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बुधवार, फ़रवरी 23, 2011

"लो अपने 45 रुपये" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


कुछ दिन पूर्व खटीमा में उत्तराखण्ड के किसी राज्यमंत्री की शादी थी! जिसमें वोटर लिस्ट देखकर थोक के भाव निमन्त्रणपत्र बाँटे गये थे!
संयोगवश् गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले एक व्यक्ति को जब यह निमन्त्रण-पत्र मिला तो वह खुशी-खुशी इसमें शामिल होने के लिए चला गया!
उस समय इसकी जेब में 45 रुपये थे। इसने वह एक लिफाफे में रखकर नवदम्पत्ति मन्त्री जी को भेट कर दिये।
लगभग 20 दिन के बाद इस व्यक्ति की पुत्री की शादी थी। अतः यह भी निमन्त्रणपत्र लेकर मन्त्री जी के घर गया और अपनी पुत्री की शादी में आने का निवेदन किया। मन्त्री जी ने सहर्ष निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और शादी में आने का वचन दे दिया। लेकिन मन्त्री जी इस गरीब की पुत्री के विवाह में शामिल न हो सके।
3-4 दिन बाद यह व्यक्ति पुनः मन्त्री जी के घर गया और कहा कि आप मेरी पुत्री के विवाह में क्यों नहीं आये! जबकि में आपके विवाह में 45 रुपये लिफाफे में रखकर आपको भेटस्वरूप दे गया था!
आप नहीं आ पाये तो कम से कम लिफाफा तो वापिस भिजवा देते!
अब मन्त्री जी की बोलती बन्द हो गई। 
वे तुरन्त घर के भीतर गये और 45 रुपये लाकर उसके हाथ पर रखते हुए वोले- "लो अपने पैंतालिस रुपये।"

शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

"क्या भारतीय बदबूदार होते हैं? " (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


आज से लगभग 32 साल पुरानी बात है। उन दिनों मेरा निवास बनबसा में हुआ करता था। मैं शुरू से ही "अतिथि देवो भव" के सिद्धान्त को मानता आया हूँ।  नेपाल को जाने वाली -रोड पर  मेरा अस्पताल और निवास था। सीमा पर बसे इस कस्बे में आज भी नेपालियों की चहल-पहल रहती है। उन दिनों भी यही क्रम था। मगर शाम के 5-6 बजे चहल-पहल कम हो जाती थी और मैं इसका पूरा सदुपयोग करता था। शाम को 5-6 बजे के बीच मैं पैदल ही 3 किमी दूर बनवसा बैराज घूमने के लिए निकल जाता था।
उन दिनों मेरी मुलाकात पीटर नाम के एक अंग्रेज से हुई। जो रोज बैराज घूमने जाता था। थोड़े दिन में उससे मित्रता भी हो गई। मगर मैं उससे दूरी बना कर ही चलता था। क्योंकि उसके मुँह से सिगरेट की दुर्गन्ध आती थी।
वह भारत में रहकर टूटी-फूटी हिन्दी वोलने और समझने भी लगा था! प्रसंगवश् यहाँ यह भी उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ कि बनबसा में एक बहुत बड़ा कृषि फार्म है। जिसे गुड शैफर्ड एग्रीकल्चर मिशन के नाम से जाना जाता है। उसमें एक अनाथालय भी है। जिसमें नेपाल के निर्धन और बेसहारा बालकों को आश्रय दिया जाता है। उसे अंग्रेज लोग ही चलाते हैं। जो इन बच्चों में ईसाइयत को कूट-कूटकर भर देते हैं और उन्हें मिशनरी बना देते हैं।

