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शुक्रवार, मई 29, 2009
‘‘पुण्य तिथि पर विशेष’’ अन्तिम कड़ी (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, मई 28, 2009
‘‘पुण्य तिथि पर विशेष’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जवाहर लाल ने भारत को स्वतन्त्र करने के लिए जो कष्ट सहे और कुर्बानियाँ दीं उनको भला कौन भूल सकता है?
अपनी माता श्रीमती स्वरूपरानी के विषय में जवाहर लाल लिखते हैं।
‘‘इलाहाबाद में मेरी माँ उस जलूस मे थीं, जिसे पुलिस ने पहले तो रोका और फिर लाठियों से मारा। जिस वक्त जुलूस रोक दिया गया, उस वक्त किसी ने मेरी माँ के लिए एक कुर्सी ला दी। वह जुलूस के आगे उस कुर्सी पर बैठी हुई थी। कुछ लोग जिनमें मेरे सेक्रेटरी वगैरा शामिल थे और जो खास तौर पर उनकी देखभाल कर रहे थे। गिरफ्तार करके उनसे अलग कर दिये गये। मेरी माँ को धक्का देकर कुर्सी से नीचे गिरा दिया गया और उनके सिर पर लगातार बैंत मारे। जिससे उनके सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा और वो बेहोश होकर सड़क पर गिर गयीं। उस रात को इलाहाबाद में यह अफवाह उड़ गयी कि मेरी माँ का देहान्त हो गया है। यह सुन कर कुछ जनता की भीड़ ने इकट्ठे होकर पुलिस पर हमला कर दिया। वे शान्ति और अहिंसा की बात को भूल गये। पुलिस ने उन पर गोली चलाई। जिससे कुछ लोग मर गये। इस घटना के कुछ दिन बाद जब इन बातों की खबर मुझ तक पहुँची तो अपनी कमजोर और बूढ़ी माँ के खून से लथ-पथ धूलढूलाभर सड़क पर पड़ी रहने का ख्याल मुझे रह-रह कर सताने लगा.........
धीरे-धीरे वह चंगी हो गयी और जब दूसरे महीने बरेली जेल में मुझसे मिलने आयी तब उनके सिर पर पट्टी बँधी थी लेकिन उन्हें इस बात की भारी खुशी थी और महान गर्व था कि वह हमारे स्वयं-सेवकों और सवयं-सेविकाओं के साथ बैंतों और लाठियों की मार खाने के सम्मान से वंचित नही रहीं।’’
स्वतन्त्र भारत के निर्माता पं.जवाहर लाल नेहरू को शत्-शत् नमन।
क्रमशः...............।
बुधवार, मई 27, 2009
‘‘................और रेखा छोटी हो गयी’’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, मई 26, 2009
‘‘सच्चा शिष्य’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बहुत पुरानी बात है। एक विद्वान आचार्य थे। उनका एक गुरूकुल था।
प्राचीन काल में आचार्य विद्याथियों को निशुल्क शिक्षा दिया करते थे।
एक दिन आचार्य जी ने गुरूकुल के सारे विद्यार्थियों को अपने पास बुलाया और कहा-
‘‘प्रिय विद्यार्थियों मेरी कन्या विवाह योग्य हो गयी है। परन्तु इसका विवाह करने के लिए मेरे पास धन नही है। मेरी समझ में नही आ रहा है कि कैसे इसका विवाह करूँ।’’
कुछ विद्यार्थी जिनके माता-पिता धनवान थे।
उनसे बोले- ‘‘गुरू जी! हम लोग अपने माता‘पिता से कह कर आपको धन दिलवा देंगे।’’
आचार्य जी बोले- ‘‘शिष्यों! मुझे संकोच होता है, मैं लालची आचार्य नही कहाना चाहता।’’ फिर बोले कि मैं अपनी पुत्री का विवाह अपने शिष्यों के धन से ही करना चाहता हूँ। परन्तु ध्यान रहे कि तुममे से कोई भी धन माँग कर नही लायेगा। जो विद्यार्थी धनी परिवारों के नही थे उनसे आचार्य जी ने कहा कि तुम लोग भी अपने घरों से कुछ न कुछ ले आना परन्तु किसी को पता नही लगना चाहिए और उस वस्तु पर किसी की दृष्टि भी नही पड़नी चाहिए।"
कुछ ही दिनों में आचार्य जी के पास पर्याप्त धन व वस्तुएँ एकत्रित हो गयी।
तभी आचार्य जी के पास एक अत्यन्त धनी परिवार का शिष्य आकर बोला-
‘‘आचार्य जी मेरे घर में किसी प्रकार की कमी नही है, परन्तु मैं आपके लिए कुछ भी नही ला पाया हूँ।’’
आचार्य जी बोले- ‘‘ क्यों ? क्या तुम गुरू की सेवा नही करना चाहते हो?’’
