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पिता जी का कारोबार तो था परन्तु खर्चे भी थे। क्योंकि पिता जी कमाने वाले अकेले थे और एक छोटी सी आढ़त की दूकान थी उनकी , नजीबाबाद में।
शादी से पूर्व मुझे देखने के लिए लडकी वाले आने वाले थे। कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था, इसलिए मैनेज करने में कोई दिक्कत नही हुई।
हम लोग लड़की वालों को पहले से ही जानते थे। वे उस समय धनाढ्य व्यक्ति थे।
हमारी हैसियत और उनके जीवन-स्तर में 1 और 10 का अन्तर था।
मेरे मुहल्ले में पड़ोस में बाबूराम नाम के लड़के की 2 माह पहले ही शादी हुई थी। हम लोग उनके यहाँ से सोफा माँग कर ले आये थे।
लड़की वाले सुबह को करीब 8 बजे आ गये। अपनी सामर्थ्य से कहीं अधिक उनकी आव-भगत की गयी। वो लोग भी बड़े खुश थे। दोपहर बाद 3 बजे की उनकी ट्रेन थी। अतः रिश्ता पक्का करके वो लोग खाना खाकर विदा हुए।
हमने भी चैन की साँस ली और पड़ोसी बाबूराम का सोफा वापिस करने की तैयारी में लग गये। सोफा कमरे से बाहर निकाल लिया गया था। बस उसे पहुँचाना बाकी था।
तभी देखा कि लड़की वाले पुनः हमारे दरवाजे पर थे। उनको देख कर हम लोग हक्के-बक्के रह गये।
कोई बहाना सूझ ही नही रहा था।
तभी मेरी बहिन बोली - ‘‘सोफा अन्दर रखवाओ ना। मैं बैठक में गोबर बाद में लीप दूँगी।"
उन्हें शादी सम्बन्धी कोई बात पूछने से रह गयी थी उसे ही तय करने के लिए ये लोग दोबारा वापिस आये थे।
खैर, पिता जी को दूकान से वापिस बुलाया गया और मेहमान आवश्यक बात करके चले गये।
पिता जी को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने माता जी को बहुत डाँटा।
शाम तक पिता जी सौ रुपये में एक शीशम का बढ़िया सोफा बैठक के लिए खरीद कर ले आये थे।
इसके बाद मेरा विवाह हो गया। बड़ी धूम-धाम से पिता जी ने मेरी शादी की थी।
उन दिनों बहुएँ सलवार-सूट ससुराल में नहीं पहनतीं थी। हमारी श्रीमती जी को शादी में भारी साड़ियाँ मिलीं थी। 2 दिन बाद इन्होंने मुझसे एक हल्की-फुलकी सूती साड़ी लाने के लिए कहा। परन्तु मेरे पास पैसे कहाँ से आते?
मैं श्रीमती जी को ना नहीं कह सका। लेकिन खाली हाथ बाजार भी तो नही जा सकता था।
उन दिनों मेरा एक मित्र था। उसके पिता जी की कपड़े की दूकान थी। मैंने उससे यह समस्या बताई तो वह मुझे अपनी दूकान पर ले गया और एक से एक बढ़िया साड़ियाँ दिखाईं। मैं कुछ संकोच करने लगा तो उसने दो अच्छी किस्म की साड़ियाँ मुझे दिला दी।
कहते हैं कि परिवार में सब अपना-अपना भाग्य साथ लेकर आते हैं। जब से मेरी पत्नी मेरे घर में आईं हैं। तब से मेरे घर में समृद्धि बढ़ती ही गयी है।
आज स्थिति यह है कि मेरी ससुराल वालों में-
और मेरे जीवन स्तर में 10-1 का अन्तर है।
इसे ही कहते हैं- अपना-अपना भाग्य।
संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अंतिम तीन पंक्तियों ने
जवाब देंहटाएंइस अद्वितीय संस्मरण में
10-1 का अंतर ला दिया है!
आपके लेखन की सहजता तो पसंद है पर भाग्यवाद से भरे आपके दर्शन से सहमति नहीं।
जवाब देंहटाएंbhagya to har kisi ka apna apna hi hota hai.
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