अब मूल बात पीटर की कहानी पर आता हूँ।

धीरे-धीरे पीटर का आना-जाना मेरे घर में भी हो गया! 6 किमी की चहल-कदमी के बाद वह मेरे यहाँ अक्सर चाय पीता था। हम भारतीयों की मानसिकता भी विचित्र है। हम गोरी चमड़ी के लोगों को अपने से सुपर समझते हैं। मेरे मुहल्ले वाले भी अपनी इसी मानसिकता के कारण मुझे अब बहुत पहुँच वाला समझने लगे थे।
एक दिन पीटर ने मेरे यहाँ चाय पीने के बाद शौच जाने की इच्छा प्रकट की। मैंने उसे शौचालय का रास्ता बता दिया। जब वो निवृत्त होकर आया तो उसका रूमाल गीला था। शायद उसने उसे साबुन से धोया होगा।
मैंने जब उससे रूमाल गीला होने का कारण पूछा तो उसने बताया कि टुमारे ट़यलेट में टिशू पेपर नही था तो मैंने अपना हैंकी स्टेंमाल कर लिया था। लेकिन वो बहुत गंडा (गन्दा) हो गया था। इसलिए मैने इसे साबुन से धो डाला।
उसके मुँह से ऐसी बात सुनकर मुझे बहुत हँसी आई। मैंने उससे कहा कि फ्रैण्ड इतना सारा पानी टॉयलेट में था उसको तुमने प्रयोग क्यों नही किया। वह बोला कि यह हमारी कल्चर नहीं है।
अन्त में यही कहूँगा कि यह तो बिल्कुल सत्य है कि शराब, लहसुन, प्याज और तम्बाकू की गन्ध पसीने में तो आती ही है साथ ही मुँह और शरीर में भी आती है! लेकिन वो अंग्रेज जो चेन स्मोकर हैं दूसरों की परवाह ही कब करते हैं! दूसरों की सुविधा का ख्याल करना सभी का कर्तव्य होना चाहिए! 
अब आप ही अन्दाजा लगा लीजिए कि क्या सिर्फ भारतीय ही बदबूदार होते हैं या कि खुशबू के ठेकेदार विदेशी भी।

(स्पंदन SPANDAN  पर आज एक पोस्ट पढ़कर)



रविवार, फ़रवरी 06, 2011

"देख लूँ तो चलूँ"-समीर लाल "समीर" (समीक्षक-डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

