"संस्कृति एवं सभ्यता" गतांक से आगे....5- दान प्रत्येक मानव का अनिवार्य कर्तव्य है तो लोग भीख, जुआँ, चोरी आदि क्यों करते हैं?..........
मनुष्य प्रजापति के पास गये और उनसे प्रार्थना की-
"महाराज! हमें उपदेश कीजिए।"
प्रजापति ने कहा-
"दान दिया करो, यही संस्कृति है।"
धन की तीन गति हैं-"दान, भोग और नाश।"
जो लोग न दान करते हैं, न भोग करते हैं। उनके धन का नाश हो जाता है। ऐसे धन को या तो चोर चुरा लेते हैं, या अग्नि में दहन हो जाता है , या राजदण्ड में चला जाता है।
दान देते रहना चाहिए, दान देने से धन घटता नही है। जैसे कुएँ का पानी बराबर निकालते रहने से कम नही होता है। यदि उसमें से पानी निकालना बन्द कर दिया जाय तो पानी सड़ जाता है।
जिस घर में वायु आने का एक ही द्वार है, निकलने का नही है तो उस घर में वायु नही आती है।
"यावद् भ्रियेतजठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
यो अधिकमभि मन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।"
जितने से जिसका पेट भर जाये उतना ही उसका स्वत्व है। जो अधिक माँगता है वह स्तेन है, अर्थात दण्ड के योग्य है। अतः मनुष्य को दान करते रहना चाहिए।
िहृया देयम्- लज्जा से देना चाहिए, भिया देयम्-भय से देना चाहिए, संविदा देयम्- ज्ञानपूर्वक देना चाहिए। देयम्- यही हमारा प्रथम कर्तव्य है।
कुछ लोग दान लेना नही चाहते, अपितु वे उधर लेना चाहते हैं। अर्थात् जितना लेंगे, समर्थ होने पर उतना ही वापिस कर देंगे। यह कुसीद है। इस पर बढ़ाकर लेना ब्याज है, छल-कपट है-सूद है। इससे समाज नही बल्कि समज (दस्यु) बन रहा है। इसी का परिणाम है कि एक ओर असंख्य पूंजीपतियों को जन्म हो रहा है और दूसरी ओर वित्तविहीन भोजन तक के लिए तरस रहा है। यह व्यापार में लाभ के स्थान पर फायदा (प्रॉफिट) लेने के कारण हो रहा है।
लाभ लीजिए परन्तु शोषण मत कीजिए।
अब विचारिए-
क्रमशः..............
(साभार "संस्कृति एवं सभ्यता")