शिष्य ने उत्तर दिया- ‘‘नही गुरू जी! ऐसी बात नही है। आपने ही तो कहा था कि कोई वस्तु या धन लाते हुए किसी को पता नही लगना चाहिए और उस वस्तु पर किसी की दृष्टि भी नही पड़नी चाहिए। मुझे वह स्थान नही मिला, जहाँ कोई देख न रहा हो।’’
आचार्य जी बोले- ‘‘तुम झूठ बोलते हो। कहीं तो कोई ऐसा समय व स्थान रहा होगा जब तुम्हें कोई देख नही रहा होगा।’’
शिष्य आँखों में आँसू भर कर बोला- ‘‘गुरू जी! ऐसा समय व स्थान तो अवश्य मिला परन्तु मैं भी तो उस समय अपने इस कृत्य को देख रहा था।’’
आचार्य जी ने उस शिष्य को गले से लगा लिया और बोले-
‘‘तू ही मेरा सच्चा शिष्य है। मुझे अपनी कन्या के लिए विवाह के लिए धन की आवश्यकता नही थी। मैं तो उसके वर के रूप में तेरे जैसा ही सदाचारी वर खोज रहा था।’’
सोमवार, मई 25, 2009
‘‘रबड़-प्लाण्ट बनाम ठा.कमलाकान्त सिंह’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
रविवार, मई 24, 2009
‘‘अपना-अपना भाग्य’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पिता जी का कारोबार तो था परन्तु खर्चे भी थे। क्योंकि पिता जी कमाने वाले अकेले थे और एक छोटी सी आढ़त की दूकान थी उनकी , नजीबाबाद में।
शादी से पूर्व मुझे देखने के लिए लडकी वाले आने वाले थे। कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था, इसलिए मैनेज करने में कोई दिक्कत नही हुई।
हम लोग लड़की वालों को पहले से ही जानते थे। वे उस समय धनाढ्य व्यक्ति थे।
हमारी हैसियत और उनके जीवन-स्तर में 1 और 10 का अन्तर था।
मेरे मुहल्ले में पड़ोस में बाबूराम नाम के लड़के की 2 माह पहले ही शादी हुई थी। हम लोग उनके यहाँ से सोफा माँग कर ले आये थे।
लड़की वाले सुबह को करीब 8 बजे आ गये। अपनी सामर्थ्य से कहीं अधिक उनकी आव-भगत की गयी। वो लोग भी बड़े खुश थे। दोपहर बाद 3 बजे की उनकी ट्रेन थी। अतः रिश्ता पक्का करके वो लोग खाना खाकर विदा हुए।
हमने भी चैन की साँस ली और पड़ोसी बाबूराम का सोफा वापिस करने की तैयारी में लग गये। सोफा कमरे से बाहर निकाल लिया गया था। बस उसे पहुँचाना बाकी था।
तभी देखा कि लड़की वाले पुनः हमारे दरवाजे पर थे। उनको देख कर हम लोग हक्के-बक्के रह गये।
कोई बहाना सूझ ही नही रहा था।
तभी मेरी बहिन बोली - ‘‘सोफा अन्दर रखवाओ ना। मैं बैठक में गोबर बाद में लीप दूँगी।"
उन्हें शादी सम्बन्धी कोई बात पूछने से रह गयी थी उसे ही तय करने के लिए ये लोग दोबारा वापिस आये थे।
खैर, पिता जी को दूकान से वापिस बुलाया गया और मेहमान आवश्यक बात करके चले गये।
पिता जी को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने माता जी को बहुत डाँटा।
शाम तक पिता जी सौ रुपये में एक शीशम का बढ़िया सोफा बैठक के लिए खरीद कर ले आये थे।
इसके बाद मेरा विवाह हो गया। बड़ी धूम-धाम से पिता जी ने मेरी शादी की थी।
उन दिनों बहुएँ सलवार-सूट ससुराल में नहीं पहनतीं थी। हमारी श्रीमती जी को शादी में भारी साड़ियाँ मिलीं थी। 2 दिन बाद इन्होंने मुझसे एक हल्की-फुलकी सूती साड़ी लाने के लिए कहा। परन्तु मेरे पास पैसे कहाँ से आते?