      हम रोजाना घटनाओं को देखते हैं और उनसे नजरे बचाते हुए चले जाते है। परन्तु कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इन घटनाओं को शब्दों की माला में मोतियों की भाति पिरो लेते हैं। जिसको हम सम्वेदना के नाम से जानते हैं। 
उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित "देख लूँ तो चलूँ" में ऐसी ही रोजमर्रा की घटनाओं को बाँधा गया है। जो न केवल जन-मानस को झकझोरती हैं अपितु प्रेरणा और शिक्षा भी देती है कि जीवन चलने का नाम है।
     सड़क चलते पात्रों को अपने से जोड़ लेना और उनके मुँह से कही गई बातों को एक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत करना शायद समीर लाल "समीर" ही जानते हैं!
      इनके द्वारा लिखे गये जीवन के अनुभव पाठकों के मन में आशा का संचार करते हैं।
        29 जुलाई, 1963 को रतलाम में जन्मे और उसके बाद जबलपुर (म.प्र.) में 1999 तक पले-बढ़े समीर लाल किसी भी परिचय के मुहताज़ नहीं है। क्योंकि उन्हें पूरा हिन्दी ब्लॉग जगत ब्लॉगिंग के पुरोधा के रूप में जानता है। वर्तमान में ये कनाडा में प्रवासी है और वहाँ के प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाह के पद पर कार्यरत हैं।
       आज जहाँ ब्लॉगरों में नये-नये कलात्मक रंगों से सजे ब्लॉग बनाने की होड़ लगी हुई है वहाँ पर समीर लाल समीर एक ऐसा ब्लॉगर है जिसका केवल एक ही ब्लॉग है- 
"उड़न तश्तरी" http://udantashtari.blogspot.com/ 
जिसमें प्रकाशित अपने साहित्य स्रजन को इस साहित्यकार ने पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है।
        जीवन के मोड़ पर बिखरी हुई घटनाओं को समीर लाल "समीर" ने 88 पृष्ठों की एक लघु उपन्यासिका के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। "देख लूँ तो चलूँ" की भूमिका में मेरीलैंड के प्रवासी भारतीय साहित्यकार राकेश खण्डेलवाल ने लिखा है- "...समीर एक ऐसे ही मुसाफिर हैं जो जिन्दगी के हर कदम से उठा-उठाकर कहानियाँ चुनते हैं और बड़ी खूबसूरती से उन्हें सबके सामने प्रस्तुत करते हैं।,,,,," 
वे आगे लिखते हैं 
".....आज के समाज के मुद्दे, बाल मजदूरी, समलैंगिकता, पारिवारिक वातावरण, सामंजस्य, विचलित मनोवृत्तियाँ, और ओढ़ी हुईकृत्रिमताएँ किस कदर सामने आतीं हैं और उन्हें किस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि वे कहीं तो जिन्दगी का एक अहम हिस्सा बन जाती हैं और कहीं समाज के माथे पर लगे एक काले दाग की तरह नज़र आती हैं।...."
         मेरे विचार से समीर लाल "समीर" ने- 
जिन्दगी को 
सफर की तरह लिया है 
और जीवन को सफर में 
भरपूर जिया है
कभी अमृत तो
कभी गरल पिया है
         उन्होंने इस पुस्तक के पृष्ठ 13 पर लिखा है-
"राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिस्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं......"
         इस उपन्यासिका में अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहना और पाठक ऊब न जाएँ इसलिए बीच-बीच में अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्तियों का भी समावेश इसमें किया है।
        समीर लाल ने अपने लेखनी से जहाँ रोजमर्रा की चर्या को शब्दों में बाँधा है वहीं उन्होंने परदेश की पीड़ा का भी बाखूबी उल्लेख किया है।
".....वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट-चाटकर
खोखला कर दिया है...
..................
कितना मनभावन लगता है
रेल के उस वातानुकूलित
डिब्बे में बैठकर देखना.....
तालाब में कूदकर
न्हाते बच्चे,
धूल से सने पैर लिए
आम के पेड़ के नीचे
सुस्ताते ग्रामीण
उपलों पर थापी रोटी को
प्याज के साथ खाते हुए
लोग........
..................................
कभी इत्मिनान से सोचना
किसका दर्द वाकई दर्द है
जो तुमने कागज पर
उडेल दिया है.........."
       कितनी पीड़ा छिपी है समीर की इस अभिव्यक्ति में।
वर्तमान परिपेक्ष्य में अपनी चिन्ता प्रकट करते हुए लेखक कहता है-
"आज तो भारत में बेटों की हालत भी ऐसी हो गई है कि वो माँ-बाप को बोझ समझने लगे हैं। मगर फिर भी थोड़ा-बहुत समाज और संस्कारों का डर है तो फर्ज़ निभा ही लेते हैं।...."
पुस्तक के अन्त में जीवन का सन्देश देते हुए समीर लिखते हैं कि-
"सबको हक है अपनी तरह जीने का...
लेकिन पूर्णविराम......?
वो मुझ पसंद नहीं फिर भी।
थमी नदी के पानी में
एक कंकड़ उछाल
हलचल देख 
मुस्कराता हूँ मैं...
यह भला कहाँ मुमकिन...
फिर भी 
बहा जाता हूँ मैं।।
फिर भी 
बहा जाता हूँ मैं।।"
        यहाँ रचनाधर्मी के कहने का तात्पर्य यही रहा होगा कि चलना ही जिन्दगी है और थमना-रुकना तो सड़ने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
मैंने "देख लूँ तो चलूँ" को एक बार तो सरसरी नजर से पढ़ा मगर मन नहीं भरा तो तो दोबारा इसे समझ-समझकर पढ़ा। कहने को यह उपन्यासिका जरूर है मगर इसमें पूरा जीवनदर्शन मुझे नज़र आया है।
      कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि "देख लूँ तो चलूँ" एक अनूठी कृति है जो मेरी कसौटी पर खरी उतरी है। इसमें 
बचपन का गाँव,
बूढ़े बरगद की छाँव,
माटी के घरौंदे,
तलैय्या का पानी,
नानी की कहानी,
खेत में हुड़दंग,
होली का रंग, 
....................
सभी कुछ तो है।

शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011

"बधाई देने चिट्ठा जगत आ गया है" (डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक")

मित्रों!
आज 4 फरवरी है! जन्म दिन है यह मेरा। लेकिन वास्तविक नहीं है। 
4 फरवरी का जन्म दिन मुझे मेरे स्कूल के सबसे पहले अध्यापक ने दिया है। उन्होंने अभिलेखों में जो अंकित कर दिया उसे ही मेरे साथ-साथ पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया है!
आज से 54 साल पुरानी बात रही होगी। मेरे पिता श्री घासीराम आर्य जी मुझे उस समय नगर पालिका नजीबाबाद के मुहल्ला रम्पुरा में प्राईमरी पाठशाला में लेकर गये थे! मेरे प्रथम गुरू अब्दुल कय्यूम उस समय इस स्कूल के हैडमास्टर थे! 
उन्होंने पिता जी से कहा- "इस बालक की जन्म तिथि क्या लिख दूँ?" 
पिता जी ने उत्तर दिया- "आगे पढ़ाई में आयु की कोई समस्या न आये इस लिए अपने हिसाब से लिख दीजिए।"
मेरी आयु उस समय 6 वर्ष से अधिक की रही होगी, मगर मास्टर साहिब ने हिसाब लगा कर मेरी उम्र 5 वर्ष लिख दी और तब से मेरी जन्म तिथि 4 फरवरी हो गयी जो आज तक बरकरार है।
मुझे अपनी वास्तविक जन्म तिथि का 1982 तक कोई ज्ञान नहीं था मगर माता जी के बताने पर भारतीय मास, दिनवार और जन्म समय का ही पता लगता था। सन् का तो उन्हें कोई स्मरण नहीं था।
घटना 1982 की है उस समय मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग का स्थायी समिति का सदस्य था और बैठक में भाग लेने के लिए इलाहाबाद गया हुआ था। संयोग से उस दिन 4 फरवरी का ही दिन था। बैठक के पश्चात मैं माघमेला घूमने के लिए संगम तट पर गया।

