हम रोजाना घटनाओं को देखते हैं और उनसे नजरे बचाते हुए चले जाते है। परन्तु कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इन घटनाओं को शब्दों की माला में मोतियों की भाति पिरो लेते हैं। जिसको हम सम्वेदना के नाम से जानते हैं।
उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित "देख लूँ तो चलूँ" में ऐसी ही रोजमर्रा की घटनाओं को बाँधा गया है। जो न केवल जन-मानस को झकझोरती हैं अपितु प्रेरणा और शिक्षा भी देती है कि जीवन चलने का नाम है।
सड़क चलते पात्रों को अपने से जोड़ लेना और उनके मुँह से कही गई बातों को एक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत करना शायद समीर लाल "समीर" ही जानते हैं!
इनके द्वारा लिखे गये जीवन के अनुभव पाठकों के मन में आशा का संचार करते हैं।
29 जुलाई, 1963 को रतलाम में जन्मे और उसके बाद जबलपुर (म.प्र.) में 1999 तक पले-बढ़े समीर लाल किसी भी परिचय के मुहताज़ नहीं है। क्योंकि उन्हें पूरा हिन्दी ब्लॉग जगत ब्लॉगिंग के पुरोधा के रूप में जानता है। वर्तमान में ये कनाडा में प्रवासी है और वहाँ के प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाह के पद पर कार्यरत हैं।
आज जहाँ ब्लॉगरों में नये-नये कलात्मक रंगों से सजे ब्लॉग बनाने की होड़ लगी हुई है वहाँ पर समीर लाल समीर एक ऐसा ब्लॉगर है जिसका केवल एक ही ब्लॉग है-
"उड़न तश्तरी" http://udantashtari.blogspot.com/
जिसमें प्रकाशित अपने साहित्य स्रजन को इस साहित्यकार ने पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है।
जीवन के मोड़ पर बिखरी हुई घटनाओं को समीर लाल "समीर" ने 88 पृष्ठों की एक लघु उपन्यासिका के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। "देख लूँ तो चलूँ" की भूमिका में मेरीलैंड के प्रवासी भारतीय साहित्यकार राकेश खण्डेलवाल ने लिखा है- "...समीर एक ऐसे ही मुसाफिर हैं जो जिन्दगी के हर कदम से उठा-उठाकर कहानियाँ चुनते हैं और बड़ी खूबसूरती से उन्हें सबके सामने प्रस्तुत करते हैं।,,,,,"
वे आगे लिखते हैं
".....आज के समाज के मुद्दे, बाल मजदूरी, समलैंगिकता, पारिवारिक वातावरण, सामंजस्य, विचलित मनोवृत्तियाँ, और ओढ़ी हुईकृत्रिमताएँ किस कदर सामने आतीं हैं और उन्हें किस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि वे कहीं तो जिन्दगी का एक अहम हिस्सा बन जाती हैं और कहीं समाज के माथे पर लगे एक काले दाग की तरह नज़र आती हैं।...."
मेरे विचार से समीर लाल "समीर" ने-
जिन्दगी को
सफर की तरह लिया है
और जीवन को सफर में
भरपूर जिया है
कभी अमृत तो
कभी गरल पिया है
उन्होंने इस पुस्तक के पृष्ठ 13 पर लिखा है-
"राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिस्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं......"
इस उपन्यासिका में अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहना और पाठक ऊब न जाएँ इसलिए बीच-बीच में अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्तियों का भी समावेश इसमें किया है।
समीर लाल ने अपने लेखनी से जहाँ रोजमर्रा की चर्या को शब्दों में बाँधा है वहीं उन्होंने परदेश की पीड़ा का भी बाखूबी उल्लेख किया है।
".....वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट-चाटकर
खोखला कर दिया है...
..................
कितना मनभावन लगता है
रेल के उस वातानुकूलित
डिब्बे में बैठकर देखना.....
तालाब में कूदकर
न्हाते बच्चे,
धूल से सने पैर लिए
आम के पेड़ के नीचे
सुस्ताते ग्रामीण
उपलों पर थापी रोटी को
प्याज के साथ खाते हुए
लोग........
..................................
कभी इत्मिनान से सोचना
किसका दर्द वाकई दर्द है
जो तुमने कागज पर
उडेल दिया है.........."
कितनी पीड़ा छिपी है समीर की इस अभिव्यक्ति में।
वर्तमान परिपेक्ष्य में अपनी चिन्ता प्रकट करते हुए लेखक कहता है-
"आज तो भारत में बेटों की हालत भी ऐसी हो गई है कि वो माँ-बाप को बोझ समझने लगे हैं। मगर फिर भी थोड़ा-बहुत समाज और संस्कारों का डर है तो फर्ज़ निभा ही लेते हैं।...."
पुस्तक के अन्त में जीवन का सन्देश देते हुए समीर लिखते हैं कि-
"सबको हक है अपनी तरह जीने का...
लेकिन पूर्णविराम......?
वो मुझ पसंद नहीं फिर भी।
थमी नदी के पानी में
एक कंकड़ उछाल
हलचल देख
मुस्कराता हूँ मैं...
यह भला कहाँ मुमकिन...
फिर भी
बहा जाता हूँ मैं।।
फिर भी
बहा जाता हूँ मैं।।"
यहाँ रचनाधर्मी के कहने का तात्पर्य यही रहा होगा कि चलना ही जिन्दगी है और थमना-रुकना तो सड़ने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
मैंने "देख लूँ तो चलूँ" को एक बार तो सरसरी नजर से पढ़ा मगर मन नहीं भरा तो तो दोबारा इसे समझ-समझकर पढ़ा। कहने को यह उपन्यासिका जरूर है मगर इसमें पूरा जीवनदर्शन मुझे नज़र आया है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि "देख लूँ तो चलूँ" एक अनूठी कृति है जो मेरी कसौटी पर खरी उतरी है। इसमें
बचपन का गाँव,
बूढ़े बरगद की छाँव,
माटी के घरौंदे,
तलैय्या का पानी,
नानी की कहानी,
खेत में हुड़दंग,
होली का रंग,
....................
सभी कुछ तो है।