मैं श्रीमती जी को ना नहीं कह सका। लेकिन खाली हाथ बाजार भी तो नही जा सकता था।
उन दिनों मेरा एक मित्र था। उसके पिता जी की कपड़े की दूकान थी। मैंने उससे यह समस्या बताई तो वह मुझे अपनी दूकान पर ले गया और एक से एक बढ़िया साड़ियाँ दिखाईं। मैं कुछ संकोच करने लगा तो उसने दो अच्छी किस्म की साड़ियाँ मुझे दिला दी।
कहते हैं कि परिवार में सब अपना-अपना भाग्य साथ लेकर आते हैं। जब से मेरी पत्नी मेरे घर में आईं हैं। तब से मेरे घर में समृद्धि बढ़ती ही गयी है।
आज स्थिति यह है कि मेरी ससुराल वालों में-
और मेरे जीवन स्तर में 10-1 का अन्तर है।
इसे ही कहते हैं- अपना-अपना भाग्य।
शनिवार, मई 23, 2009
जगह का नाम खटीमा क्यों पड़ा?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
(थारू समाज के लोगों की पारम्परिक वेष-भूषा)
(खटीमा में थारू नृत्य का मंचन)
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
शुक्रवार, मई 22, 2009
‘‘न्याय मिलता तो है?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सन् 2002 का वाकया है। मेरे बड़े पुत्र नितिन ने कम्प्यूटर मिक्सिंग लैब की शुरूआत की थी। उसके लिए आन-लाइन डिजिटल मिक्सर खरीदने के लिए मैं दिल्ली गया।
जोना फोटो, चाँदनी चौक से यह मिक्सर खरीदा गया। उसका आदमी इसे लगाने के लिए खटीमा आया। लेकिन इसकी क्वालिटी बहुत ही घटिया दर्जे की थी।
मैने फोन से जोना फोटो से इसे बदलने के लिए निवेदन किया। परन्तु वह नही माना।
बाध्य होकर मुझे इसके खिलाफ उपभोक्ता फोरम में केस रजिसटर कराना पड़ा।
डेढ़ साल तक तारीखें पड़ती रही और केस हमारे पक्ष में हो गया।
अब पैसा वसूलने की बारी थी।
प्रतिवादी ने समय अवधि में पैसा नही दिया तो पुनः फोरम से निवेदन करना पड़ा।
फोरम ने इस पर संज्ञान लेते हुए कुर्की वारण्ट जारी कर दिये। प्रतिवादी ने अब फोरम में अपना वकील भेज दिया था। मामला फिर अधर मे लटक गया।
इस प्रक्रिया में एक साल और निकल गया।
खैर, निर्णय हमारे ही पक्ष में रहा। लेकिन प्रतिवादी ने इसकी अपील राज्य उपभोक्ता संरक्षण फोरम में कर दी। वहाँ भी केस डेढ़ साल तक चला। अन्त में निचली अदालत के निर्णय को बर करार रखा गया।
इसके बाद निचली अदालत से पुनः पैसा दिलाने की गुहार लगाई गयी।
जैसे-तैसे इकसठ हजार पर ब्याज मिला कर सतासी हजार के लगभग रुपये मिल गये। परन्तु पाँच साल तक केस चलता रहा, पचास हजार रुपये बरबाद हुए, शारीरिक और मानसिक परेशानी अलग रहीं।
प्रश्न यह उठता है कि क्या हर एक उपभोक्ता न्यायालय जायेगा?
यदि गया भी तो क्या पाँच वर्ष से अधिक तक मुकदमा झेल पायेगा?
