आज 31 जुलाई को उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का 130वाँ जन्म दिन है। इस अवसर पर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खटीमा के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सिद्धेश्वर सिंह के निवास पर इस उपलक्ष्य में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसकी अध्यक्षता शिक्षाविद् गीताराम बंसल ने की तथा संचालन राजकीय इण्टर कालेज के प्रवक्ता डॉ. गंगाधर राय ने किया। इस अवसर पर सबसे पहले जाने माने ब्लॉगर डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ने सरस्वती वन्दना का पाठ किया । इसके बाद डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने मुंशी प्रेमचन्द के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तृत प्रकाश डाला। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके राज किशोर सक्सेना राज ने अपनी सशक्त कविता के माध्यम से उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द को श्रद्धांजलि समर्पित की। ‘‘है अतुल तुम्हारा योगदान, भाषा का रूप सँवारा है। हे गद्य विघा के प्रेमचन्द्र तुमको शत् नमन हमारा है।।’’ इस अवसर पर रूमानी शायर गुरू सहाय भटनागर ‘बदनाम’ न मुंशी प्रेमचन्द को याद करते हुए अपनी रूमानी कविता का वाचन किया। संचालन कर रहे डॉ. गंगाधर राय ने उपन्यास सम्राट की कई कहानियों की चर्चा करते हुए गोष्ठी को जीवन्तता प्रदान की। गोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में पधारे उद्योगपति पी0एन0सक्सेना ने मुंशी प्रेमचन्द केे साहित्य इस युग में भी प्रासंगिक बताते हुए इस चर्चा को सार्थक बताया। अन्त में अध्यक्ष पद से बोलते हुए शिक्षाविद् गीताराम बंसल ने मुंशी जी को साहित्य का युगपुरुष बताते हुए गोष्ठी का समापन किया। |
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शुक्रवार, जुलाई 31, 2009
मुंशी प्रेमचन्द के जन्म दिवस पर गोष्ठी सम्पन्न।
गुरुवार, जुलाई 30, 2009
‘‘चीनी सन्त का अन्तिम उपदेश’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
चीनी सन्त कन्फ्यूसियस मृत्यु-शैया पर पड़े थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और एक-एक करके अपने पास आने को कहा। वह प्रत्येक शिष्य को अपना मुँह खोलकर दिखाते और पूछते-‘‘देखो मुँह में दाँत हैं?’’ प्रत्येक शिष्य देखता गया और ‘‘नही’’ में उत्तर देता गया। सन्त कन्फ्यूसियस ने पुनः सब शिष्यों को बुलाया और अपना मुँह खोलकर पुनः प्रश्न किया- ‘‘क्या मुँह में मेरी जीभ है?’’ सब शिष्यों ने एक साथ उत्तर दिया- ‘‘हाँ! जीभ तो है।’’ अब सन्त ने शिष्यों से कहा- ‘‘प्रिय शिष्यों, देखो! दाँत मुझे भगवान ने बाद में दिये थे और जिह्वा जन्म से ही मेरे साथ आई थी। आज मैं जा रहा हूँ। दाँत मुझे वर्षों पूर्व छोड़ कर चले गये और जिह्वा आज भी मेरे साथ है। ’’सन्त ने पुनः कहा- ‘‘दाँत अपनी कठोरता के कारण पहले ही चले गये और जीभ अपनी कोमलता के कारण आजीवन साथ रही। तुम लोग भी कोमल और मधुर स्वभाव को बनाये रखना। यही मेरा अन्तिम उपदेश है।’’ (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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शनिवार, जुलाई 25, 2009
"मेरी पौत्री का जन्म-दिन"
गुरुवार, जुलाई 23, 2009
‘‘साबरमती आश्रम, अहमदाबाद’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आठ अक्टूबर 2008 को मेरा किसी समारोह में जाने का कार्यक्रम पहले से ही निश्चित था। समारोह/सम्मेलन दो दिन तक चला। यूँ तो अहमदाबाद के कई दर्शनीय स्थलो का भ्रमण किया, परन्तु मुझे गांधी जी का साबरमती आश्रम देख कर बहुत अच्छा लगा। 10 अक्टूबर को मैं अपने कई साथियों के साथ। प्रातः 9 बजे आश्रम में पहुँचा। चार-पाँच घण्टे आश्रम मे ही गुजारे। उसी समय की खपरेल से आच्छादित गांधी जी का आवास भी देखा। वही सूत कातने का अम्बर चरखा। उसके पीछे महात्मा जी का आसन। एक पल को तो ऐसा लगा जैसे कि गांधी जी अभी इस आसन पर बैठने के लिए आने वाले हों। अन्दर गया तो एक अल्मारी में करीने से रखे हुए थे गान्धी जी के किचन के कुछ बर्तन। छोटी हबेलीनुमा इस भवन में माता कस्तूरबा का कमरा भी देखा जिसके बाहर उनकी फोटो आज भी लगी हुई है। इसके बगल में ही अतिथियों के लिए भी एक कमरा बना है। इसके बाद बाहर निकले तो विनोबा जी की कुटी दिखाई पड़ी। इसे भी आज तक मूल रूप में ही सँवारा हुआ है। आश्रम के पहले गेट के साथ ही गुजरात हरितन सेवक संघ का कार्यालय आज भी विराजमान है। आश्रम के साथ ही साबर नदी की धारा भी बहती दिखाई दी। लेकिन प्रदूषण के मारे उसका भी बुरा हाल देखा। कुल मिला कर यह लगा कि आश्रम में आने पर आज भी शान्ति मिलती है। सच पूछा जाये तो अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे बने आश्रम में आज भी मोहनदास कर्मचन्द गांधी की आत्मा बसती है। |
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शनिवार, जुलाई 18, 2009
‘‘चम्पावत जिले की सुरम्य वादियाँ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, जुलाई 14, 2009
‘‘नानक सागर डाम’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, जुलाई 11, 2009
‘‘गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
नानकमत्ता में गुरू नानक देव जी की सिद्धों से बहुत ठन चुकी थी। क्योंकि गुरू नानक देव जी अपने सेवादारों के साथ यहाँ आये हुए थे और गुरू गोरखनाथ के शिष्यों को यह गवारा नही था। सिद्धों ने अपने योग बल से यहाँ का पानी सुखा दिया था। जब बाला मरदाना को प्यास लगी तो पीने को पानी नही था। तब गुरू नानक देव ने फावड़ा मार कर फावड़ी गंगा की धारा प्रकट की। वो स्थान आज भी मौजूद है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यहाँ नानक सागर डाम बनवा दिया है। इसलिए यह स्थान डाम के अन्दर आ गया है परन्तु डाम पर पुल बनवा कर इस स्थान को दर्शनीय स्थान के रूप में सुरक्षित किया गया है। इसे आज बाउली साहब क रूप में जाना जाता है। एक दिन गुरू नानक देव जी क सेवादारों ने गुरू जी से निवेदन किया कि गुरू जी दूध का स्वाद बहुत दिनों से नही चखा है। आज दूध पहने की इच्छा हो रही है तो गरू जी ने एक कुएँ खुदवाया। इस कुएँ में से दूध की धारा फूट निकली। (गुरूद्वारा के साथ लगा छोटा गुम्बद दूध वाला कुआँ है) यह स्थान आज भी दूधवाले कुएँ के नाम से जाना जाता है। इस कुएँ के जल में से आज भी कच्चे दूध की महक आती है। दूर-दूर से लोग इसका जल भर कर अपने घरों को ले जाते हैं। गंगा जल के समान ही इस जल को पवित्र माना जाता है। कहा जाता है कि इस जल का पान करने से बहुत सी असाध्य बीमारियों से मुक्ति मिलती है। इसके साथ लगे गुरूद्वारे में अमृत भी छकाया जाता है। |
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शुक्रवार, जुलाई 10, 2009
‘‘नहले पे दहला या दहले पे नहला’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
