आज सुबह 4 बजे मेरी आँखों में एक मधुर स्वप्न तैर रहा था। स्वप्न में थे मेरे परमपूज्य श्वसुर जी और वन्दनीया सासूमाता जी!

मेरे श्वसुर बाबू जानकी प्रसाद जी रुड़की विश्वविद्यालय में आर्कीटेक्ट के पद से अवकाश प्राप्त थे। जहाँ एक ओर बाबू जी ममता की जीती जागती मूर्ति थे। वहीं दूसरी ओर माता जी श्री मोहन देवी का रौबीला स्वर होने के बावजूद बेटे-बेटियों और दामादो के प्रति अपार स्नेह मैं आज तक भूल नही पाता हूँ।

तीन वर्ष पूर्व माता जी इस संसार को छोड़कर चली गयीं और दो वर्ष पूर्व आदरणीय बाबू जी ने भी इस संसार से विदा ले ली।
माता जी के चले जाने के बाद जीवन के अन्तिम क्षणों में बाबू जी की पिछली याददाश्त तो शेष थी परन्तु वर्तमान स्मृति कमजोर हो गयी थी।
चार-चार बेटे अच्छा कमाते थे। अच्छे-अच्छे पदों पर थे। बाबू जी के पास भी एक लाख से अधिक रुपये बैंक में शेष थे। परन्तु वो सब भूल चुके थे।
जब तक याददाश्त सही सलामत थी, बाबू जी ने कभी मुझे और मेरी पत्नी को खाली हाथ विदा नही किया था।
लेकिन, जब आखिरी बार जब हम उनसे मिलने के लिए गये थे तो उन्होंने मेरी पत्नी का और मेरा माथा चूमते हुए कहा था-
‘‘मेरे पास आज तुम लोगों को देने के लिए इससे अधिक कुछ नही है।’’
मुझे याद है कि उस समय मेरा गला रुँध गया था और मैंने रुँधे हुए स्वर में उनसे कहा था-
‘‘बाबू जी हम आपको कभी नही भूल पायेंगे।’’
यही सब देख रहा था कि वह सलोना स्वप्न दूट गया और मेरी आँख खुल गयीं।
इसके बाद रोज की तरह दिनचर्या प्रारम्भ हो गयी।