एक बात तो इससे स्पष्ट हो गयी है कि आम आदमी को न्याय कभी नसीब नही होगा।
गुरुवार, मई 21, 2009
‘‘कद्दू का व्यापार’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बुधवार, मई 20, 2009
"धन्यवाद ज्ञापन"
(चित्र - रावेंद्रकुमार रवि के कैमरे से साभार)
मंगलवार, मई 19, 2009
‘‘मयंक की डायरी का पहला पन्ना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
प्रिय मित्रों!
एक निर्धन दम्पत्ति के यहाँ तीन सन्तानें थीं। वह परमात्मा से प्रार्थना करता था कि हे प्रभो! धन-दौलत तो चाहे कितनी ही दे दो परन्तु अब और सन्तान न देना।
ईश्वर ने उसकी यह अरदास कबूल कर ली। परन्तु मैं वह दशरथ हूँ जिसे इस नये ब्लॉग के रूप में मुझे एक रत्न प्राप्त हुआ है।
मैंने इसे माँ वीणापाणि का प्रसाद समझकर स्वीकार किया है। शायद माता मेरी परीक्षा लेना चाहतीं हैं।
मेरे कई मित्रों ने कहा है कि आप एक साथ तीन-तीन ब्लॉगों को कैसे मैनेज करेंगे। लेकिन मैंने चुनौती स्वीकार कर ली है।
हुआ यों कि दिन मेरे पुत्र के एक अभिन्न मित्र मेरे पास बैठे थे। पेशे से वे सिंचाई विभाग में अभियन्ता हैं। कम्प्यूटर में वो बहुत दक्ष हैं परन्तु ब्लॉगिंग में कोरे थे। उन्होंने मुझसे अपना ब्लॉग बनवाने का निवेदन किया। मैंने उनका ब्लॉग बनाना शुरू कर दिया परन्तु लॉगिन में मैं ही था। इसलिए ब्लॉग मेरे ही खाते में आ गया।
मैंने इसे तुरन्त डिलीट कर दिया। पर डैस-बोर्ड पर टोटल ब्लॉग 4 लिख कर आते थे। तीन दिखाई देते थे और एक छिपा रहता था। मुझे यह देख कर बड़ा अवसाद होता था।
इसका नाम उन्हीं अभियन्ता की मर्जी के अनुरूप पावर आफ हाइड्रो रखा गया था।
तीन दिन पूर्व मन में आया कि क्यो न मैं इस ब्लॉग का नाम बदल दूँ।
बस फिर क्या था?
इसका नाम बदल कर ‘‘मयंक’’ रख दिया गया।
अब फिर मूल बात पर आता हूँ। यदि कृत्रिम साधनों का प्रयोग करके हम लोग अपना परिवार सीमित रखते रहे तो ‘‘योगिराज कृष्ण’’ कैसे दुनियाँ मे आ पायेंगे? क्योंकि वो तो अपने माता-पिता की आठवीं सन्तान थे। आपकी सबकी शुभकामनाएँ यदि मेरे साथ रहीं तो मेरा स्वप्न 4-5 ब्लॉग और बनाने का है।
आशा है कि आप सब सुधि जनों का प्यार मुझे मिलता रहेगा।
अन्त में ब्लागवाणी तथा चिट्ठा जगत को धन्यवाद,
जिन्होंने मेरे एक निवेदन पर ही
इस ब्लॉग को कुछ ही मिनटों में अपने हृदय में स्थान दे दिया है।
‘‘चन्दा और सूरज’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
चन्दा में चाहे कितने ही, धब्बे काले-काले हों।
सूरज में चाहे कितने ही, सुख के भरे उजाले हों।
लेकिन वो चन्दा जैसी शीतलता नही दे पायेगा।
अन्तर के अनुभावों में, कोमलता नही दे पायेगा।।
सूरज में है तपन, चाँद में ठण्डक चन्दन जैसी है।
प्रेम-प्रीत के सम्वादों की, गुंजन वन्दन जैसी है।।
सूरज छा जाने पर पक्षी, नीड़ छोड़ उड़ जाते हैं।
चन्दा के आने पर, फिर अपने घर वापिस आते हैं।।
सूरज सिर्फ काम देता है, चन्दा देता है विश्राम।
तन और मन को निशा-काल में, मिलता है पूरा आराम।।
कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।
"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी