कुछ बातें हिन्दी व्याकरण की
(भाग-एक)
अक्षर
“अक्षर” के नाम से ही जान पड़ता है कि जिसका क्षर (विभाजन) न हो सके उन्हे “अक्षर” कहा जाता है!
वर्ण
अक्षर किसी न किसी स्थान से बोले जाते हैं। जिन स्थानों से उनका उच्चारण होता है उनको वरण कहते हैं। इसीलिए इन्हें वर्ण भी कहा जाता है।
स्वर
जो स्वयंभू बोले जाते हैं उनको स्वर कहा जाता है। हिन्दी व्याकरण में इनकी संख्या २३ मानी गई है।
हृस्व दीर्घ प्लुत
अ आ अ ३
इ ई इ ३
उ ऊ उ ३
ऋ Î ऋ ३
Æ ॡ Æ ३
- ए ए ३
- ऐ ऐ ३
- ओ ओ ३
- औ औ ३
कृपया ध्यान रखें :-
हृस्व में एक मात्रा अर्थात् सामान्य समय लगता है।
दीर्घ में दो मात्रा अर्थात् सामान्य से दो गुना समय लगता है
और प्लुत में तीन मात्रा अर्थात् सामान्य से तीन गुना समय लगता है।
व्यञ्जन
जो अक्षर स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते हो वे व्यञ्जन कहलाते हैं। इनकी संख्या ३३ है!
कवर्ग- क ख ग घ ड.
चवर्ग- च छ ज झ ञ
टवर्ग- ट ठ ड ढ ण
तवर्ग- त थ द ध न
पवर्ग- प फ ब भ म
अन्तस्थ- य र ल व
अन्तस्थ- य र ल व
ऊष्म- श ष स ह
संयुक्ताक्षर
संयुक्ताक्षर वह होते हैं जो दो या उससे अधिक अक्षरों के संयोग से बनते हैं। इनका वर्णन यहाँ पर करना मैं अप्रासंगिक समझता हूँ।
अयोगवाह
जो स्वर के योग को वहन नहीं करते हैं उन्हें अयोगवाह कहते हैं। अर्थात् ये सदैव स्वर के पीछे चलते हैं। इनमें स्वर पहले लगता है जबकि व्यञ्जन में स्वर बाद में आता है। तभी वे सही बोले जा सकते हैं।
ये हैं-
: विसर्ग
जिह्वामूलीय
उपध्यमानीय
अनुस्वार
¤ हृस्व
¦ दीर्घ
अनुनासिक
महाअनुनासिक
मुख के भीतर अक्षरों की ध्वनियों का स्थान
अक्षर स्थान
अवर्ग, कवर्ग, ह, विसर्ग कण्ठ
इवर्ग, चवर्ग, य, श तालु
उवर्ग, पवर्ग, उपध्यमानीय ओष्ठ
ऋवर्ग, टवर्ग, ष मूर्धा
ॡवर्ग, तवर्ग, ल, स दन्त्य
ए, ऐ कण्ठतालु
ओ, औ कण्ठओष्ठ
द दन्तओष्ठ
अनुस्वार, यम नासिका
कुछ बातें हिन्दी व्याकरण की
(भाग-दो)
नाद
जो व्योम में व्याप्त है, वही नाद है। अतः यह वायु के द्वारा मुख में प्रवेश करता है और इसका उच्चारण करने पर जो ध्वनि निकलती है, वह नाद कहलाती है। नाद अव्यक्त है और निरर्थक है।
जब वह मुख में तालु आदि स्थानों को वरण कर लेता है तो वर्ण बन जाता है और सार्थक हो जाता है।
नाद का क्षरण नहीं होता है इसलिए यह अक्षर कहलाता है।
शब्द
शब्द एक या एक से अधिक अक्षरों से मिल कर बनता है।
वाक्य
वाक्य शब्दों से मिलकर बनता है।
“तिड्न्त सुबन्तयोःवाक्यंक्रिया वा कारक्न्विता।“
अर्थात् जिसमें क्रिया (तिड्न्त) और कारक (सुबन्त) दोनों हों वह वाक्य कहलाता है। जैसे-
गोपाल! गाम् अभिरक्ष।
अर्थात् हे गोपाल! गाय की रक्षा करो।
यहाँ रक्षा करो- क्रिया है और गोपाल कारक है।