लगभग 10 साल पुरानी बात है। उन दिनों चावल का रेट सस्ता ही था। पर इतना भी नही कि हर आदमी बासमती चावल खा सके। इसलिए लोग शरबती अर्थात बिना खुशबू वाली बासमती चावल ही अक्सर खाते थे। अब तो उसमें भी पीआर-14 की मिलावट होने लगी है। शुद्ध शरबती बासमती का रेट उन दिनों 16 रु0 प्रति किलो चल रहे थे जबकि पीआर-14 कर रेट 7 रु0 प्रति किलो ही था। रंग-रूप में दोनों किस्म के चावल एक जैसे ही लगते हैं परन्तु पकने के बाद शरबती लम्बा, बारीक और मुलायम हो जाता है और पीआर-14 मोटा और कठोर हो जाता है। उन्ही दिनों दो फारमर टाइप के व्यापारी एक मिनी ट्रक में रामपुर जिले से चावल भर कर लाये। अच्छे-अच्छे घरों में उन्होंने 200-200 ग्राम के लगभग चावल पकाने के लिए दिये। चावल बेहतरीन थे। अतः हाथों-हाथ उनके चावल बिक गये। मैंने भी 50 किलो चावल उनसे 15 रु0 के रेट में ले लिए। अगले दिन वो चावल पकाये गये तो वो मोटे और कठोर हो गये थे। खैर ये चावल रख दिये गये। ये था नहले पे दहला। 2-3 महीने बाद वही फारमर टाइप के व्यापारी फिर दिखाई दिये। बानगी के रूप में चावल पकाने के लिए दे ही रहे थे कि इस बार मैंने 100 किलो की पूरी बोरी तुलवा ली। जब पैसा देने का नम्बर आया तो मैंने उसे डाँटना शुरू किया और उसके खिलाफ धोखाधड़ी की रिपोर्ट करने की धमकी दी। अब तो वह दोनों लोग माफी माँगने लगे। आखिर कार उन्हे अपना 3 माह पुराना चावल वापिस लेना ही पड़ा और पूरे पैसे देकर चलते बने। ये था दहले पे नहला। आज इस घटना को 9-10 साल हो गये हैं। तब से ऐसा कोई व्यापारी खटीमा में चावल बेचता हुआ दिखाई नही दिया है। |
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गुरुवार, जुलाई 09, 2009
‘‘नानकमत्ता साहिब-एक ऐतिहासिक गुरूद्वारा’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
(गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब बाहर का दृश्य) सिख पन्थ के प्रथम गुरू ‘‘गुरू नानक देव’’ सिर्फ एक ऐतिहासिक पुरूष ही नही थे। वे सत्य के प्रकाशक और एक समाज सुधारक भी थे। (गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब भीतर का दृश्य)उनके समय में गुरू गोरक्षनाथ के शिष्यों का बोल बाला था। जो अपने चमत्कार जनता को दिखाते रहते थे। उस समय आज का नानकमत्ता ‘‘सिद्ध-मत्ता’’ के नाम से जाना जाता है। इससे लगा गाँव आज भी तपेड़ा के नाम से विख्यात है। तपेड़ा अर्थात तप करने का स्थान। गुरू नानकदेव भ्रमण करते हुए यहाँ भी पहुँचे। लेकिन सिद्धों को उनका यहाँ आना अच्छा नही लगा। अतः सिद्धों ने गुरू जी को यहाँ से खदेड़ने के लिए अनेक उपाय किये। यहाँ आज भी उसी समय का पीपल का एक विशालकाय वृक्ष भी है। जो सिद्धों के जुल्मों की कहानी कह रहा है। (गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब विशाल पीपल वृक्ष का दृश्य)गुरू नानक देव जी अपने दो सेवादारों के साथ इस पीपल के वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे कि सिद्धों ने अपने योग बल से इस महावृक्ष को उड़ाना शुरू कर दिया। इसकी जड़ें जमीन से 15 फीट के लगभग ऊपर उठ चुकी थी। गुरू नानक जी ने जब यह दृश्य देखा तो उन्होंने अपना हाथ का पंजा इस पेड़ पर रख दिया और पीपल का पेड़ यहीं पर रुक गया। आज भी जमीन के ऊपर इसकी जड़ें दिखाई देती हैं। अब सिद्धों ने क्रोध में आकर इस पेड़ में अपने योग बल से आग लगा दी। जिसे गुरू नानक देव ने केशर के छींटे मार कर पुनः हरा-भरा कर दिया। आज भी इस पीपल के वृक्ष के हर एक पत्ते पर केशर के निशान पाये जाते हैं। नानकमत्ता के बारे में तो बहुत सी विचित्र जानकारियाँ भरी पड़ी हैं। फिर किसी दिन इससे जुड़ा दूसरा आख्यान प्रकाशित करूँगा। |
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मंगलवार, जुलाई 07, 2009
‘‘नकल मत करना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हम हिन्दुस्तानियों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम बिना कुछ सोचे विचारे नकल करने लगते हैं। विदेशी संस्कृति की नकल करने में तो हमने सारे कीर्तिमान भंग कर दिये हैं। सौन्दर्य सदैव परोक्ष में निहित होता है, लेकिन हम लोग प्रत्यक्ष को सौन्दर्य मान कर इसका भौंडा प्रदर्शन करने लगे हैं। आज हमारी स्थिति रुई से लदे हुए गधे जैसी हो गयी है। प्रस्तुत है यह मजेदार लघु-कथा- एक व्यापारी घोड़े पर नमक और गधे पर रुई लाद कर बाजार जा रहा था। मार्ग में एक नदी थी। नदी में घुसते ही घोड़े ने पानी में 2-3 डुबकी लगाईं और चलने लगा। नमक पानी में घुल जाने से उसका वजन कुद हल्का हो गया था। गधे ने भी यह देख कर बिना कुछ सोचे विचारे पानी में 2-3 डुबकी लगा दी। डुबकी लगाते ही रुई की गाँठें भीग कर इतनी भारी हो गई थीं कि उसका चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया था। किसी ने सच ही कहा है- ‘‘बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताय। काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हँसाय।।’’
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शनिवार, जुलाई 04, 2009
‘‘तू से आप और आप से सर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
लगभग २५-३० वर्ष पुरानी बात है। उस समय उत्तराखण्ड राज्य नही बना था। विशाल उत्तर-प्रदेश था। मेरा निवास उन दिनों नेपाल सीमा पर बसे छोटे से स्थान बनबसा में हुआ करता था। बनबसा में उस समय पुलिस-थाना भी नही था। यानि पढ़े-लिखे व्यक्ति के लिए कोई अच्छा स्थान शाम को बैठने के लिए था ही नही। लेकिन सोसायटी तो हर व्यक्ति को चाहिए ही, इसलिए मैं अक्सर शाम को 4 किमी दूर शारदा नदी के पार बने कस्टम-कार्यालय या इमीग्रेशन चेक-पोस्ट पर बैठने चला जाया करता था। गर्मियों के दिन थे। समय यही कोई शाम के सात बजे का रहा होगा। एक आफीसर क्लास व्यक्ति नेपाल से घूम कर आ रहा था। उसने कुछ छोटी-मोटी खरीदारी भी नेपाल से की थी। कस्टम अधिकारी ने उसे रोक लिया। जब उसने अपना परिचय दिया तो कस्टम आफीसर उसे तू-तू करके सम्बोधित करने लगा। उसे बुरा लगा और उसने- "कहा महोदय आप सभ्यता से तो बात कीजिए।" इस पर कस्टम अधिकारी ने कहा- "भाई मैं तो मेरठ का रहने वाला हूँ। मेरी बोलचाल की यही भाषा है।" यह वार्तालाप चल ही रहा था कि - उप-जिलाधिकारी उन सज्जन को लेने के लिए आ गये। अब तो कस्टम आफीसर का बात करने का लहजा ही बदल चुका था। वो अब तू से आप पर आ गये थे। कस्टम अधिकारी ने बड़े विनम्र भाव से उन सज्जन से कहा - ‘‘सर! आपने बताया नही कि आप एस0डी0एम0 साहब के रिलेशन में हैं।’’ लेकिन यह सज्जन भी खेले-खाये थे, तपाक से बोले- ‘‘क्यों भाई! अब तुम्हारी मेरठ की भाषा कहाँ चली गयी?’’ इस पर कस्टम अधिकारी की बोलती बन्द हो गयी थी। |
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गुरुवार, जुलाई 02, 2009
"जमाना बहुत बदल गया है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।
"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी