"पिता जी पीछे-पीछे!
और मैं आगे-आगे!!"
गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरिद्वार) से मैं भाग कर घर आ गया था। पिता जी को यह अच्छा नही लगा। अतः वे मुझे अगले दिन फिर ज्वालापुर गुरूकुल में लेकर चल दिये। सुबह 10 बजे मैं और पिता जी गुरूकुल पहुँच गये। संरक्षक जी ने पिता जी कहा- ‘‘इस बालक का पैर एक बार निकल गया है, यह फिर भाग जायेगा।’’ पिता जी ने संरक्षक जी से कहा- ‘‘ अब मैंने इसे समझा दिया है। यह अब नही भागेगा।’’ मेरे मन में क्या चल रहा था। यह तो सिर्फ मैं ही जानता था। दो बातें उस समय मन में थीं कि यदि मना करूँगा तो पिता जी सबके सामने पीटेंगे। यदि पिता जी ने पीटा तो साथियों के सामने मेरा अपमान हो जायेगा। इसलिए मैं अपने मन की बात अपनी जुबान पर नही लाया और ऊपर से ऐसी मुद्रा बना ली, जैसे मैं यहाँ आकर बहुत खुश हूँ। थोड़ी देर पिता जी मेरे साथ ही रहे। भण्डार में दोपहर का भोजन करके वो वापिस लौट गये। शाम को 6 बजे की ट्रेन थी, लेकिन वो सीधी नजीबाबाद नही जाती थी। लक्सर बदली करनी पड़ती थी। वहाँ से रात को 10 बजे दूसरी ट्रेन मिलती थी। इधर मैं गुरूकुल में अपने साथियों से घुलने-मिलने का नाटक करने लगा। संरक्षक जी को भी पूरा विश्वास हो गया कि ये बालक अब गुरूकुल से नही भागेगा। शाम को जैसे ही साढ़े चार बजे कि मैं संरक्षक जी के पास गया और मैने उनसे कहा- ‘‘गुरू जी मैं कपड़े धोने ट्यूब-वैल पर जा रहा हूँ।’’ उन्होंने आज्ञा दे दी। मैंने गन्दे कपड़ों में एक झोला भी छिपाया हुआ था। अब तो जैसे ही ट्यूब-वैल पर गया तो वहाँ इक्का दुक्का ही लड्के थे, जो स्नान में मग्न थे। मैं फिर रेल की लाइन-लाइन हो लिया। कपड़े झोले मे रख ही लिए थे। ज्वालापुर स्टेशन पर पहुँच कर देखा कि पिता जी एक बैंच पर बैठ कर रेलगाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे। मैं भी आस-पास ही छिप गया। जैसे ही रेल आयी-पिता जी डिब्बे में चढ़ गये। अब मैं भी उनके आगे वाले डिब्बे में रेल में सवार हो गया। लक्सर स्टेशन पर मैं जल्दी से उतर कर छिप गया और पिता जी पर नजर रखने लगा। कुद देर बाद वो स्टेशन की बैंच पर लेट गये और सो गये। अब मैं आराम से टिकट खिड़की पर गया और 30 नये पैसे का नजीबाबाद का टिकट ले लिया। रात को 10 बजे गाड़ी आयी। पिता जी तो लक्सर स्टेशन पर सो ही रहे थे। मैं रेल में बैठा और रात में साढ़े ग्यारह बजे नजीबाबाद आ गया। नजीबाबाद स्टेशन पर ही मैं भी प्लेटफार्म की एक बैंच पर सो गया। सुबह 6 बजे उठ कर मैं घर पहुँच गया। माता जी और नानी जी ने पूछा कि तेरे पिता जी कहाँ हैं? मैं क्या उत्तर देता। एक घण्टे बाद पिता जी जब घर आये तो नानी ने पूछा-‘‘रूपचन्द को गुरूकुल छोड़ आये।‘‘ पिता जी ने कहा-‘‘हाँ, बड़ा खुश था, अब उसका गुरूकुल में मन लग गया है।’’ तभी माता जी मेरा हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर लायीं और कहा-‘‘ये कौन है?’’ यह मेरी गुरूकुल की अन्तिम यात्रा रही। |
आपका संस्मरण बहुत पसंद आया |पहले जब कोइ अधिक शरारत कर्ता था पो उसे गुरुकुल भेजने की
जवाब देंहटाएंदी जाती थी |आभार
आशा
बड़ी हिम्मत दिखाई आपने. फिर पिता जी ने क्या कहा?
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर।
जवाब देंहटाएंहा हा हा हा ,मजेदार संस्मरण .लेकिन पिटाई तो हुई होगी ?
जवाब देंहटाएंबहुत बडिया लगी आपकी ये यात्रा। बधाई
जवाब देंहटाएंहा हा हा………………बहुत बढिया संस्मरण्।
जवाब देंहटाएंवाह जी आप भी उस्ताद थे, मान गये, आगे आप ने बताया नही कि पिता जी ने फ़िर कितना प्यार किया आप से......ओर किस किस चीज से प्यार जताया:)
जवाब देंहटाएंguru ji aap shuru se hee chanchal rahey hain iska matlab..
जवाब देंहटाएंaapko dekh kar lagta nahi hai ki aap itne shararati rahey honge apni balyaavastha mein...
mazaa aaya padh kar...aur bhi koi aise kahaani ho to share kariyega!