“धुरन्धर साहित्यकार” |
वार्तालाप आज मेरे एक “धुरन्धर साहित्यकार” मित्र की चैट आई- धुरन्धर साहित्यकार- शास्त्री जी नमस्कार! मैं- नमस्कार जी! धुरन्धर साहित्यकार- शास्त्री जी मैंने एक रचना लिखी है, देखिए! मैं- जी अभी देखता हूँ! (दो मिनट के् बाद) धुरन्धर साहित्यकार- सर! आपने मेरी रचना देखी! मैं- जी देखी तो है! क्या आपने दोहे लिखे हैं? धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी! मैं- मात्राएँ नही गिनी क्या? धुरन्धर साहित्यकार- सर गिनी तो हैं! मैं- मित्रवर! दोहे में 24 मात्राएँ होती हैं। पहले चरण में 13 तथा दूसरे चरण में ग्यारह! धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी जानता हूँ! (उदाहरण) ( चलते-चलते थक मत जाना जी, साथी मेरा साथ निभाना जी।) मैं- इस चरण में आपने मात्राएँ तो गिन ली हैं ना! धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी! चाहे तो आप भी गिन लो! मैं- आप लघु और गुरू को तो जानते हैं ना! धुरन्धर साहित्यकार- हाँ शास्त्री जी! मैं लघु हूँ और आप गुरू है! मैं-वाह..वाह..आप तो तो वास्तव में धुरन्धर साहित्यकार हैं! धुरन्धर साहित्यकार- जी आपका आशीर्वाद है! मैं-भइया जी जिस अक्षर को बोलने में एक गुना समय लगता है वो लघु होता है और जिस को बोलने में दो गुना समय लगता है वो गुरू होता है! धुरन्धर साहित्यकार-सर जी आप बहुत अच्छे से समझाते हैं। मैंने तो उपरोक्त लाइन में केवल शब्द ही गिने थे! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! |