि ईश्वर पापों को क्षमा कर देते हैं। काश् यह भी समझा दिया होता कि ईश्वर का नाम रुद्र भी है। जो दुष्टों को रुलाता भी है।
         खैर, अब आवश्यकता इस बात की है कि फिर कोई महापुरुष भारत में जन्म ले और वैदिक धर्म की सच्ची राह दिखाये। जहाँ चाह है वहाँ राह है। एक आशा है कि युग अवश्य बदलेगा।

शुक्रवार, जून 11, 2010

क्या सच्चा वैदिक धर्म यही है ? (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

“मेरी निजी विचारधारा”

[w02491_o5.jpg]अपनी अल्प-बुद्धि से यह लेख लिखने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ कि मेरी विचारधारा किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की नही है। यह केवल मेरी अपनी व्यक्तिगत मान्यता है। मैं हिन्दु धर्म का विरोधी नही हूँ, बल्कि कृतज्ञ हूँ कि यदि हिन्दू नही होते तो वेदों का प्रचार-प्रसार करने वाले स्वामी देव दयानन्द कहाँ से आते?
वैदिक विचारधारा क्या है? इस पर हमें गहराई से सोचना होगा। उत्तर एक ही है कि ‘वेदो अखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात वेद ही सब धर्मो का मूल है। जब वेद ही सब धर्मों का मूल है तो फिर विभिन्न धर्मों में एक रूपता क्यों नही है। वेद में तो केवल ईश्वर के निराकार रूप का की वर्णन है। फिर मूर्तिपूजा का औचित्य है? महर्षि स्वामी देव दयानन्द घोर मूर्तिपूजक परिवार से थे, लेकिन उन्होंने मूर्तिपूजा का घोर विरोध किया और वेदों में वर्णित धर्म के सच्चे रूप को लोगों के सामने प्रस्तुत किया।
हमारे इतिहास-पुरूष भी निर्विकार पूजा को श्रेष्ठ मानते हैं परन्तु साथ ही साथ साकार पूजा के भी प्रबल पक्षधर हैं। कारण स्पष्ट है आज धर्म को लोगों ने आजीविका से से जोड़ लिया है।
पहला उदाहरण-परम श्रद्धेय आचार्य श्रीराम लगातार 25 वर्षों तक स्वामी दयानन्द के मिशन आर्य समाज से मथुरा में जुड़े रहे। परन्तु वहाँ मूर्ति पूजा थी ही नही । अतः उन्होंने अपने मन से एक कल्पित गायत्री माता की मूर्ति बना ली और शान्ति कुंज का अपना मिशन हरद्वार में बना लिया। जबकि वेदों में एक छन्द का नाम ‘गायत्री’ है।
दूसरा उदाहरण- स्वामी दिव्यानन्द ने आर्य समाज को छोड़कर श्री राम शरणम् मिशन बनाया।
तीसरा उदाहरण आचार्य सुधांशु जी महाराज ने आर्य समाज का उपदेशक पद छोड़ कर ओम् नमः शिवाय का सहारा ले लिया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। लेकिन आजीविका का रास्ता ढूँढने की होड़ में इन्होंने वैदिक धर्म का स्वरूप ही बदल कर रख दिया। हाँ एक बात इनके प्रवचनों में आज भी दिखाई देती है । वह यह है कि ये लोग आज भी बात तर्क संगत कहते हैं। अनकी विचारधारा में अधिकतम छाप आर्य समाज की ही है। लेकिन चढ़ावा बिना गुजर नही होने के कारण इन्होंने उसमें मूर्तिपूजा का पुट डाल दिया है।
आज सभी ‘ओम जय जगदीश हरे की आरती बड़े प्रेम से मग्न हो कर गाते हैं परन्तु यह आरती केवल गाने भर तक ही सीमित हो गयी है। यदि उसके अर्थ पर गौर करें तो- इसमे एक पंक्ति है ‘ तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति’ कभी सोचा है कि इसका अर्थ क्या है? सीधा सा अर्थ है-हे प्रभू तुम दिखाई नही देते हो, तुम हो एक लेकिन पूजा में रखे हुए हैं ‘अनेक’। आगे की एक पंक्ति में है- ‘.......तुम पालनकर्ता’ लेकिन इस पालन कर्ता की मूर्ति बनाकर स्वयं उसको भोग लगा रहे हैं अर्थात् खिला रहे हैं। क्या यही वास्तविक पूजा है? क्या यही सच्चा वैदिक धर्म का स्वरूप है। सच तो यह है कि हम पूजा पाठ की आड़ में अकर्मण्य बनते जा रहे हैं।
दुकान पर लाला जी सबसे पहले पूजा करते हैं और पहला ग्राहक आते ही उसे ठग लेते हैं। शाम को फिर पूजा करते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो हमने आज जो झूठ बोलने के पाप कर्म किये हैं उनको क्षमा कर देना। क्योंकि हमारे धर्माचार्यों ने उनके मन में यह कूट-कूट कर भर दिया है कि ईश्वर पापों को क्षमा कर देते हैं। काश् यह भी समझा दिया होता कि ईश्वर का नाम रुद्र भी है। जो दुष्टों को रुलाता भी है।
खैर अब आवश्यकता इस बात की है कि फिर कोई महापुरुष भारत में जन्म ले और वैदिक धर्म की सच्ची राह दिखाये। जहाँ चाह है वहाँ राह है। एक आशा है कि युग अवश्य बदलेगा।

शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

"संस्कृति एवं सभ्यता----2" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

"संस्कृति एवं सभ्यता" गतांक से आगे....
5- दान प्रत्येक मानव का अनिवार्य कर्तव्य है तो लोग भीख, जुआँ, चोरी आदि क्यों करते हैं?..........
मनुष्य प्रजापति के पास गये और उनसे प्रार्थना की-
"महाराज! हमें उपदेश कीजिए।"
प्रजापति ने कहा-
"दान दिया करो, यही संस्कृति है।"
धन की तीन गति हैं-"दान, भोग और नाश।"
जो लोग न दान करते हैं, न भोग करते हैं। उनके धन का नाश हो जाता है। ऐसे धन को या तो चोर चुरा लेते हैं, या अग्नि में दहन हो जाता है , या राजदण्ड में चला जाता है।
दान देते रहना चाहिए, दान देने से धन घटता नही है। जैसे कुएँ का पानी बराबर निकालते रहने से कम नही होता है। यदि उसमें से पानी निकालना बन्द कर दिया जाय तो पानी सड़ जाता है।
जिस घर में वायु आने का एक ही द्वार है, निकलने का नही है तो उस घर में वायु नही आती है।
"यावद् भ्रियेतजठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
यो अधिकमभि मन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।"
जितने से जिसका पेट भर जाये उतना ही उसका स्वत्व है। जो अधिक माँगता है वह स्तेन है, अर्थात दण्ड के योग्य है। अतः मनुष्य को दान करते रहना चाहिए।
िहृया देयम्- लज्जा से देना चाहिए, भिया देयम्-भय से देना चाहिए, संविदा देयम्- ज्ञानपूर्वक देना चाहिए। देयम्- यही हमारा प्रथम कर्तव्य है।
कुछ लोग दान लेना नही चाहते, अपितु वे उधर लेना चाहते हैं। अर्थात् जितना लेंगे, समर्थ होने पर उतना ही वापिस कर देंगे। यह कुसीद है। इस पर बढ़ाकर लेना ब्याज है, छल-कपट है-सूद है। इससे समाज नही बल्कि समज (दस्यु) बन रहा है। इसी का परिणाम है कि एक ओर असंख्य पूंजीपतियों को जन्म हो रहा है और दूसरी ओर वित्तविहीन भोजन तक के लिए तरस रहा है। यह व्यापार में लाभ के स्थान पर फायदा (प्रॉफिट) लेने के कारण हो रहा है।
लाभ लीजिए परन्तु शोषण मत कीजिए।
अब विचारिए-
क्रमशः..............
(साभार "संस्कृति एवं सभ्यता")

बुधवार, दिसंबर 16, 2009

"संस्कृति एवं सभ्यता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

 "संस्कृति एवं सभ्यता" (स्वामी इन्द्रदेव यति)
किम् संस्कतिः?
(संस्कृति क्या है?)
या सम्यक् क्रियते सा संस्कृतिः।
(जो सम्यक् (भद्र) किया जाता है, वह संस्कृति है।)
अब प्रश्न उठता है कि - सम्यक् क्या है?
किसी कार्य को करने से पहले यदि उत्साह, निर्भीकता और शंका न उत्पन्न हो तो उसे सम्यक् कहा जायेगा और शंका,भय और लज्जा उत्पन्न हो तो वह सम्यक् अर्थात् भद्र नही कहा जा सकता।
ओम् अच्छिन्नस्यते देव सों सुवीर्यस्य
रायस्पोषस्य दद्तारः स्याम।
सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्वारा
स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः।। (यजुर्वेद 7 । 14)
(अर्थ- हे सोमदेव, शान्ति प्रदाता, दिव्यगुण युक्त परमेश्वर! आपसे प्राप्त अच्छिन्न और सुवीर्ययुक्त पोषण करने वाले धन को देने वाले होवें, वह प्रथमा संस्कृति है, जिसको संसार ने स्वीकार किया था। प्रथम मित्र (अवगुणों को दूर करने वाला) और वरुण (सद् गुणों को देने वाला) वह अग्नि है जो सदा आगे ले जाने वाला (अग्रेनयति) और ऊपर ले जाने वाला (ऊर्ध्व गमयति) है।)
यजुर्वेद के उपरोक्त मन्त्र मे कहा गया है कि-
संस्कृति एक है क्योंकि  इस मन्त्र मे संस्कृति का एक वचन मे प्रयोग किया गया है।
संस्कृति के साथ किसी विशेषण का प्रयोग नही  हुआ है अर्थात् संस्कृति का कोई विशेषण नही होता है।
अच्छिन्न है अर्थात् संस्कृति में कोई छेद नही होता है। छिद्ररहित होने के कारण यह प्रणिमात्र के छिद्रों को दूर करती है।
वीर्य से परिपूर्ण है अर्थात् संस्कृति प्राणिमात्र को पुष्ट करती है और
संस्कृति का प्रमुख लक्षण है कि यह देने वाली है।
अब आप मनन और विचार कीजिए कि-
1- संस्कृति एक है तो संसार में अनेक संस्कृतियों की चर्चा क्यों की जाती है?
2- संस्कृति का कोई विशेषण नही है अर्थात् संस्कृति किसी नाम से नही पुकारी जाती है तो देश भेद से भारतीय संस्कृति, योरोपीय संस्कृति, अमेरिकन...,चीनी.....और मत मतान्तर भेद से हिन्दु संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, ईसाई संस्कृति आदि पुकारने का क्या औचित्य है?
3- संस्कृति में छिद्र नहीं है तो  - प्रत्येक मत-मतान्तर तथाकथित अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ क्यों मानते हैं?
4- संस्कृति सबका पोषण करने वाली है तो प्रत्येक पदार्थ में मिलावट करके प्राणियों को नष्ट करने का उपक्रम तथाकथित संस्कृति वाले क्यों कर रहे हैं?
5- दान प्रत्येक मानव का अनिवार्य कर्तव्य है तो लोग भीख, जुआँ, चोरी आदि क्यों करते हैं?...........
क्रमशः..............
(साभार "संस्कृति एवं सभ्यता")





मंगलवार, अक्टूबर 20, 2009

"नानकमत्ता साहिब का दिवाली मेला" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

!! उत्सवप्रियाः मानवाः !!




(चित्रों में नानकमत्ता दीपावली मेले के अद्यतन दृश्य)
नानकमत्ता साहिब एक ऐतिहासिक महत्व का सिक्खों का धार्मिक सुविख्यात स्थान होने के साथ-साथ यहाँ लगने वाला दीपावली का मेला भी इस क्षेत्र का विशालतम माना जाता है। इसमे 5 से 10 लाख लोगों की भीड़ जमा होती है।
दस दिनों तक चलने वाले मेले का दीपावली से दो दिन पूर्व शुभारम्भ हो जाता है। तीन दिनों तक तो सिख-पन्थ से लोगों के द्वारा बड़े-बड़े दीवान आयोजित किये जाते हैं। जिनमें उच्र्च कोटि के धार्मिक व्याख्यानकर्ता तथा रागी अपने भजन-कीर्तन तथा व्याख्यान देते हैं। इसके बाद आदिवासी रानाथारू जन-जाति के लोगों के साथ-साथ इस क्षेत्र के सभी धर्मों के लोग और दूर-दराज से आने वाले दर्शनार्थियों का ताँता लगा रहता है।
नानकमत्ता साहिब में आधुनिक सुविधाओं से युक्त 200 कमरों की एक सराय भी है। वह इस समय बिल्कुल भरी रहती है। इसके साथ ही मेलार्थियों के लिए अलग से टेण्ट लगाकर भी रहने की व्यवस्था गुरूद्वारा प्रबन्धक कमेटी, नानकमत्ता द्वारा की जाती है।
गुरू महाराज के दरबार साहिब में बारहों मास तीन स्थानों पर अनवरतरूप से लंगर चलता रहता है। इसलिए इस मेले में खाने का कोई होटल नही होता है। हाँ ! चाट-मिष्ठान आदि की बहुत सी दूकाने होती हैं। सुबह से शाम और रात तक चलने वाले लंगर में लाखों लोग प्रतिदिन प्रसाद के रूप मे लंगर छकते हैं।
मेले की व्यवस्था सुचारूरूप से चलाने के लिए मेला-अवधि में यहाँ 24 घण्टे बाकायदा एक पुलिस कोतवाली अपना काम करती रहती है।
आज की तेजी से भागती हुई जिन्दगी में भी इस मेले में 3-4 अस्थायी टेण्ट टाकीज, 2-3 नाटक कम्पनियाँ, सरकस, 10-15 झूले, मौत का कुआँ और इन्द्र-जाल, काला-जादू आदि अनेकों मनोरंजन के साधन यहाँ पर होते हैं।
वस्त्रों, खिलौनों और घरेलू सामानों की तो इस मेले में हजारों दूकानें होती हैं। इसके साथ ही यहाँ पर तलवारों, कृपाणों, भाला, बरछी और लाठी-डण्डों की भी सैकड़ों दूकानें सजी होतीं हैं।
यदि आप भी उत्सवप्रिय हैं तो कभी इस मेले का भी आनन्द उठा सकते हैं।
मेले के साथ-साथ आपका देशाटन भी हो जायेगा और गुरू नानकदेव के दरबार में मत्था टेकने का भी 
आपको सौभाग्य प्राप्त हो जायेगा।
गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब उत्तराखण्ड के जिला-ऊधमसिंहनगर में स्थित है। यह दिल्ली से 275 किमी दूर है तथा मुरादाबाद से 130 किमी दूर है। अन्तिम रेलवे स्टेशन रुद्रपुर-सिटी और छोटी लाइन का स्टेशन खटीमा या किच्छा है।
यह रुद्रपुर-सिटी से 58 किमी, खटीमा से 16 किमी तथा किच्छा से 38 किमी है।

बुधवार, सितंबर 16, 2009

‘‘हिन्दी संयुक्ताक्षर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


यदि संयुक्ताक्षर शब्द के अर्थ पर ध्यान दें तो संयुक्त + अक्षर। अर्थात् दो या दो से अधिक अक्षरों के मेल से बने अक्षरों को संयुक्ताक्षर कहते हैं।
देखने में यह आया है कि विद्वानों ने ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ को तो हिन्दी वर्णमाला में सम्मिलित करके या तो इन्हें प्रिय मान लिया है या इन्हें संयुक्ताक्षर की परिधि से पृथक कर दिया है। यह मैं आज तक समझ नही पाया हूँ। जबकि संयुक्ताक्षरों की तो हिन्दी में भरमार है। फिर ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ को हिन्दी वर्णमाला में क्यों पढ़ाया जा रहा है?
कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी का ज्ञान प्राप्त करने वाला विद्यार्थी कभी इनकी तह में जाने का प्रयास ही नही करता है। इसीलिए आज इनका उच्चारण भी दूषित हो गया है।
क् + ष = क्ष, इसका उच्चारण आज ‘‘छ’’ ही होने लगा है।
त् + र = त्र, इसकी सन्धि पर किसी का ध्यान ही नही है और
ज् + ञ = ज्ञ,
सबसे अधिक दयनीय स्थिति तो ‘‘ज्ञ’’ की है।
‘‘ज्ञ’’ का उच्चारण तो लगभग ९९.९९ प्रतिशत लोग ‘‘ग्य’’ के रूप में करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह पढ़े-लिखे लोग हिन्दी की वैज्ञानिकता को झुठलाने लगे हैं।
आखिर इस स्थिति का जिम्मेदार कौन हैं?
मैं इसका यदि सीधा-सपाट उत्तर दूँ तो-
इसकी जिम्मेदार केवल और केवल ‘‘अंग्रेजी’’ है।
उदाहरण के लिए यदि ‘‘विज्ञान’’ को रोमन अंग्रेजी में लिखा जाये तो VIGYAN विग्यान ही लिखा जायेगा। यही हमारे रोम-रोम में व्याप्त हो गया है।
आज आवश्यकता है कि हिन्दी वर्णमाला में से ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ संयुक्ताक्षरों को बाहर कर दिया जाये। तभी तो संयुक्ताक्षरों का मर्म हिन्दी शिक्षार्थियों की समझ में आयेगा।
तब अन्य संयुक्ताक्षरों के साथ -
घ् + र = घ्र, घ् + न = घ्न, ष् + ट = ष्ट, आदि के साथ
क + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ और श् + र = श्र
सिखाया जा सकेगा।

शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

"बूढ़े तोते ब्लॉगिग सीख रहे हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

‘‘बूढ़े तोतों की पाठशाला’’
करीब सात माह पहले जब मैं ब्लॉगिग की दुनिया में आया था तो सोचता था कि कैसे इस महासागर में अपने पैर जमा सकूँगा। लेकिन ब्लॉग-जगत इतना सहृदय है कि इस दुनिया की पुण्यशीलात्माओं ने सदैव मेरा उत्साहवर्धन किया।
आप सबके स्नेह ने मुझे इतना बल दिया कि मैंने कुछ बूढ़े तोतों को ब्लॉगिग सिखाना प्रारम्भ कर दिया है।
नजर डाल लें मेरे इन ब्लॉगार्थियों पर-






इनमें से कुछ तोतों ने तो ब्लॉगिग की ए-बी-सी-डी रट भी ली है। लेकिन कुछ इनमें से अभी ऐसे हैं जो अपना पुराना राग ही अलापते हैं।
आपको एक राज की बात बताऊँ कि ये बूड़े तोते प्रतिदिन मेरी ब्लॉगिग की पाठशाला में हाजिरी जरूर लगाने आ जाते हैं।

मंगलवार, अगस्त 25, 2009

‘‘पीठ और छाती का अन्तर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


विषय इतना जटिल है कि सोच रहा हूँ कि इसकी शरूआत कहाँ से करूँ।

पहाड़ मेरा घर है और इसके ठीक नीचे बसा हुआ मैदान मेरा आँगन है।
जिन दिनों सरदी कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र से बहुत सारे बच्चे इन मैदानी भागों में नौकरी करने के लिए आ जाते हैं। ये अक्सर घरों या होटलों में साफ-सफाई करते या झूठे बरतन बलते हुए देखे जा सकते हैं। इनकी उम्र 10 साल से 12 साल के बीच होती है। बड़े होने पर ये दिल्ली या बम्बई जैसे महानगरों में पलायन कर जाते हैं।
क्या कारण है कि इन बालकों को घर से बिल्कुल भी मोह नही होता है? जबकि हमारे घरों के बालक माता-पिता से इतना मोह रखते हैं कि विवाह होने तक माता-पिता और घर को छोड़ने की कल्पना भी नही कर सकते।
मैंने जब गहराई से इस पर विचार किया तो बात समझ में आ गई।
मैं नेपाल देश के बिल्कुल करीब में रहता हूँ।
जहाँ माताएँ अपने एक महीने के बालक को भी पीठ से बाँध कर चलती हैं। जबकि हमारे घरों की माताएँ अपने दो वर्ष के बच्चे को भी अपनी छाती के साथ लगा कर रखती है। यदि कहीं जायेगी तो वो बच्चे को सीने से लगा कर ही चलेंगी।
बस यही तो अन्तर होता है, छाती से लगा कर पले बालकों और पीठ के पले बालकों में।
छाती से लगा कर पले बालक हृदय के करीब होते हैं और पीठ के पले बालक हृदय के दूर होते हैं।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)

गुरुवार, अगस्त 20, 2009

"हिन्दी-व्याकरण" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’


बहुत समय से हिन्दी व्याकरण पर कुछ लिखने का मन बना रहा था। परन्तु सोच रहा था कि लेख प्रारम्भ कहाँ से करूँ।

आज इस लेख की शुभारम्भ हिन्दी वर्ण-माला से ही करता हूँ।

मुझे खटीमा (उत्तराखण्ड) में छोटे बच्चों का विद्यालय चलाते हुए 25 वर्षों से अधिक का समय हो गया है।

शिशु कक्षा से ही हिन्दी वर्णमाला पढ़ाई जाती है।

हिन्दी स्वर हैं-

अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ए ऐ ओ औ अं अः।

यहाँ तक तो सब ठीक-ठाक ही लगता है।

लेकिन जब व्यञ्जन की बात आती है तो इसमें मुझे कुछ कमियाँ दिखाई देती हैं।

शुरू-शुरू में-

क ख ग घ ड.।

च छ ज झ ञ।

ट ठ ड ढ ण।

त थ द ध न।

प फ ब भ म।

य र ल व।

श ष स ह।

क्ष त्र ज्ञ।

पढ़ाया जाता है। जो आज भी सभी विद्यालयों में पढ़ाया जाता है।

उन दिनों एक दिन कक्षा-प्रथम के एक बालक ने मुझसे एक प्रश्न किया कि ड और ढ तो ठीक है परन्तु गुरू जी!

यह और

कहाँ से आ गया? कल तक तो पढ़ाया नही गया था।

प्रश्न विचारणीय था।

अतः अब 20 वर्षों से-

ट ठ ड ड़ ढ ढ़ ण।

मैं अपने विद्यालय में पढ़वा रहा हूँ।

आज तक हिन्दी के किसी विद्वान ने इसमें सुधार करने का प्रयास नही किया।

आजकल एक नई परिपाटी एन0सी0ई0आर0टी0 ने निकाली है। इसके पुस्तक रचयिताओं ने आधा अक्षर हटा कर केवल बिन्दी से ही काम चलाना शुरू कर दिया है। यानि व्याकरण का सत्यानाश कर दिया है।

हिन्दी व्यंजनों में-

कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अन्तस्थ और ऊष्म का तो ज्ञान ही नही कराया जाता है। फिर आधे अक्षर का प्रयोग करना कहाँ से आयेगा?

हम तो बताते-बताते, लिखते-लिखते थक गये हैं परन्तु कहीं कोई सुनवाई नही है।

इसीलिए हिन्दुस्तानियों की हिन्दी सबसे खराब है।

बिन्दु की जगह यदि आधा अक्षर प्रयोग में लाया जाये तभी तो नियमों का भी ज्ञान होगा। अन्यथा आधे अक्षर का प्रयोग करना तो आयेगा ही नही।

सत्य पूछा जाये तो अधिकांश हिन्दी की मास्टर डिग्री लिए हुए लोग भी आधे अक्षर के प्रयोग को नही जानते हैं।

नियम बड़ा सीधा और सरल सा है-

किसी भी परिवार में अपने कुल के बालक को ही चड्ढी लिया जाता है यानि पीठ पर बैठाया जाता है। अतः यदि आधे अक्षर को प्रयोग में लाना है तो जिस कुल या वर्ग का अक्षर बिन्दी के अन्त में आता है उसी कुल या वर्ग व्यंजन का अन्त का यानि पंचमाक्षर आधे अक्षर के रूप में प्रयोग करना चाहिए।

उदाहरण के लिए -

झण्डा लिखते हैं तो इसमें का आधा अक्षर की पीठ पर बैठा है। अर्थात टवर्ग का ही अक्षर है। इसलिए आधे अक्षर के रूप में इसी वर्ग का का आधा अक्षर प्रयोग में लाना सही होगा। परन्तु आजकल तो बिन्दी से ही झंडा लिखकर काम चला लेते है। फिर व्याकरण का ज्ञान कैसे होगा?

इसी तरह मन्द लिखना है तो इसे अगर मंद लिखेंगे तो यह तो व्याकरण की दृष्टि से गलत हो जायेगा।

अब बात आती है संयुक्ताक्षर की-

जैसा कि नाम से ही ज्ञात हो रहा है कि ये अक्षर तो दो वर्णो को मिला कर बने हैं। इसलिए इन्हें वर्णमाला में किसी भी दृष्टि से सम्मिलित करना उचित नही है।

समय मिला तो अगली बार कई मित्रों की माँग पर हिन्दी में कविता लिखने वाले अपने मित्रों के लिए गणों की चर्चा अवश्य करूँगा।

शनिवार, जुलाई 18, 2009

‘‘चम्पावत जिले की सुरम्य वादियाँ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


अगर कभी आपका कार्यक्रम उत्तराखण्ड में कुमाऊँ में घूमने का बन जाता है तो दिल्ली से 350 किमी मुरादाबाद से 185 किमी की दूरी पर नेपाल सीमा पर बसा टनकपुर शहर है। इसे पहाड़ों का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है।

(चित्र माता श्री पूर्णागिरि दरबार, चम्गावत-उत्तराखण्ड)

सिद्ध-पीठ के रूप में मानी जाने वाली माता पूर्णागिरि के रास्ते में टनकपुर से 14 किमी दूर शारदा नदी के किनारे घने जंगलों के बीच एक स्थान बूम के नाम से जाना जाता है।

इसके प्राकृतिक नजारे तो आपको अपनी ओर आकर्षित करेंगे ही साथ ही यहाँ बंगाली शैली का माता माधवी का मन्दिर भी आपका मन जरूर मोह लेगा।

माता माधवी के मन्दिर के साथ ही यहाँ उत्तराखण्ड पर्यटन विभाग ने एक छोटा सा गेस्ट हाउस भी बना दिया है।

आज होली का दिन है। कल रंगों की दुल्हैण्डी होगी। घर में कुछ अतिथि भी आये हुए हैं । अतः आज बूम में पिकनिक मनाने का कार्यक्रम बन ही गया। सबसे पहले हम लोग दो कारों में बैठ कर बूम पहुँचे। शारदा नदी के कल-कल निनाद ने मन ऐसा मोहा कि नदी में स्नान का मूड बन ही गया। एक घण्टे में सब लोग स्नान से निवृत्त हो गये। इसके बाद हम लोग उत्तराखण्ड पर्यटन विभाग द्वारा बनाये गये गस्ट हाउस की टैरेस पर आ गये।

जिस पर विशाल टीन शेड बना हुआ है। पूर्णागिरि मेले के समय में इसमें 100 के लगभग फोल्डिंग चारपाई बिछा दी जाती हैं। कुछ श्रद्धालू यहाँ भी रात्रि विश्राम कर ही लेते हैं। हम लोगों ने यहाँ कुछ देर विश्राम किया और रसोइए को खाना बनाने को कह दिया गया। इसके बाद हम लोग माता माधवी देवी के आश्रम में विशाल मन्दिर को देखने गये।

आप भी देखें। इन सुन्दर दृश्यों को-
मन्दिर में दर्शन के उपरान्त हम लोग पुनः गेस्ट हाउस में आये टैरेस पर ही दरी बिछा कर भोजन किया और पिकनिक पूरी हो गयी।

मंगलवार, जुलाई 14, 2009

‘‘नानक सागर डाम’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



पन्द्रह कि.मी. तक सिर्फ पानी ही पानी। दूर दिखाई दे रही , कुमाऊँ की सुरम्य पर्वतमाला।
आप ऊपर जो चित्र देख रहे हैं। यह किसी समूद्र का चित्र नही है।
यह दृश्य है उत्तराखण्ड की नैनीताल कमिश्नरी के जिला-ऊधमसिंहनगर स्थित नानक सागर डाम का।
यह दिल्ली से 300 किमी की दूरी पर स्थित है।
इसको कुमाऊँ की पहाड़ियों से निकले कई नदी नाले बरसात में पानी से लवरेज कर देते हैं।
लेकिन देवहा नाला इसको भरने में अपनी प्रमुख भूमिका निभाता है। इससे निकले अतिरिक्त पानी से आगे चल कर देवहा नदी बनी है। जो पीलीभीत जिले में अपने विशालरूप के लिए जानी जाती है।
यदि डामों की बात करे तो अधिकांश डाम भूमि में गहराई पर बने होते है। परन्तु यह इकलौता डाम है जो कि भूमि के ऊपर बना है। यह एक उथला डाम हैं जिसे मजबूत बाँध बनाकर निर्मित किया गया है। इसका निर्माण तत्कालीन उत्तर-प्रदेश सरकार ने 1962 में कराया था।
इसके एक किनारे पर नानकमत्ता साहिब है। नानकमत्ता की लगभग 800 एकड़ भूमि का अधिग्रहण सरकार द्वारा कर लिया गया था।
गुरू नानक देव द्वारा जमीन में फावड़ा मार पानी की धारा प्रकट की गयी थी। जिसे बाउली साहब के नाम से पुकारा जाता है। वह भी इस भूमि पर ही है। सरकार ने पुल बनाकर इस स्थान को सुरक्षित बचा लिया था।
आज नानक सागर डाम एक पर्यटन स्थल के रूप में भी जाना जाता है। इसके किनारे बने पार्क सैलानियों का मन मोह लेते हैं।
ऊपर जो पार्क दिखाई दे रहा है। यह नानक सागर डाम के किनारे पर ही स्थित है। हम भी कभी-कभी यहाँ पर पिकनिक मनाने के लिए जाते हैं। पार्क में छतरीनुमा पेड़ आपको गर्मी का आभास नही होने देंगे।
अगर आप कभी नैनीताल घूमने आयें तो नानकमत्ता अवश्य आयें। गुरूद्वारा में मत्था टिकायें, लंगर छकें और आसपास के अजूबों को भी अपने कैमरे में कैद करके पिकनिक का भरपूर आनन्द उठायें।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)


शनिवार, जुलाई 11, 2009

‘‘गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



आज श्री नानकमत्ता साहिब की दूसरी कड़ी प्रस्तुत कर रहा हूँ।

नानकमत्ता में गुरू नानक देव जी की सिद्धों से बहुत ठन चुकी थी। क्योंकि गुरू नानक देव जी अपने सेवादारों के साथ यहाँ आये हुए थे और गुरू गोरखनाथ के शिष्यों को यह गवारा नही था।
सिद्धों ने अपने योग बल से यहाँ का पानी सुखा दिया था। जब बाला मरदाना को प्यास लगी तो पीने को पानी नही था। तब गुरू नानक देव ने फावड़ा मार कर फावड़ी गंगा की धारा प्रकट की। वो स्थान आज भी मौजूद है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यहाँ नानक सागर डाम बनवा दिया है।
इसलिए यह स्थान डाम के अन्दर आ गया है परन्तु डाम पर पुल बनवा कर इस स्थान को दर्शनीय स्थान के रूप में सुरक्षित किया गया है। इसे आज बाउली साहब क रूप में जाना जाता है।
एक दिन गुरू नानक देव जी क सेवादारों ने गुरू जी से निवेदन किया कि गुरू जी दूध का स्वाद बहुत दिनों से नही चखा है। आज दूध पहने की इच्छा हो रही है तो गरू जी ने एक कुएँ खुदवाया। इस कुएँ में से दूध की धारा फूट निकली।
(गुरूद्वारा के साथ लगा छोटा गुम्बद दूध वाला कुआँ है)
यह स्थान आज भी दूधवाले कुएँ के नाम से जाना जाता है। इस कुएँ के जल में से आज भी कच्चे दूध की महक आती है। दूर-दूर से लोग इसका जल भर कर अपने घरों को ले जाते हैं। गंगा जल के समान ही इस जल को पवित्र माना जाता है। कहा जाता है कि इस जल का पान करने से बहुत सी असाध्य बीमारियों से मुक्ति मिलती है। इसके साथ लगे गुरूद्वारे में अमृत भी छकाया जाता है।

गुरुवार, जुलाई 09, 2009

‘‘नानकमत्ता साहिब-एक ऐतिहासिक गुरूद्वारा’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब
उत्तराखण्ड के नैनीताल मण्डल में
जिला-ऊधमसिंहनगर में स्थित है।
यह दिल्ली से मात्र ३०० किमी की दूरी पर स्थित है।
(गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब बाहर का दृश्य)

सिख पन्थ के प्रथम गुरू ‘‘गुरू नानक देव’’ सिर्फ एक ऐतिहासिक पुरूष ही नही थे। वे सत्य के प्रकाशक और एक समाज सुधारक भी थे।

(गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब भीतर का दृश्य)
उनके समय में गुरू गोरक्षनाथ के शिष्यों का बोल बाला था। जो अपने चमत्कार जनता को दिखाते रहते थे। उस समय आज का नानकमत्ता ‘‘सिद्ध-मत्ता’’ के नाम से जाना जाता है। इससे लगा गाँव आज भी तपेड़ा के नाम से विख्यात है। तपेड़ा अर्थात तप करने का स्थान।

गुरू नानकदेव भ्रमण करते हुए यहाँ भी पहुँचे। लेकिन सिद्धों को उनका यहाँ आना अच्छा नही लगा। अतः सिद्धों ने गुरू जी को यहाँ से खदेड़ने के लिए अनेक उपाय किये।

यहाँ आज भी उसी समय का पीपल का एक विशालकाय वृक्ष भी है। जो सिद्धों के जुल्मों की कहानी कह रहा है।
(गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब विशाल पीपल वृक्ष का दृश्य)
गुरू नानक देव जी अपने दो सेवादारों के साथ इस पीपल के वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे कि सिद्धों ने अपने योग बल से इस महावृक्ष को उड़ाना शुरू कर दिया। इसकी जड़ें जमीन से 15 फीट के लगभग ऊपर उठ चुकी थी।

गुरू नानक जी ने जब यह दृश्य देखा तो उन्होंने अपना हाथ का पंजा इस पेड़ पर रख दिया और पीपल का पेड़ यहीं पर रुक गया।

आज भी जमीन के ऊपर इसकी जड़ें दिखाई देती हैं।

अब सिद्धों ने क्रोध में आकर इस पेड़ में अपने योग बल से आग लगा दी। जिसे गुरू नानक देव ने केशर के छींटे मार कर पुनः हरा-भरा कर दिया।

आज भी इस पीपल के वृक्ष के हर एक पत्ते पर केशर के निशान पाये जाते हैं।

नानकमत्ता के बारे में तो बहुत सी विचित्र जानकारियाँ भरी पड़ी हैं। फिर किसी दिन इससे जुड़ा दूसरा आख्यान प्रकाशित करूँगा।

गुरुवार, जुलाई 02, 2009

"जमाना बहुत बदल गया है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)





आज से लगभग 30-35 वर्ष पुरानी बात है।

उन दिनों आर्य समाज के एक बड़े विद्वान स्वामी इन्द्रदेव यति का प्रवचन वहाँ चल रहा था। अचानक स्वामी जी के मुँह से यह वाक्य निकल गया-

‘‘टनकपुर मण्डी, हवा चले ठण्डी।’’

अगली लाइन थी- ‘‘नीचे लाला, ऊपर रण्डी।।’’

प्रवचन के दौरान एक लाला जी पुत्र को यह बात बड़ी अशोभनीय लगी। सब लोग तो हँस रहे थे, परन्तु वह स्वामी जी से उलझने लगा।

जब ज्यादा बहसबाजी हो गयी तो स्वामी जी ने कहा कि कि बेटा मैं सत्य बात ही कह रहा हूँ।

उस समय में नीचे लाला जी दूकान करते थे और ऊपर टीनशेड के बने घर में बेश्याएँ रहा करती थी।

ऐसा करो आप अपने दादा जी से यह पूछ कर बताओ कि मैं गलत कह रहा हूँ या सही कह रहा हूँ।

संयोगवश् उसके दादा जी भी स्वामी जी का प्रवचन सुन रहे थे।

जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने भी स्वामी जी की बात का समर्थन किया।

मैंने आज के टनकपुर का जब अच्छी तरह से भ्रमण किया तो मुझे उस समय के टनकपुर का पुराना भवन मिल ही गया। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है।

यह लडका कौन रहा होगा? बस इसी को उजागर करने के लिए यह कहानी रची गयी है।

यह लड़का श्याममोहन था। परसों रात किन्ही अज्ञात हमलावरों ने रात में इसकी व इसकी पत्नी की लोहे की राड और सरियों से प्रहार करके जघन्य हत्या कर दी थी।

मैं सन् 1974 से 1985 नेपाल बार्डर पर बसे तक इसके समीपवर्ती ग्राम बनबसा में रहा हूँ। जहाँ तक मुझे याद है मैंने कभी भी रात या दिन में अपने भवन में ताला नही लगाया था।

उस समय में बनबसा और टनकपुर का एक ही जिला-नैनीताल हुआ करता था। पुलिस थाना भी बनबसा में नही था। आज बनबसा-टनकपुर का का जिला चम्पावत हो गया है। बनबसा एक छोटे शहर का रूप ले चुका है। लेकिन उस समय के बनबसा और आज के बनबसा में जमीन-आसमान का अन्तर आ गया है।

आये दिन लूट व हत्या की वारदाते होंने लगी है, या यों कहिए कि यह दोनों शहर दहशतगर्दों की जन्नत बन गये हैं तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।

क्योंकि क्राइम करो और नेपाल भाग जाओ। वहाँ न पुलिस का झमेला और न ही पकड़े जाने का भय है।

विदेश है तो भारत की पुलिस वहाँ आपका बाल-बाँका भी नही कर सकती है।

यदि गाँठ में माल हो तो सभी तरह की सुख-सुविधा वहाँ सस्ते में उपलब्ध हैं।

वास्तव में जमाना बहुत बदल गया है।

‘‘आदमी लुटवा रहा है आदमी पिटवा रहा।

आदमी को आदमी ही आज है कटवा रहा।।

आदमी बरसा रहा बारूद की हैं गोलियाँ।

आदमी ही बोलता शैतानियत की बोलियाँ।।

आदमी ही आदमी को आज है खाने लगा।

आदमी कितना घिनौना कार्य अपनाने लगा।

शनिवार, जून 27, 2009

‘‘कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है।’’ . रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

आज लोगों को स्वाइन-फ्लू का डर सता रहा है। इससे पहले बर्ड-फ्लू फैल गया था।
वह दिन दूर नही जब बकरा-फ्लू और भैंसा-फ्लू भी दुनिया को अपनी
गिरफ्त में ले लेगा।
लेकिन आज तक लौकी-फ्लू, टिण्डा-फ्लू , तुरई-फ्लू, परबल--फ्लू या
करेला-फ्लू का नाम नही सुना गया।
इतनी बात तो तय है कि ये सारी बीमारियाँ केवल मांसाहार से ही
होती हैं।
भारत के ऋषि-मुनि यह समझाते-समझाते हार गये कि मांसाहार छोड़ो।
आज वह समय आ गया है कि लोग स्वयं ही मांसाहार छोड़कर
शाकाहारी बनने को मजबूर हो गये हैं।
कुदरत की एक ही मार से दुनियाभर के होश ठिकाने आ गये।
सच ही है कि कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है।

मंगलवार, जून 23, 2009

‘‘मोहन राकेश- एक विहंगम दृष्टि’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मोहन राकेश-
मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 को एक समृद्ध, सुसंस्कृत सिन्धी परिवार में अमृतसर में हुआ था। वे स्वच्छ जीवन के विश्वासी थे। उनकी प्रेयसी पत्नी का नाम अनिता औलिक था। वे यायावर प्रकृति के थे।
उनकी मृत्यु 3 दिसम्बर 1972 को मात्र 48 वर्ष की आयु में ही हो गयी
योगदान-
मोहन राकेश ने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, यात्रावृत्तऔर डायरी आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में अपनी कलम चलाई।
उपन्यास-
मोहन राकेश ने कुल छः उपन्यास लिखे।
अन्धेरे बन्द कमरे (1961), न आने वाले कल (1968) और अन्तराल (1972) प्रमुख
कहानी-संग्रह-
मोहन राकेश के 11 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं-
अपरिचित (1957), नये बादल (1957), मवाली (1958), परमात्मा का कुत्ता (1958), इंसान के खंडहर (1958), आद्र्धा (1958), आखिरी सामान (1958), मिस पाल (1959), सुहागिनें (1961), औलाद का आकाश (1966) और एक-एक दुनिया (1969)
एकांकी-
मोहन राकेश का एक एकांकी संग्रह ‘अण्डे के छिलके तथा अन्य एकांकी’ प्रकाशित हुआ है।
नाटक-
मोहन राकेश के कुल चार नाटक प्रकाशित हुए हैं-
आषाढ़ का एक दिन (1959), लहरों के राजहंस (1963), आधे-अधूरे (1969) और गाँव तले की जमीन उनका अधूरा नाटक था।

गुरुवार, जून 18, 2009

‘‘विवाह-सम्बन्ध में जल्दबाजी अच्छी नही होती’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


मैं प्रजापति समाज से हूँ। मेरे छोटे पुत्र ने एम.कॉम.,बी.एड. किया हुआ है। मैं उसके लिए पुत्रवधु के रूप में एक कन्या की तलाश में था।

पिछले कुछ माह पूर्व एक सज्जन अपने मौसेरे भाई को साथ लेकर मेरे यहाँ पधारे। वो टेलीफोन विभाग में इंजीनियर के पद पर आसीन थे। गुजरात में कार्यरत थे। लेकिन रहने वाले बरेली के पास के किसी गाँव के थे।

उनकी पुत्री ने भी एम.एससी., बी.एड. किया हुआ था। वो हमारे घरेलू वातावरण को देखकर बड़े प्रभावित हुए।

अन्ततःलड़की दिखाने की तारीख तय हो गयी। हम लोग परिवार सहित लड़की देखने के लिए बरेली पहुँचे। अच्छे वातावरण में बातें हुईं।

इंजीनियर साहब और उनके सगे-सम्बन्धी हम लोगों से राय माँगने लगे और साथ ही अनुनय-विनय भी करने लगे कि साहब गरीब को भी निभा लीजिए।

मैंने अपने पुत्र से बात की तो उसने भी सहमति प्रकट की। परन्तु हमारी श्रीमती जी ने कहा कि इनकी बिटिया से भी तो सहमति लेनी चाहिए।

अतः उनके परिवार की मौजूदगी में मेरा पुत्र और श्रीमती जी लड़की से बात करने चले गये।

मेरे पुत्र ने लड़की से कहा- ‘‘क्या मैं आपको पसन्द हूँ? आपके पिता जी मुझसे मेरी राय पूछ रहे हैं।’’

लड़की ने उत्तर दिया- ‘‘इतनी जल्दी क्या है? मुझे भी सोचने का समय दो और आप भी सोचने का वक्त लो।’’

लड़की के पिता ने फिर हम लोगों से पूछा तो हमने सारी बातचीत उन्हें बताई।

उन्होंने बेटी से इस विषय में बात की, लेकिन उसने हामी नही भरी।

अतः विवाह सम्बन्ध करने में जल्दबाजी से काम नही लेना चाहिए। आज जमाना बहुत बदल गया है। खूब सोच-विचार कर ही विवाह सम्बन्ध तय करने चाहिए।

अगर हम लोग हाँ कह देते तो पुत्र और पुत्रवधु दोनो का जीवन नर्क बन जाता।

बुधवार, जून 17, 2009

‘‘इस सुराज से तो अंग्रेजों का राज बहुत अच्छा था’’

आज के जमाने को देख-देखकर पुराने लोग बड़े हैरान हैं। वो अक्सर कहते हैं कि इस सुराज से तो अंग्रेजों का राज बहुत अच्छा था।

घटना आज से लगभग 80 वर्ष पुरानी होगी।

मेरे पिता जी अक्सर इस घटना को सुनाते हैं। नजीबाबाद से 5-6 किमी दूर श्रवणपुर के नाम से एक गाँव है। वहाँ मेरी बुआ जी रहतीं थी। उनके ससुर जी बड़े पराक्रमी थे। वो अपनी बिरादरी के जाने माने चैधरी थे।

उन दिनों अंग्रेजी शासन था। एक अंग्रेज आफीसर बग्घी में सवार होकर गाँव के कच्चे रास्ते से सैर करने जा रहा था। मेरी बुआ जी के ससुर ने उनको कहा कि इस रास्ते में आगे कीचड़ है। इसलिए अपनी बग्गी को आगे मत ले जाओ। नही तो कीचड़ में फँस जायेगी। लेकिन अंग्रेज नही माना और आगे बढ़ गया।

कुछ दूर पर कीचड़ में उसकी बग्घी फँस गयी। वो गाँव में आया और कुछ लोगो की मदद से अपनी बग्घी को कीचड़ में से निकलवा लाया।

अब वो सीधे मेरी बुआ जी के ससुर के पास आया और उनको 25 रुपये ईनाम स्वरूप भेंट किये। जिन्होंने उसकी बग्घी को कीचड़ से निकाला था उनको भी एक-एक रुपये का ईनाम दिया।

बाद में पता लगा कि यह आफीसर जिले का डिप्टी कलेक्टर था।

इस आफीसर ने सबसे पहला काम यह किया कि उस रोड को ऊँची करा कर उसमें खड़ंजा लगवाया।

पिता जी कहते हैं कि आज ऐसे आफीसर कहाँ हैं?

आज तो नेताओं से लेकर अधिरियों तक के मुँह खून लगा है। हर काम में कमीशन व रिश्वतखोरी का बोल-बाला है। न्याय तक में भी रिश्वत का ही सिक्का चलता है। इसीलिए गरीब आदमी को न्याय नही मिल पाता है।

इससे तो लाख गुना बेहतर अंग्रेजी राज था।

शुक्रवार, जून 12, 2009

‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

जी हाँ, आप ये पढ़कर चौंकिए मत। ये तो दुनिया का दस्तूर है। एक ब्लॉगर भाई की पोस्ट आयी है। "भिक्षाम् देहि’’ इन सज्जन ने सारा दोष ब्लॉगर्स और पाठकों को दिया है। बहुत सारे शिकवे-शिकायत इस लेख में उडेल दिये हैं। लेकिन बात फिर वही आती है कि ‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’

किसी साहित्य-साधक ने बड़ा परिश्रम करके कोई पोस्ट लिखी है और उसे अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया है, तो कमेंट्स तो आयेंगे हीं। परन्तु इन कमेंट्स में यदि रचना के बारे में एक शब्द भी नही लिखा हो और केवल यह लिखा हो कि

‘‘इसे टिप्पणी न समझें, मैं अपने स्वार्थ के लिए यह लिंक लगा रहा हूँ’’

तो उस रचनाधर्मी के दिल पर क्या बीतेगी?

यह इन महोदय के अतिरिक्त आप सभी जानते हैं। क्योंकि इन्होंने सीधी सी युक्ति निकाली थी और मेरे जैसे न जाने कितने ब्लागर्स को-

‘‘इसे टिप्पणी न समझें, मैं अपने स्वार्थ के लिए यह लिंक लगा रहा हूँ’’

केवल कापी पेस्ट ही किया है। आत्म-मन्थन की तो कभी आवश्यकता ही अनुभव नही की।

मैंने तो नही लेकिन कुछ लोंगो ने इन्हें मेल के द्वारा उत्तर भी दिये, लेकिन इन्होंने उन पर कभी विचार नही किया। बल्कि पोस्ट के रूप में अपने को सही साबित करने का प्रयास किया। चलो भाई ठीक है।

कुछ ब्लॉगर्स ऐसे भी है जिन्हें टिप्पणी करके कुछ सुझाव दो तो वे उस टिप्पणी को प्रकाशित ही नही करते हैं।

बात फिर वही आती है-‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’

किसी की टिप्पणी को प्रकाशित करने अथवा न करने का अधिकार तो ब्लॉग-स्वामी के पास सुरक्षित होता ही है, लेकिन इसमें वो अक्सर ईमानदारी या दरियादिली नही दिखाते हैं।

ठीक है, अश्लील टिप्पणी हो तो इसे कदापि मत प्रकाशित करो, लेकिन मेरा मत है कि यदि सुझाव के रूप में कोई टिप्पणी आयी है तो उसे अवश्य प्रकाशित करना चाहिए।

कुछ ब्लॉगर्स अपने ब्लाग पर बाल पहेली प्रतियोगिता भी लगाते हैं और उसमें पुरस्कार देने की घोषणा भी करते हैं। मेरे पौत्र ने भी ऐसी ही एक प्रतियोगिता में भाग लिया। उसको पुरस्कार देने की घोषणा भी हुई परन्तु आज तक उसे पुरस्कार नही प्रेषित किया गया।

फिर दूसरी पहेली आयी। उसमें किसी अन्य बालक ने पुरस्कार जीता, पुरस्कार की घोषणा भी हुई तो मेरे पौत्र ने उस बालक को बधायी भेजी और साथ में निवेदन भी किया कि ‘‘ये अंकल केवल पुरस्कार देने की घोषणा भर ही करते हैं, देते किसीको भी नही हैं।’’

इस टिप्पणी को आज तक प्रकाशित नही किया गया और न ही पुरस्कार भेजा गया।

एक ब्लॉगर ने किसी अन्य ब्लॉगर की रचना बिना अनुमति लिए ही छाप दी। उसके परिचय में कुछ ऐसा लिखा जिस पर मूल रचनाकार को आपत्ति थी। इसके साथ ही लिंक लगाकर कुछ यों लिखा-

"अगर आप इनकी अन्य रचनाएँ पढ़ना चाहते हैं,

तो आपको यह दुनिया छोड़कर जाना पड़ेगा ... ... ... ।

..... ... ... ज़रा सोच-समझकर ही .........................पर क्लिक् कीजिएगा!"

इस वाक्य का क्या अर्थ होगा यह सब लोग जानते हैं, क्योंकि ये तो सीधे-सीधे गाली देना हुआ। आखिर दुनिया से मोह तो सभी को होता है।

मूल रचनाधर्मी ने इस पर एक पोस्ट भी लगाई। लेकिन यह उनका बड़प्पन था कि उन्होंने वो पोस्ट निकाल दी। क्योंकि वो विवाद से बचना चाहते थे।

बहुधा यह देखा गया है कि हर व्यक्ति अपने को महाविद्वान समझता है, लेकिन यह भी सत्य है कि रचनाकार की सोच तक प्रकाशक या पाठक कभी नही पहुँच सकता है। अतः यदि हम किसी रचनाकार की रचना अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर रहे हैं तो उसमें जब तक मूल रचनाधर्मी की इजाजत न ले लें, तक तक उसमें अपनी ओर से कुछ भी न घटाएँ न बढ़ायें।

उदाहरण के लिए रचनाकार पर भाई रवि रतलामी कभी किसी रचनाकार की रचना के साथ छेड़-खानी नही करते हैं। इसीलिए वो विवादों से आज तक पाक-साफ रहे हैं।

मित्रो! मेरी इस पोस्ट को आप विवाद या चुनौती के रूप में न लें। इस लेख को लिखने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि यदि कुछ क्षण निकाल कर आत्म-मन्थन कर लें तो बेहतर होगा।

मैं भी एक सामान्य मानव ही हूँ हो सकता है कि इसमें मेरी सोच भी कही गलत हो सकती है।

शुक्रवार, मई 29, 2009

‘‘पुण्य तिथि पर विशेष’’ अन्तिम कड़ी (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