मुझे पुस्तकों का शुरू से ही शौक रहा है। अतः एक बुक स्टॉल पर कुछ किताबें देखने लगा। वहाँ पर मुझे शताब्दी पंचांग की एक मोटी पोथी भी दिखाई दी। उस समय उसकी कीमत 500 रुपये थी। जो मेरे बजट से काफी अधिक थी मगर मन में ललक थी कि अपना असली जन्मदिन जानकर ही रहूँगा।
मन को मजबूत करके मैंने वह पंचांग खरीद लिया और अपनी वास्तविक जन्मतिथि खोज ही ली। लेकिन मैं यह रहस्योदघाटन कभी नहीं करूँगा कि मेरी वास्तविक जन्मतिथि क्या है?
इसका कारण यह है कि मैं अपने प्रथम गुरू मरहूम अब्दुल कय्यूम का आज भी बहुत सम्मान करता हूँ और मैं उन जन्नतनशीं गुरूदेव का लिखा हुआ अपना जन्मदिवस कभी स्वप्न में भी बदलने का विचार नहीं करूँगा।
चिट्ठाजगत
इसे भी संयोग ही कहा जाएगा कि हिन्दी चिट्ठों का प्रमुख एग्रीगेटर चिट्ठाजगत भी इस अवसर पर मुझे शुभकामनाएँ देने आ गया है।

कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।

मैंने Napptol.com को Order number- 5642977
order date- 23-12-1012 को xelectron resistive SIM calling tablet WS777 का आर्डर किया था। जिसकी डिलीवरी मुझे Delivery date- 11-01-2013 को प्राप्त हुई। इस टैब-पी.सी में मुझे निम्न कमियाँ मिली-
1- Camera is not working.
2- U-Tube is not working.
3- Skype is not working.
4- Google Map is not working.
5- Navigation is not working.
6- in this product found only one camera. Back side camera is not in this product. but product advertisement says this product has 2 cameras.
7- Wi-Fi singals quality is very poor.
8- The battery charger of this product (xelectron resistive SIM calling tablet WS777) has stopped work dated 12-01-2013 3p.m. 9- So this product is useless to me.
10- Napptol.com cheating me.
विनीत जी!!
आपने मेरी शिकायत पर करोई ध्यान नहीं दिया!
नापतोल के विश्वास पर मैंने यह टैबलेट पी.सी. आपके चैनल से खरीदा था!
मैंने इस पर एक आलेख अपने ब्लॉग "धरा के रंग" पर लगाया था!

"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

जिस पर मुझे कई कमेंट मिले हैं, जिनमें से एक यह भी है-
Sriprakash Dimri – (January 22, 2013 at 5:39 PM)

शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी
नापतोल डाट काम से कार के लिए वैक्यूम क्लीनर ऑनलाइन शापिंग से खरीदा ...
जो की कभी भी नहीं चला ....ईमेल से इनके फोरम में शिकायत करना के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला ..
.हंसी का पात्र बना ..अर्थ हानि के बाद भी आधुनिक नहीं आलसी कहलाया .....
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मान्यवर,
मैंने आपको चेतावनी दी थी कि यदि आप 15 दिनों के भीतर मेरा प्रोड्कट नहीं बदलेंगे तो मैं
अपने सभी 21 ब्लॉग्स पर आपका पर्दाफास करूँगा।
यह अवधि 26 जनवरी 2013 को समाप्त हो रही है।
अतः 27 जनवरी को मैं अपने सभी ब्लॉगों और अपनी फेसबुक, ट्वीटर, यू-ट्यूब, ऑरकुट पर
आपके घटिया समान बेचने
और भारत की भोली-भाली जनता को ठगने का विज्ञापन प्रकाशित करूँगा।
जिसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे।
इत्तला जानें।