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गुरुवार, सितंबर 09, 2010
"जरूरत है एक अदद महापुरुष की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

शुक्रवार, जून 11, 2010
क्या सच्चा वैदिक धर्म यही है ? (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“मेरी निजी विचारधारा”
![]() वैदिक विचारधारा क्या है? इस पर हमें गहराई से सोचना होगा। उत्तर एक ही है कि ‘वेदो अखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात वेद ही सब धर्मो का मूल है। जब वेद ही सब धर्मों का मूल है तो फिर विभिन्न धर्मों में एक रूपता क्यों नही है। वेद में तो केवल ईश्वर के निराकार रूप का की वर्णन है। फिर मूर्तिपूजा का औचित्य है? महर्षि स्वामी देव दयानन्द घोर मूर्तिपूजक परिवार से थे, लेकिन उन्होंने मूर्तिपूजा का घोर विरोध किया और वेदों में वर्णित धर्म के सच्चे रूप को लोगों के सामने प्रस्तुत किया। हमारे इतिहास-पुरूष भी निर्विकार पूजा को श्रेष्ठ मानते हैं परन्तु साथ ही साथ साकार पूजा के भी प्रबल पक्षधर हैं। कारण स्पष्ट है आज धर्म को लोगों ने आजीविका से से जोड़ लिया है। पहला उदाहरण-परम श्रद्धेय आचार्य श्रीराम लगातार 25 वर्षों तक स्वामी दयानन्द के मिशन आर्य समाज से मथुरा में जुड़े रहे। परन्तु वहाँ मूर्ति पूजा थी ही नही । अतः उन्होंने अपने मन से एक कल्पित गायत्री माता की मूर्ति बना ली और शान्ति कुंज का अपना मिशन हरद्वार में बना लिया। जबकि वेदों में एक छन्द का नाम ‘गायत्री’ है। दूसरा उदाहरण- स्वामी दिव्यानन्द ने आर्य समाज को छोड़कर श्री राम शरणम् मिशन बनाया। तीसरा उदाहरण आचार्य सुधांशु जी महाराज ने आर्य समाज का उपदेशक पद छोड़ कर ओम् नमः शिवाय का सहारा ले लिया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। लेकिन आजीविका का रास्ता ढूँढने की होड़ में इन्होंने वैदिक धर्म का स्वरूप ही बदल कर रख दिया। हाँ एक बात इनके प्रवचनों में आज भी दिखाई देती है । वह यह है कि ये लोग आज भी बात तर्क संगत कहते हैं। अनकी विचारधारा में अधिकतम छाप आर्य समाज की ही है। लेकिन चढ़ावा बिना गुजर नही होने के कारण इन्होंने उसमें मूर्तिपूजा का पुट डाल दिया है। आज सभी ‘ओम जय जगदीश हरे की आरती बड़े प्रेम से मग्न हो कर गाते हैं परन्तु यह आरती केवल गाने भर तक ही सीमित हो गयी है। यदि उसके अर्थ पर गौर करें तो- इसमे एक पंक्ति है ‘ तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति’ कभी सोचा है कि इसका अर्थ क्या है? सीधा सा अर्थ है-हे प्रभू तुम दिखाई नही देते हो, तुम हो एक लेकिन पूजा में रखे हुए हैं ‘अनेक’। आगे की एक पंक्ति में है- ‘.......तुम पालनकर्ता’ लेकिन इस पालन कर्ता की मूर्ति बनाकर स्वयं उसको भोग लगा रहे हैं अर्थात् खिला रहे हैं। क्या यही वास्तविक पूजा है? क्या यही सच्चा वैदिक धर्म का स्वरूप है। सच तो यह है कि हम पूजा पाठ की आड़ में अकर्मण्य बनते जा रहे हैं। दुकान पर लाला जी सबसे पहले पूजा करते हैं और पहला ग्राहक आते ही उसे ठग लेते हैं। शाम को फिर पूजा करते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो हमने आज जो झूठ बोलने के पाप कर्म किये हैं उनको क्षमा कर देना। क्योंकि हमारे धर्माचार्यों ने उनके मन में यह कूट-कूट कर भर दिया है कि ईश्वर पापों को क्षमा कर देते हैं। काश् यह भी समझा दिया होता कि ईश्वर का नाम रुद्र भी है। जो दुष्टों को रुलाता भी है। खैर अब आवश्यकता इस बात की है कि फिर कोई महापुरुष भारत में जन्म ले और वैदिक धर्म की सच्ची राह दिखाये। जहाँ चाह है वहाँ राह है। एक आशा है कि युग अवश्य बदलेगा। |
शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009
"संस्कृति एवं सभ्यता----2" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
बुधवार, दिसंबर 16, 2009
"संस्कृति एवं सभ्यता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
किम् संस्कतिः?
(संस्कृति क्या है?)
या सम्यक् क्रियते सा संस्कृतिः।
(जो सम्यक् (भद्र) किया जाता है, वह संस्कृति है।)
अब प्रश्न उठता है कि - सम्यक् क्या है?
किसी कार्य को करने से पहले यदि उत्साह, निर्भीकता और शंका न उत्पन्न हो तो उसे सम्यक् कहा जायेगा और शंका,भय और लज्जा उत्पन्न हो तो वह सम्यक् अर्थात् भद्र नही कहा जा सकता।
ओम् अच्छिन्नस्यते देव सों सुवीर्यस्य
रायस्पोषस्य दद्तारः स्याम।
सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्वारा
स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः।। (यजुर्वेद 7 । 14)
(अर्थ- हे सोमदेव, शान्ति प्रदाता, दिव्यगुण युक्त परमेश्वर! आपसे प्राप्त अच्छिन्न और सुवीर्ययुक्त पोषण करने वाले धन को देने वाले होवें, वह प्रथमा संस्कृति है, जिसको संसार ने स्वीकार किया था। प्रथम मित्र (अवगुणों को दूर करने वाला) और वरुण (सद् गुणों को देने वाला) वह अग्नि है जो सदा आगे ले जाने वाला (अग्रेनयति) और ऊपर ले जाने वाला (ऊर्ध्व गमयति) है।)
यजुर्वेद के उपरोक्त मन्त्र मे कहा गया है कि-
संस्कृति एक है क्योंकि इस मन्त्र मे संस्कृति का एक वचन मे प्रयोग किया गया है।
संस्कृति के साथ किसी विशेषण का प्रयोग नही हुआ है अर्थात् संस्कृति का कोई विशेषण नही होता है।
अच्छिन्न है अर्थात् संस्कृति में कोई छेद नही होता है। छिद्ररहित होने के कारण यह प्रणिमात्र के छिद्रों को दूर करती है।
वीर्य से परिपूर्ण है अर्थात् संस्कृति प्राणिमात्र को पुष्ट करती है और
संस्कृति का प्रमुख लक्षण है कि यह देने वाली है।
अब आप मनन और विचार कीजिए कि-
1- संस्कृति एक है तो संसार में अनेक संस्कृतियों की चर्चा क्यों की जाती है?
2- संस्कृति का कोई विशेषण नही है अर्थात् संस्कृति किसी नाम से नही पुकारी जाती है तो देश भेद से भारतीय संस्कृति, योरोपीय संस्कृति, अमेरिकन...,चीनी.....और मत मतान्तर भेद से हिन्दु संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, ईसाई संस्कृति आदि पुकारने का क्या औचित्य है?
3- संस्कृति में छिद्र नहीं है तो - प्रत्येक मत-मतान्तर तथाकथित अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ क्यों मानते हैं?
4- संस्कृति सबका पोषण करने वाली है तो प्रत्येक पदार्थ में मिलावट करके प्राणियों को नष्ट करने का उपक्रम तथाकथित संस्कृति वाले क्यों कर रहे हैं?
5- दान प्रत्येक मानव का अनिवार्य कर्तव्य है तो लोग भीख, जुआँ, चोरी आदि क्यों करते हैं?...........
क्रमशः..............