धन्य-धन्य तुमवीर जवाहर, धन्य तुम्हारी माता।
जुड़ा रहेगा जन-गण-मन से, सदा तुहारा नाता।
पण्डित जवाहरलाल की बहिनें भी देश के इस कार्य में कभी पीछे नही रहीं। स्वतन्त्रता की लड़ाई में उन्होंने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया। भारत भूमि को दासता से मुक्त कराने के लिए उन्होंने भी यातनाएँ सहीं।
पं0 नेहरु के ही शब्दों में............
"मेरी बहिनों की गिरफ्तारी के बाद शीघ्र ही कुछ युवती लड़कियाँ जिनमें से अधिकांश 15 या 16 वर्ष की थीं। इलाहाबाद में इस बात पर गौर करने के लिए इकट्ठा हुई थी कि अब क्या करना चाहिए। उन्हें कोई अनुभव तो था ही नही। उनमें जोश था और वो सलाह लेना चाहतीं थीं कि हम क्या करें, लेकिन आज वे प्राइवेट घर में बैठी बाते कर रहीं थीं, गिरफ्तार कर ली गयीं। हरेक को दो-दो साल की सख्त कैद की सजा दी गयी, यह तो उन छोटी-छोटी घटनाओं में से एक थी, जो उन दिनों आये दिन हिन्दुस्तान भर में हो रही थी।जिन लड़कियों व स्त्रियों को सजा मिली, उनमें से ज्यादातर को बहुत कठिनाई पड़ी। उन्हें मर्दों से भी ज्यादा तकलीफ भुगतनी पड़ी।’’
कहानी यहीं पर खत्म नही होती, जवाहरलाल कमला जैसी पत्नी को पाकर धन्य हो गये। श्रीमती कमला नेहरू ने अपने जीवन को सुखी और आरामदायक बनाने के लिए कभी भी प्रयास नही किया। बल्कि देश सेवा में लगे अपने पति को सदैव ही देश सेवा के लिए उत्साहित किया। उसने पति के प्यार को देश सेवा के मार्ग में आड़े नही आने दिया। यह पण्डित नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में व्यस्त हो जाने के कारण वे कमला नेहरू के प्रति उदासीन हो गये थे।
उन्हीं के शब्दों में.............
‘‘हमारी शादी के बिल्कुल साथ-साथ देश की राजनीति में अनेक घटनायें हुईं और उनकी ओर मेरा झुकाव बढ़ता गया। वे होमरूल के दिन थे। इसके पीछे पंजाब में फौरन ही मार्शल-ला और असहयोग का जमाना आया और मैं सार्वजनिक कार्यो की आँधी में अधिकाधिक फँसता ही गया। इन कार्यो से मेरी तल्लीनता इतनी बढ़ गयी थी, ठीक उस समय जबकि उसे मेरे पूरे सहयोग की आवश्यकता थी।’’
श्रीमती कमला नेहरू ने अस्वस्थ होते हुए भी सत्याग्रह आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। मेरी कहानी में पं0 जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं-
‘‘इसके बाद उसकी बीमारी का दौर शुरू हुआ और मेरा लम्बा जेल निवास। हम केवल जेल की मुलाकात के समय ही मिल पाते थे।..............और उसे स्वयं जेल जाने पर बड़ी खुशी हुई। बीमारी के दिनों में श्रीमती कमला नेहरू को अपने स्वास्क्य की नही बल्कि देश की चिन्ता थी। नेहरू जी के शब्दों में............ ‘‘राष्ट्रीय युद्ध में पूरा हिस्सा लेने में अशक्त हो जाने के कारण उसकी तेजस्वी आत्मा छटपटाती रहती थी।...........नतीजा यह हुआ कि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहने वाली आग ने उसके शरीर को खा लिया।’’
अपनी मृत्यु के पश्चात भी शायद वे नेहरू जी को कुछ यों सात्वना दे गयीं।
स्वयं काट कर जीर्ण ध्यान को, दूर फेंक देती तलवार।
इसी तरह चोला अपना यह, रख देता है जीव उतार।।
नेहरू जी की प्यारी बेटी इन्दु! हाँ अपनी माता तथा दादी माँ के संस्कारों में पली इन्दुने तो भारतवासियों को एक ऐसा प्रकाश दिया, जिसमें भारत सदियों तक चमकता व दमकता रहेगा। आकाश के चन्द्रमा की भाँतिभारत की इस प्रियदर्शिनी इन्दिरा की त्याग व बलिदान की कहानी कहने में तो लेखनी व शब्द दोनों ही अपने को असहाय अनुभव करते हैं। वह देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे माता-पिता की गोद में पली तथा भारत माता की सेवा करते उसकी गोद में हमेशा-हमेशा के लिए सो गयी।
जब-जब भी भारत का नाम लिया जायेगा, पं0 जवाहर लाल नेहरू का नाम कभी विस्मृत नही किया जा सकता। साथ ही उनकी माँ, बहिन, पत्नी व पुत्री के नाम को देशवासी ही नही अपितु विश्व के लोग भी सदा आदर के साथ श्रद्धा से याद करते रहेंगे।
(मेरा यह लेख 14 नवम्बर सन् 1989 को उत्तर उजाला, नैनीताल से
प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था ‘‘देश सेवा हेतु समर्पित नेहरू परिवार’’)

कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।

मैंने Napptol.com को Order number- 5642977
order date- 23-12-1012 को xelectron resistive SIM calling tablet WS777 का आर्डर किया था। जिसकी डिलीवरी मुझे Delivery date- 11-01-2013 को प्राप्त हुई। इस टैब-पी.सी में मुझे निम्न कमियाँ मिली-
1- Camera is not working.
2- U-Tube is not working.
3- Skype is not working.
4- Google Map is not working.
5- Navigation is not working.
6- in this product found only one camera. Back side camera is not in this product. but product advertisement says this product has 2 cameras.
7- Wi-Fi singals quality is very poor.
8- The battery charger of this product (xelectron resistive SIM calling tablet WS777) has stopped work dated 12-01-2013 3p.m. 9- So this product is useless to me.
10- Napptol.com cheating me.
विनीत जी!!
आपने मेरी शिकायत पर करोई ध्यान नहीं दिया!
नापतोल के विश्वास पर मैंने यह टैबलेट पी.सी. आपके चैनल से खरीदा था!
मैंने इस पर एक आलेख अपने ब्लॉग "धरा के रंग" पर लगाया था!

"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

जिस पर मुझे कई कमेंट मिले हैं, जिनमें से एक यह भी है-
Sriprakash Dimri – (January 22, 2013 at 5:39 PM)

शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी
नापतोल डाट काम से कार के लिए वैक्यूम क्लीनर ऑनलाइन शापिंग से खरीदा ...
जो की कभी भी नहीं चला ....ईमेल से इनके फोरम में शिकायत करना के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला ..
.हंसी का पात्र बना ..अर्थ हानि के बाद भी आधुनिक नहीं आलसी कहलाया .....
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मान्यवर,
मैंने आपको चेतावनी दी थी कि यदि आप 15 दिनों के भीतर मेरा प्रोड्कट नहीं बदलेंगे तो मैं
अपने सभी 21 ब्लॉग्स पर आपका पर्दाफास करूँगा।
यह अवधि 26 जनवरी 2013 को समाप्त हो रही है।
अतः 27 जनवरी को मैं अपने सभी ब्लॉगों और अपनी फेसबुक, ट्वीटर, यू-ट्यूब, ऑरकुट पर
आपके घटिया समान बेचने
और भारत की भोली-भाली जनता को ठगने का विज्ञापन प्रकाशित करूँगा।
जिसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे।
इत्तला जानें।