भाषा
भाषा वाक्यों से मिलकर बनती है।
इसके दो भेद हैं।
व्यक्त और अव्यक्त।
व्यक्त भाषा
जिस भाषा के शब्दों का अर्थ स्पष्ट होता है वह व्यक्त भाषा कहलाती है।
अव्यक्त भाषा
जिस भाषा के शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं होता है उसको अव्यक्त भाषा कहा जाता है।
व्यक्त भाषा के पर्याय
व्यक्त भाषा के सात पर्याय हैं-
१- ब्राह्मी- जो ब्रह्म से प्रकट हुई है।
२- भारती- जो धारण पोषण करती है। (डुभृञ् धारण पोषणयोः)
३- भाषा- जो व्यक्त अर्थात् स्पष्ट बोली जा सकती है।
(भाषा व्यक्तायां वाचि)
४- गी- जो उपदेश करती है अथवा जो ब्रह्म द्वारा उपदिष्ट है। (गृणातीति)
५- वाक्- जो उच्चारम की जाती है। (उच्यत इति)
६- वाणी- जो वाणी से निकलती है। (वण्यत इति)
७- सरस्वती- जो गति देती है। (सृ गति)
गति के तीन अर्थ हैं-
ज्ञान, गमन और प्राप्ति।
व्यक्त भाषा के भेद
व्यक्त भाषा के दो भेद हैं-
वैदिक और लौकिक।
ये दोनों सार्थक है क्योंकि इनके शब्दों का अर्थ है। अर्थात् ये धातुज हैं। जो धातुओं से उत्पन्न हैं।
१- वैदिक भाषा-
जो ब्रह्म द्वारा उपदिष्ट है वही वैदिक भाषा है। अर्थात् वेदों में वर्णित भाषा को वैदिक भाषा कहते हैं। जिसमें दश लकार होते हैं। वेद व्याकरण के अधीन नहीं हैं क्योंकि वेद से ही व्याकरण निकला है। भाषा पहले और व्याकरण बाद में बनता है। वेद छन्द है अर्थात् स्वतन्त्र है और उसमें जो भी उपदिष्ट है वह सब शुद्ध है। यह भी देखने में आता है कि लोक में किसी भाषा का व्याकरण पहले नहीं होता है। अर्थात् भाषा व्याकरण के अनुसार नहीं होती है। किसी भी भाषा को व्याकरण के नियमों में नहीं बाँधा जा सकता है। इसलिए बहुल, व्यत्यय का विधान वैदिक भाषा में पाया जाता है।
२-लौकिक भाषा-
वेद की भाषा के लट् लकार को छोड़कर जो भाषा प्रयोग की जाती है वह लौकिक कहलाती है। जिसे संस्कृत कहा जाता है।
अव्यक्त भाषा
जिस में अव्यक्त शब्दों का प्रयोग होता है उसे अव्यक्त भाषा कहा जाता है। यह निरर्थक होती है। इसके दो भेद होते हैं-
१- पशु-पक्षिक भाषा और
२- मानुषिक भाषा
जिस अव्यक्त भाषा को पशु-पक्षी बोलते हैं वह पशु-पक्षिक भाषा कहलाती है।
जिस भाषा को मनुष्य बोलते हैं वह मानुषिक भाषा कहलाती है।
मानुषिक भाषा के दो भेद होते हैं-
तद्भव और प्रादेशिक।
तद्भव भाषा- यह संस्कृत शब्दों का अपभ्रंश तद्भव रूप है। जब तद्भव शब्दों को संस्कृत शब्दों में बदल देते हैं तभी इसका अर्थ समझ में आता है।
प्रादेशिक भाषा- भिन्न-भिन्न देशों की अव्यक्त भाषा प्रादेशिक भाषा कहलाती है। जो कल्पित होती है।
शुद्ध उच्चारण
प्रायः जिन वर्णों के उच्चारण में भूल की जाती है वह निम्नवत् हैं!
ऋ, Î, ऋ३ का उच्चारण
इनका उच्चारण मूर्धा से होता है। मुँह के भीतर ट, ठ, ड, ढ बोलने पर जीभ जिस स्थान पर लगती है वह स्थान मूर्धा कहलाता है। वहीं पर जीभ को लगा कर बिना स्वर लगाए र् की ध्वनि हृस्व, दीर्घ, प्लुत में बोलेंगे तो ऋ, Î, ऋ३ का सही उच्चारण निकलेगा।
Æ, ॡ, Æ३ का उच्चारण
इसका उच्चारण दन्त से होता है। नीचे और ऊपर के दाँतों को मिलाकर उनपर जीभ लगाकर बिना स्वर लगाए Æ की ध्वनि हृस्व, दीर्घ, प्लुत में करेंगे तो Æ, ॡ, Æ३ का सही उच्चारण निकलेगा।
ड., ञ, ण का उच्चारण
ग को कण्ठ और नासिका से बोलने पर ड. का सही उच्चारण होगा। ज को तालु और नासिका से बोलने पर ञ का सही उच्चारण निकलेगा और ड को मूर्धा और नासिक से बोलने पर ण का सही उच्चारण बोला जाएगा।
श, ष, स का उच्चारण
श को तालु में, ष को मूर्धा में और स को दन्त में जीभ लगा कर बोला जाता है।
च, छ, ज, झ को बोलने पर मुँह में जिस स्थान पर जीभ लगती है, वह स्थान तालु होता है। श बोलने के लिए भी भी इसी स्थान पर जीभ लगाइए तो श का सही उच्चारण निकलेगा।
ट, ठ, ड, ढ को बोलने पर मुँह में जिस स्थान पर जीभ लगती है, वह स्थान मूर्धा होता है। ष बोलने के लिए भी भी इसी स्थान पर जीभ लगाइए तो ष का सही उच्चारण निकलेगा।
त, थ, द, ध को बोलने पर मुँह में जिस स्थान पर जीभ लगती है, वह स्थान दन्त होता है। स बोलने के लिए भी भी इसी स्थान पर जीभ लगाइए तो स का सही उच्चारण निकलेगा।
विसर्ग का उच्चारण
(:) यह चिह्न विसर्ग का है। इसको कण्ठ से बोलना चाहिए।
जहाँ से क, ख, ग, घ बोले जाते हैं उस स्थान को कण्ठ कहा जाता है।
जिह्वामूलीय का उच्चारण
जब (:) विसर्ग के पश्चात् क, ख हो तो उसको जिह्वा मूल से बोलना चाहिए। यह कण्ठ के ऊपर जिह्वा का मूल स्थान है। जैसे- रामः करोति। गोपालः खादति।
उपध्मानीय का उच्चारण
जब (:) विसर्ग के पश्चात् प, फ हो तो उसको ओष्ठ से बोलना चाहिए। जैसे- रामः पठति। गोपालः फलं खादति।
अनुस्वार का उच्चारण
अनुस्वार (अक्षर के ऊपर बिन्दी) को कहते हैं। यह स्वर के पीछे चलता है। इसका उच्चारण कण्ठ नासिका से करना चाहिए। जैसे- हंस, कंस।
समाप्त!
खूबसूरत प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई ||
अच्छी प्रस्तुति..बधाई..
जवाब देंहटाएंव्याकरण पर विस्तार से जानकारी देने का आपका ये प्रयास वंदनीय है | क्योंकि इस तरह की जानकारी बमुश्किल से इन ब्लॉग जगत पर उपलब्ध होती है | जो जानता है वो इसको उजागर नहीं करना चाहता | ऐसा ज्ञान किताबों में बंद पड़ा है व इस ज्ञान को दुनिया के साथ बांटने के लिए इस तरह के प्रयास आगे भी निरंतर होने चाहिएं | उम्मीद है आगे भी ऐसी ही कुछ जानकारी मिलती रहेगी |
जवाब देंहटाएंटिप्स हिंदी में
मैंने आपकी इस पोस्ट का लिंक अपने ब्लॉग के ठीक नीचे बाईं तरफ लगाया है |
जवाब देंहटाएंटिप्स हिंदी में
बहुत विस्तार से आपने हिंदी व्याकरण की बारीकियों को समझाया है ... बहुत बहुत शुक्रिया ...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
चर्चा मंच-722:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
arae kamal hai net par itna achha kaam ...badhai ke patr hain aap..
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रविष्टि निशचय ही अद्भुद है आभार तथा बधाई |
जवाब देंहटाएं"टिप्स हिंदी में"ब्लॉग की तरफ से आपको नए साल के आगमन पर शुभ कामनाएं |
जवाब देंहटाएंटिप्स हिंदी में
bahut sahi sir
जवाब देंहटाएंkafi sikhane ko mila thanks
bahut sarthak..
जवाब देंहटाएंbahut kuchh sikhne ko mil raha..jari rakhiye.
bahut behtreen prastuti ahindi bhaashiyon ke liye bahut
जवाब देंहटाएंupyogi post.
सर आप सहरानीय काम कर रहे है .....जहाँ आज के समय में लोग हिंदी (बोली और लिखने , पढने ) से मुंह मोड़ रहे हैं आप उसका व्याकरण सिख रहे हैं आप को कोटि कोटि धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमहेश्वर सूत्र से इनकी शुरुआत होती तो यह काफी सार्थक हो जाता वैसे अंग्रेजी की इस दिखावी दौर में आपका इतना प्रयास ही काफी सराहनीय है ...बहुत बधाई ...आशा है आगे भी हम से हिंदी भाषा प्रेमियों को आपका दिग्दर्शन मिलाता रहेगा..पुनश्च : साधुवाद.......
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी के लिए बहुत शुक्रिया ..........
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