मंगलवार, अक्टूबर 20, 2009
"नानकमत्ता साहिब का दिवाली मेला" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
आपको सौभाग्य प्राप्त हो जायेगा।
गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब उत्तराखण्ड के जिला-ऊधमसिंहनगर में स्थित है। यह दिल्ली से 275 किमी दूर है तथा मुरादाबाद से 130 किमी दूर है। अन्तिम रेलवे स्टेशन रुद्रपुर-सिटी और छोटी लाइन का स्टेशन खटीमा या किच्छा है।
यह रुद्रपुर-सिटी से 58 किमी, खटीमा से 16 किमी तथा किच्छा से 38 किमी है।
बुधवार, सितंबर 16, 2009
‘‘हिन्दी संयुक्ताक्षर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
यदि संयुक्ताक्षर शब्द के अर्थ पर ध्यान दें तो संयुक्त + अक्षर। अर्थात् दो या दो से अधिक अक्षरों के मेल से बने अक्षरों को संयुक्ताक्षर कहते हैं। देखने में यह आया है कि विद्वानों ने ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ को तो हिन्दी वर्णमाला में सम्मिलित करके या तो इन्हें प्रिय मान लिया है या इन्हें संयुक्ताक्षर की परिधि से पृथक कर दिया है। यह मैं आज तक समझ नही पाया हूँ। जबकि संयुक्ताक्षरों की तो हिन्दी में भरमार है। फिर ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ को हिन्दी वर्णमाला में क्यों पढ़ाया जा रहा है? कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी का ज्ञान प्राप्त करने वाला विद्यार्थी कभी इनकी तह में जाने का प्रयास ही नही करता है। इसीलिए आज इनका उच्चारण भी दूषित हो गया है। क् + ष = क्ष, इसका उच्चारण आज ‘‘छ’’ ही होने लगा है। त् + र = त्र, इसकी सन्धि पर किसी का ध्यान ही नही है और ज् + ञ = ज्ञ, सबसे अधिक दयनीय स्थिति तो ‘‘ज्ञ’’ की है। ‘‘ज्ञ’’ का उच्चारण तो लगभग ९९.९९ प्रतिशत लोग ‘‘ग्य’’ के रूप में करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह पढ़े-लिखे लोग हिन्दी की वैज्ञानिकता को झुठलाने लगे हैं। आखिर इस स्थिति का जिम्मेदार कौन हैं? मैं इसका यदि सीधा-सपाट उत्तर दूँ तो- इसकी जिम्मेदार केवल और केवल ‘‘अंग्रेजी’’ है। उदाहरण के लिए यदि ‘‘विज्ञान’’ को रोमन अंग्रेजी में लिखा जाये तो VIGYAN विग्यान ही लिखा जायेगा। यही हमारे रोम-रोम में व्याप्त हो गया है। आज आवश्यकता है कि हिन्दी वर्णमाला में से ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ संयुक्ताक्षरों को बाहर कर दिया जाये। तभी तो संयुक्ताक्षरों का मर्म हिन्दी शिक्षार्थियों की समझ में आयेगा। तब अन्य संयुक्ताक्षरों के साथ - घ् + र = घ्र, घ् + न = घ्न, ष् + ट = ष्ट, आदि के साथ क + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ और श् + र = श्र सिखाया जा सकेगा। |
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शुक्रवार, सितंबर 11, 2009
"बूढ़े तोते ब्लॉगिग सीख रहे हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मंगलवार, अगस्त 25, 2009
‘‘पीठ और छाती का अन्तर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
विषय इतना जटिल है कि सोच रहा हूँ कि इसकी शरूआत कहाँ से करूँ। पहाड़ मेरा घर है और इसके ठीक नीचे बसा हुआ मैदान मेरा आँगन है। जिन दिनों सरदी कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र से बहुत सारे बच्चे इन मैदानी भागों में नौकरी करने के लिए आ जाते हैं। ये अक्सर घरों या होटलों में साफ-सफाई करते या झूठे बरतन बलते हुए देखे जा सकते हैं। इनकी उम्र 10 साल से 12 साल के बीच होती है। बड़े होने पर ये दिल्ली या बम्बई जैसे महानगरों में पलायन कर जाते हैं। क्या कारण है कि इन बालकों को घर से बिल्कुल भी मोह नही होता है? जबकि हमारे घरों के बालक माता-पिता से इतना मोह रखते हैं कि विवाह होने तक माता-पिता और घर को छोड़ने की कल्पना भी नही कर सकते। मैंने जब गहराई से इस पर विचार किया तो बात समझ में आ गई। मैं नेपाल देश के बिल्कुल करीब में रहता हूँ। ![]() जहाँ माताएँ अपने एक महीने के बालक को भी पीठ से बाँध कर चलती हैं। जबकि हमारे घरों की माताएँ अपने दो वर्ष के बच्चे को भी अपनी छाती के साथ लगा कर रखती है। यदि कहीं जायेगी तो वो बच्चे को सीने से लगा कर ही चलेंगी। ![]() बस यही तो अन्तर होता है, छाती से लगा कर पले बालकों और पीठ के पले बालकों में। छाती से लगा कर पले बालक हृदय के करीब होते हैं और पीठ के पले बालक हृदय के दूर होते हैं। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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गुरुवार, अगस्त 20, 2009
"हिन्दी-व्याकरण" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
बहुत समय से हिन्दी व्याकरण पर कुछ लिखने का मन बना रहा था। परन्तु सोच रहा था कि लेख प्रारम्भ कहाँ से करूँ। आज इस लेख की शुभारम्भ हिन्दी वर्ण-माला से ही करता हूँ। मुझे खटीमा (उत्तराखण्ड) में छोटे बच्चों का विद्यालय चलाते हुए 25 वर्षों से अधिक का समय हो गया है। शिशु कक्षा से ही हिन्दी वर्णमाला पढ़ाई जाती है। हिन्दी स्वर हैं- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ए ऐ ओ औ अं अः। यहाँ तक तो सब ठीक-ठाक ही लगता है। लेकिन जब व्यञ्जन की बात आती है तो इसमें मुझे कुछ कमियाँ दिखाई देती हैं। शुरू-शुरू में- क ख ग घ ड.। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न। प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह। क्ष त्र ज्ञ। पढ़ाया जाता है। जो आज भी सभी विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। उन दिनों एक दिन कक्षा-प्रथम के एक बालक ने मुझसे एक प्रश्न किया कि ड और ढ तो ठीक है परन्तु गुरू जी! यह ड़ और ढ़ कहाँ से आ गया? कल तक तो पढ़ाया नही गया था। प्रश्न विचारणीय था। अतः अब 20 वर्षों से- ट ठ ड ड़ ढ ढ़ ण। मैं अपने विद्यालय में पढ़वा रहा हूँ। आज तक हिन्दी के किसी विद्वान ने इसमें सुधार करने का प्रयास नही किया। आजकल एक नई परिपाटी एन0सी0ई0आर0टी0 ने निकाली है। इसके पुस्तक रचयिताओं ने आधा अक्षर हटा कर केवल बिन्दी से ही काम चलाना शुरू कर दिया है। यानि व्याकरण का सत्यानाश कर दिया है। हिन्दी व्यंजनों में- कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अन्तस्थ और ऊष्म का तो ज्ञान ही नही कराया जाता है। फिर आधे अक्षर का प्रयोग करना कहाँ से आयेगा? हम तो बताते-बताते, लिखते-लिखते थक गये हैं परन्तु कहीं कोई सुनवाई नही है। इसीलिए हिन्दुस्तानियों की हिन्दी सबसे खराब है। बिन्दु की जगह यदि आधा अक्षर प्रयोग में लाया जाये तभी तो नियमों का भी ज्ञान होगा। अन्यथा आधे अक्षर का प्रयोग करना तो आयेगा ही नही। सत्य पूछा जाये तो अधिकांश हिन्दी की मास्टर डिग्री लिए हुए लोग भी आधे अक्षर के प्रयोग को नही जानते हैं। नियम बड़ा सीधा और सरल सा है- किसी भी परिवार में अपने कुल के बालक को ही चड्ढी लिया जाता है यानि पीठ पर बैठाया जाता है। अतः यदि आधे अक्षर को प्रयोग में लाना है तो जिस कुल या वर्ग का अक्षर बिन्दी के अन्त में आता है उसी कुल या वर्ग व्यंजन का अन्त का यानि पंचमाक्षर आधे अक्षर के रूप में प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए - झण्डा लिखते हैं तो इसमें ण का आधा अक्षर ड की पीठ पर बैठा है। अर्थात टवर्ग का ही ड अक्षर है। इसलिए आधे अक्षर के रूप में इसी वर्ग का ण का आधा अक्षर प्रयोग में लाना सही होगा। परन्तु आजकल तो बिन्दी से ही झंडा लिखकर काम चला लेते है। फिर व्याकरण का ज्ञान कैसे होगा? इसी तरह मन्द लिखना है तो इसे अगर मंद लिखेंगे तो यह तो व्याकरण की दृष्टि से गलत हो जायेगा। अब बात आती है संयुक्ताक्षर की- जैसा कि नाम से ही ज्ञात हो रहा है कि ये अक्षर तो दो वर्णो को मिला कर बने हैं। इसलिए इन्हें वर्णमाला में किसी भी दृष्टि से सम्मिलित करना उचित नही है। समय मिला तो अगली बार कई मित्रों की माँग पर हिन्दी में कविता लिखने वाले अपने मित्रों के लिए गणों की चर्चा अवश्य करूँगा। |
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शनिवार, जुलाई 18, 2009
‘‘चम्पावत जिले की सुरम्य वादियाँ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, जुलाई 14, 2009
‘‘नानक सागर डाम’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, जुलाई 11, 2009
‘‘गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
नानकमत्ता में गुरू नानक देव जी की सिद्धों से बहुत ठन चुकी थी। क्योंकि गुरू नानक देव जी अपने सेवादारों के साथ यहाँ आये हुए थे और गुरू गोरखनाथ के शिष्यों को यह गवारा नही था। ![]() सिद्धों ने अपने योग बल से यहाँ का पानी सुखा दिया था। जब बाला मरदाना को प्यास लगी तो पीने को पानी नही था। तब गुरू नानक देव ने फावड़ा मार कर फावड़ी गंगा की धारा प्रकट की। वो स्थान आज भी मौजूद है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यहाँ नानक सागर डाम बनवा दिया है। ![]() इसलिए यह स्थान डाम के अन्दर आ गया है परन्तु डाम पर पुल बनवा कर इस स्थान को दर्शनीय स्थान के रूप में सुरक्षित किया गया है। इसे आज बाउली साहब क रूप में जाना जाता है। एक दिन गुरू नानक देव जी क सेवादारों ने गुरू जी से निवेदन किया कि गुरू जी दूध का स्वाद बहुत दिनों से नही चखा है। आज दूध पहने की इच्छा हो रही है तो गरू जी ने एक कुएँ खुदवाया। इस कुएँ में से दूध की धारा फूट निकली। ![]() (गुरूद्वारा के साथ लगा छोटा गुम्बद दूध वाला कुआँ है) यह स्थान आज भी दूधवाले कुएँ के नाम से जाना जाता है। इस कुएँ के जल में से आज भी कच्चे दूध की महक आती है। दूर-दूर से लोग इसका जल भर कर अपने घरों को ले जाते हैं। गंगा जल के समान ही इस जल को पवित्र माना जाता है। कहा जाता है कि इस जल का पान करने से बहुत सी असाध्य बीमारियों से मुक्ति मिलती है। इसके साथ लगे गुरूद्वारे में अमृत भी छकाया जाता है। |
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गुरुवार, जुलाई 09, 2009
‘‘नानकमत्ता साहिब-एक ऐतिहासिक गुरूद्वारा’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
![]() सिख पन्थ के प्रथम गुरू ‘‘गुरू नानक देव’’ सिर्फ एक ऐतिहासिक पुरूष ही नही थे। वे सत्य के प्रकाशक और एक समाज सुधारक भी थे। ![]() उनके समय में गुरू गोरक्षनाथ के शिष्यों का बोल बाला था। जो अपने चमत्कार जनता को दिखाते रहते थे। उस समय आज का नानकमत्ता ‘‘सिद्ध-मत्ता’’ के नाम से जाना जाता है। इससे लगा गाँव आज भी तपेड़ा के नाम से विख्यात है। तपेड़ा अर्थात तप करने का स्थान। गुरू नानकदेव भ्रमण करते हुए यहाँ भी पहुँचे। लेकिन सिद्धों को उनका यहाँ आना अच्छा नही लगा। अतः सिद्धों ने गुरू जी को यहाँ से खदेड़ने के लिए अनेक उपाय किये। यहाँ आज भी उसी समय का पीपल का एक विशालकाय वृक्ष भी है। जो सिद्धों के जुल्मों की कहानी कह रहा है। (गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब विशाल पीपल वृक्ष का दृश्य)![]() गुरू नानक देव जी अपने दो सेवादारों के साथ इस पीपल के वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे कि सिद्धों ने अपने योग बल से इस महावृक्ष को उड़ाना शुरू कर दिया। इसकी जड़ें जमीन से 15 फीट के लगभग ऊपर उठ चुकी थी। गुरू नानक जी ने जब यह दृश्य देखा तो उन्होंने अपना हाथ का पंजा इस पेड़ पर रख दिया और पीपल का पेड़ यहीं पर रुक गया। आज भी जमीन के ऊपर इसकी जड़ें दिखाई देती हैं। अब सिद्धों ने क्रोध में आकर इस पेड़ में अपने योग बल से आग लगा दी। जिसे गुरू नानक देव ने केशर के छींटे मार कर पुनः हरा-भरा कर दिया। आज भी इस पीपल के वृक्ष के हर एक पत्ते पर केशर के निशान पाये जाते हैं। नानकमत्ता के बारे में तो बहुत सी विचित्र जानकारियाँ भरी पड़ी हैं। फिर किसी दिन इससे जुड़ा दूसरा आख्यान प्रकाशित करूँगा। |
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गुरुवार, जुलाई 02, 2009
"जमाना बहुत बदल गया है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, जून 27, 2009
‘‘कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है।’’ . रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आज लोगों को स्वाइन-फ्लू का डर सता रहा है। इससे पहले बर्ड-फ्लू फैल गया था। वह दिन दूर नही जब बकरा-फ्लू और भैंसा-फ्लू भी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लेगा। लेकिन आज तक लौकी-फ्लू, टिण्डा-फ्लू , तुरई-फ्लू, परबल--फ्लू या करेला-फ्लू का नाम नही सुना गया। इतनी बात तो तय है कि ये सारी बीमारियाँ केवल मांसाहार से ही होती हैं। भारत के ऋषि-मुनि यह समझाते-समझाते हार गये कि मांसाहार छोड़ो। आज वह समय आ गया है कि लोग स्वयं ही मांसाहार छोड़कर शाकाहारी बनने को मजबूर हो गये हैं। कुदरत की एक ही मार से दुनियाभर के होश ठिकाने आ गये। सच ही है कि कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है। |
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मंगलवार, जून 23, 2009
‘‘मोहन राकेश- एक विहंगम दृष्टि’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

गुरुवार, जून 18, 2009
‘‘विवाह-सम्बन्ध में जल्दबाजी अच्छी नही होती’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मैं प्रजापति समाज से हूँ। मेरे छोटे पुत्र ने एम.कॉम.,बी.एड. किया हुआ है। मैं उसके लिए पुत्रवधु के रूप में एक कन्या की तलाश में था। पिछले कुछ माह पूर्व एक सज्जन अपने मौसेरे भाई को साथ लेकर मेरे यहाँ पधारे। वो टेलीफोन विभाग में इंजीनियर के पद पर आसीन थे। गुजरात में कार्यरत थे। लेकिन रहने वाले बरेली के पास के किसी गाँव के थे। उनकी पुत्री ने भी एम.एससी., बी.एड. किया हुआ था। वो हमारे घरेलू वातावरण को देखकर बड़े प्रभावित हुए। अन्ततःलड़की दिखाने की तारीख तय हो गयी। हम लोग परिवार सहित लड़की देखने के लिए बरेली पहुँचे। अच्छे वातावरण में बातें हुईं। इंजीनियर साहब और उनके सगे-सम्बन्धी हम लोगों से राय माँगने लगे और साथ ही अनुनय-विनय भी करने लगे कि साहब गरीब को भी निभा लीजिए। मैंने अपने पुत्र से बात की तो उसने भी सहमति प्रकट की। परन्तु हमारी श्रीमती जी ने कहा कि इनकी बिटिया से भी तो सहमति लेनी चाहिए। अतः उनके परिवार की मौजूदगी में मेरा पुत्र और श्रीमती जी लड़की से बात करने चले गये। मेरे पुत्र ने लड़की से कहा- ‘‘क्या मैं आपको पसन्द हूँ? आपके पिता जी मुझसे मेरी राय पूछ रहे हैं।’’ लड़की ने उत्तर दिया- ‘‘इतनी जल्दी क्या है? मुझे भी सोचने का समय दो और आप भी सोचने का वक्त लो।’’ लड़की के पिता ने फिर हम लोगों से पूछा तो हमने सारी बातचीत उन्हें बताई। उन्होंने बेटी से इस विषय में बात की, लेकिन उसने हामी नही भरी। अतः विवाह सम्बन्ध करने में जल्दबाजी से काम नही लेना चाहिए। आज जमाना बहुत बदल गया है। खूब सोच-विचार कर ही विवाह सम्बन्ध तय करने चाहिए। अगर हम लोग हाँ कह देते तो पुत्र और पुत्रवधु दोनो का जीवन नर्क बन जाता। |
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बुधवार, जून 17, 2009
‘‘इस सुराज से तो अंग्रेजों का राज बहुत अच्छा था’’
आज के जमाने को देख-देखकर पुराने लोग बड़े हैरान हैं। वो अक्सर कहते हैं कि इस सुराज से तो अंग्रेजों का राज बहुत अच्छा था।
घटना आज से लगभग 80 वर्ष पुरानी होगी।
मेरे पिता जी अक्सर इस घटना को सुनाते हैं। नजीबाबाद से 5-6 किमी दूर श्रवणपुर के नाम से एक गाँव है। वहाँ मेरी बुआ जी रहतीं थी। उनके ससुर जी बड़े पराक्रमी थे। वो अपनी बिरादरी के जाने माने चैधरी थे।
उन दिनों अंग्रेजी शासन था। एक अंग्रेज आफीसर बग्घी में सवार होकर गाँव के कच्चे रास्ते से सैर करने जा रहा था। मेरी बुआ जी के ससुर ने उनको कहा कि इस रास्ते में आगे कीचड़ है। इसलिए अपनी बग्गी को आगे मत ले जाओ। नही तो कीचड़ में फँस जायेगी। लेकिन अंग्रेज नही माना और आगे बढ़ गया।
कुछ दूर पर कीचड़ में उसकी बग्घी फँस गयी। वो गाँव में आया और कुछ लोगो की मदद से अपनी बग्घी को कीचड़ में से निकलवा लाया।
अब वो सीधे मेरी बुआ जी के ससुर के पास आया और उनको 25 रुपये ईनाम स्वरूप भेंट किये। जिन्होंने उसकी बग्घी को कीचड़ से निकाला था उनको भी एक-एक रुपये का ईनाम दिया।
बाद में पता लगा कि यह आफीसर जिले का डिप्टी कलेक्टर था।
इस आफीसर ने सबसे पहला काम यह किया कि उस रोड को ऊँची करा कर उसमें खड़ंजा लगवाया।
पिता जी कहते हैं कि आज ऐसे आफीसर कहाँ हैं?
आज तो नेताओं से लेकर अधिरियों तक के मुँह खून लगा है। हर काम में कमीशन व रिश्वतखोरी का बोल-बाला है। न्याय तक में भी रिश्वत का ही सिक्का चलता है। इसीलिए गरीब आदमी को न्याय नही मिल पाता है।
इससे तो लाख गुना बेहतर अंग्रेजी राज था।
शुक्रवार, जून 12, 2009
‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जी हाँ, आप ये पढ़कर चौंकिए मत। ये तो दुनिया का दस्तूर है। एक ब्लॉगर भाई की पोस्ट आयी है। "भिक्षाम् देहि’’ इन सज्जन ने सारा दोष ब्लॉगर्स और पाठकों को दिया है। बहुत सारे शिकवे-शिकायत इस लेख में उडेल दिये हैं। लेकिन बात फिर वही आती है कि ‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’
किसी साहित्य-साधक ने बड़ा परिश्रम करके कोई पोस्ट लिखी है और उसे अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया है, तो कमेंट्स तो आयेंगे हीं। परन्तु इन कमेंट्स में यदि रचना के बारे में एक शब्द भी नही लिखा हो और केवल यह लिखा हो कि
‘‘इसे टिप्पणी न समझें, मैं अपने स्वार्थ के लिए यह लिंक लगा रहा हूँ’’
तो उस रचनाधर्मी के दिल पर क्या बीतेगी?
यह इन महोदय के अतिरिक्त आप सभी जानते हैं। क्योंकि इन्होंने सीधी सी युक्ति निकाली थी और मेरे जैसे न जाने कितने ब्लागर्स को-
‘‘इसे टिप्पणी न समझें, मैं अपने स्वार्थ के लिए यह लिंक लगा रहा हूँ’’
केवल कापी पेस्ट ही किया है। आत्म-मन्थन की तो कभी आवश्यकता ही अनुभव नही की।
मैंने तो नही लेकिन कुछ लोंगो ने इन्हें मेल के द्वारा उत्तर भी दिये, लेकिन इन्होंने उन पर कभी विचार नही किया। बल्कि पोस्ट के रूप में अपने को सही साबित करने का प्रयास किया। चलो भाई ठीक है।
कुछ ब्लॉगर्स ऐसे भी है जिन्हें टिप्पणी करके कुछ सुझाव दो तो वे उस टिप्पणी को प्रकाशित ही नही करते हैं।
बात फिर वही आती है-‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’
किसी की टिप्पणी को प्रकाशित करने अथवा न करने का अधिकार तो ब्लॉग-स्वामी के पास सुरक्षित होता ही है, लेकिन इसमें वो अक्सर ईमानदारी या दरियादिली नही दिखाते हैं।
ठीक है, अश्लील टिप्पणी हो तो इसे कदापि मत प्रकाशित करो, लेकिन मेरा मत है कि यदि सुझाव के रूप में कोई टिप्पणी आयी है तो उसे अवश्य प्रकाशित करना चाहिए।
कुछ ब्लॉगर्स अपने ब्लाग पर बाल पहेली प्रतियोगिता भी लगाते हैं और उसमें पुरस्कार देने की घोषणा भी करते हैं। मेरे पौत्र ने भी ऐसी ही एक प्रतियोगिता में भाग लिया। उसको पुरस्कार देने की घोषणा भी हुई परन्तु आज तक उसे पुरस्कार नही प्रेषित किया गया।
फिर दूसरी पहेली आयी। उसमें किसी अन्य बालक ने पुरस्कार जीता, पुरस्कार की घोषणा भी हुई तो मेरे पौत्र ने उस बालक को बधायी भेजी और साथ में निवेदन भी किया कि ‘‘ये अंकल केवल पुरस्कार देने की घोषणा भर ही करते हैं, देते किसीको भी नही हैं।’’
इस टिप्पणी को आज तक प्रकाशित नही किया गया और न ही पुरस्कार भेजा गया।
एक ब्लॉगर ने किसी अन्य ब्लॉगर की रचना बिना अनुमति लिए ही छाप दी। उसके परिचय में कुछ ऐसा लिखा जिस पर मूल रचनाकार को आपत्ति थी। इसके साथ ही लिंक लगाकर कुछ यों लिखा-
"अगर आप इनकी अन्य रचनाएँ पढ़ना चाहते हैं,
तो आपको यह दुनिया छोड़कर जाना पड़ेगा ... ... ... ।
..... ... ... ज़रा सोच-समझकर ही .........................पर क्लिक् कीजिएगा!"
इस वाक्य का क्या अर्थ होगा यह सब लोग जानते हैं, क्योंकि ये तो सीधे-सीधे गाली देना हुआ। आखिर दुनिया से मोह तो सभी को होता है।
मूल रचनाधर्मी ने इस पर एक पोस्ट भी लगाई। लेकिन यह उनका बड़प्पन था कि उन्होंने वो पोस्ट निकाल दी। क्योंकि वो विवाद से बचना चाहते थे।
बहुधा यह देखा गया है कि हर व्यक्ति अपने को महाविद्वान समझता है, लेकिन यह भी सत्य है कि रचनाकार की सोच तक प्रकाशक या पाठक कभी नही पहुँच सकता है। अतः यदि हम किसी रचनाकार की रचना अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर रहे हैं तो उसमें जब तक मूल रचनाधर्मी की इजाजत न ले लें, तक तक उसमें अपनी ओर से कुछ भी न घटाएँ न बढ़ायें।
उदाहरण के लिए रचनाकार पर भाई रवि रतलामी कभी किसी रचनाकार की रचना के साथ छेड़-खानी नही करते हैं। इसीलिए वो विवादों से आज तक पाक-साफ रहे हैं।
मित्रो! मेरी इस पोस्ट को आप विवाद या चुनौती के रूप में न लें। इस लेख को लिखने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि यदि कुछ क्षण निकाल कर आत्म-मन्थन कर लें तो बेहतर होगा।
मैं भी एक सामान्य मानव ही हूँ हो सकता है कि इसमें मेरी सोच भी कही गलत हो सकती है।
शुक्रवार, मई 29, 2009
‘‘पुण्य तिथि पर विशेष’’ अन्तिम कड़ी (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।
"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी