मैं आज किसी मीटिंग में गया था। उसमें मेरे एक मित्र जमील साहब भी पधारे थे। वे नीम बहरे थे। सुनने की मशीन वो लगाना पसन्द नही करते थे। मगर 80 साल की उम्र में भी जिन्दादिल थे। उनसे बातें होने लगीं। उनके ऊँचा सुनने के कारण मुझे ऊँचे स्वर में उनसे बात करनी पड़ती थी। लेकिन कभी-कभी तो वो धीमें से भी कही बात को सुन लेते थे और कभी-कभी जोर से बोलने पर भी ऐं.......आऐं.......ही करने लगते थे। मैंने उनसे कहा कि जमील साहब! एक बात बताइए- ‘‘अगर कोई आपको धीरे से गाली दे दे तो आपको तो पता ही नही लगेगा।’’ वो तपाक से बोले- ‘‘मियाँ जिनके कान नही होते वो चेहरा पढ़ना जानते हैं।’’ तब मैंने उनसे कहा- ‘‘जमील साहब! अगर कोई आपको हँस कर गाली दे दे तो आपको तो पता ही नही लगेगा।’’ उन्होंने कहा- "जिसके पास जो कुछ होगा वही तो देगा।" अन्त में जमील साहब हँसकर बोले- ‘‘शास्त्री जी! हँस कर कोई गाली ही नही जहर भी दे तो वो भी मुझे कुबूल है।’’ |
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रविवार, अगस्त 30, 2009
‘‘हँस कर कोई जहर भी दे तो वो भी कुबूल है।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, अगस्त 25, 2009
‘‘पीठ और छाती का अन्तर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
विषय इतना जटिल है कि सोच रहा हूँ कि इसकी शरूआत कहाँ से करूँ। पहाड़ मेरा घर है और इसके ठीक नीचे बसा हुआ मैदान मेरा आँगन है। जिन दिनों सरदी कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र से बहुत सारे बच्चे इन मैदानी भागों में नौकरी करने के लिए आ जाते हैं। ये अक्सर घरों या होटलों में साफ-सफाई करते या झूठे बरतन बलते हुए देखे जा सकते हैं। इनकी उम्र 10 साल से 12 साल के बीच होती है। बड़े होने पर ये दिल्ली या बम्बई जैसे महानगरों में पलायन कर जाते हैं। क्या कारण है कि इन बालकों को घर से बिल्कुल भी मोह नही होता है? जबकि हमारे घरों के बालक माता-पिता से इतना मोह रखते हैं कि विवाह होने तक माता-पिता और घर को छोड़ने की कल्पना भी नही कर सकते। मैंने जब गहराई से इस पर विचार किया तो बात समझ में आ गई। मैं नेपाल देश के बिल्कुल करीब में रहता हूँ। जहाँ माताएँ अपने एक महीने के बालक को भी पीठ से बाँध कर चलती हैं। जबकि हमारे घरों की माताएँ अपने दो वर्ष के बच्चे को भी अपनी छाती के साथ लगा कर रखती है। यदि कहीं जायेगी तो वो बच्चे को सीने से लगा कर ही चलेंगी। बस यही तो अन्तर होता है, छाती से लगा कर पले बालकों और पीठ के पले बालकों में। छाती से लगा कर पले बालक हृदय के करीब होते हैं और पीठ के पले बालक हृदय के दूर होते हैं। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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गुरुवार, अगस्त 20, 2009
"हिन्दी-व्याकरण" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
बहुत समय से हिन्दी व्याकरण पर कुछ लिखने का मन बना रहा था। परन्तु सोच रहा था कि लेख प्रारम्भ कहाँ से करूँ। आज इस लेख की शुभारम्भ हिन्दी वर्ण-माला से ही करता हूँ। मुझे खटीमा (उत्तराखण्ड) में छोटे बच्चों का विद्यालय चलाते हुए 25 वर्षों से अधिक का समय हो गया है। शिशु कक्षा से ही हिन्दी वर्णमाला पढ़ाई जाती है। हिन्दी स्वर हैं- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ए ऐ ओ औ अं अः। यहाँ तक तो सब ठीक-ठाक ही लगता है। लेकिन जब व्यञ्जन की बात आती है तो इसमें मुझे कुछ कमियाँ दिखाई देती हैं। शुरू-शुरू में- क ख ग घ ड.। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न। प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह। क्ष त्र ज्ञ। पढ़ाया जाता है। जो आज भी सभी विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। उन दिनों एक दिन कक्षा-प्रथम के एक बालक ने मुझसे एक प्रश्न किया कि ड और ढ तो ठीक है परन्तु गुरू जी! यह ड़ और ढ़ कहाँ से आ गया? कल तक तो पढ़ाया नही गया था। प्रश्न विचारणीय था। अतः अब 20 वर्षों से- ट ठ ड ड़ ढ ढ़ ण। मैं अपने विद्यालय में पढ़वा रहा हूँ। आज तक हिन्दी के किसी विद्वान ने इसमें सुधार करने का प्रयास नही किया। आजकल एक नई परिपाटी एन0सी0ई0आर0टी0 ने निकाली है। इसके पुस्तक रचयिताओं ने आधा अक्षर हटा कर केवल बिन्दी से ही काम चलाना शुरू कर दिया है। यानि व्याकरण का सत्यानाश कर दिया है। हिन्दी व्यंजनों में- कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अन्तस्थ और ऊष्म का तो ज्ञान ही नही कराया जाता है। फिर आधे अक्षर का प्रयोग करना कहाँ से आयेगा? हम तो बताते-बताते, लिखते-लिखते थक गये हैं परन्तु कहीं कोई सुनवाई नही है। इसीलिए हिन्दुस्तानियों की हिन्दी सबसे खराब है। बिन्दु की जगह यदि आधा अक्षर प्रयोग में लाया जाये तभी तो नियमों का भी ज्ञान होगा। अन्यथा आधे अक्षर का प्रयोग करना तो आयेगा ही नही। सत्य पूछा जाये तो अधिकांश हिन्दी की मास्टर डिग्री लिए हुए लोग भी आधे अक्षर के प्रयोग को नही जानते हैं। नियम बड़ा सीधा और सरल सा है- किसी भी परिवार में अपने कुल के बालक को ही चड्ढी लिया जाता है यानि पीठ पर बैठाया जाता है। अतः यदि आधे अक्षर को प्रयोग में लाना है तो जिस कुल या वर्ग का अक्षर बिन्दी के अन्त में आता है उसी कुल या वर्ग व्यंजन का अन्त का यानि पंचमाक्षर आधे अक्षर के रूप में प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए - झण्डा लिखते हैं तो इसमें ण का आधा अक्षर ड की पीठ पर बैठा है। अर्थात टवर्ग का ही ड अक्षर है। इसलिए आधे अक्षर के रूप में इसी वर्ग का ण का आधा अक्षर प्रयोग में लाना सही होगा। परन्तु आजकल तो बिन्दी से ही झंडा लिखकर काम चला लेते है। फिर व्याकरण का ज्ञान कैसे होगा? इसी तरह मन्द लिखना है तो इसे अगर मंद लिखेंगे तो यह तो व्याकरण की दृष्टि से गलत हो जायेगा। अब बात आती है संयुक्ताक्षर की- जैसा कि नाम से ही ज्ञात हो रहा है कि ये अक्षर तो दो वर्णो को मिला कर बने हैं। इसलिए इन्हें वर्णमाला में किसी भी दृष्टि से सम्मिलित करना उचित नही है। समय मिला तो अगली बार कई मित्रों की माँग पर हिन्दी में कविता लिखने वाले अपने मित्रों के लिए गणों की चर्चा अवश्य करूँगा। |
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रविवार, अगस्त 16, 2009
"स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष्य में कवि-गोष्ठी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
उभर रही हैं कालोनियाँ
जहाँ कभी लहराते थे फसलों के सोनिया समन्दर
और फूटती थी अन्न की उजास
वहाँ इठला रही हैं अट्टालिकायें
एक से एक भव्य और शानदार.
हास्य और व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर गेन्दालाल निर्जन ने अपना काव्य पाठ इस रचना को पढ़कर किया-
नही रुका है नही रुकेगा अपना हिन्दुस्थान रे।
माता पुकारती है माँ को भक्त चाहिए।
एक ढलती शाम मेरी जिन्दगी,
प्यार का उपनाम मेरी जिन्दगी।
आज हम आजाद हैं अपना वतन आजाद है।
शुक्रवार, अगस्त 14, 2009
‘‘हिन्दू धर्म में दया और क्षमा के उच्च मानदण्ड आज भी मौजूद हैं।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पं0 सोमदेव जी बड़े कर्मकाण्डी बाह्मण थे। कथा करते- करते उन्होंने अपना नाम सौम्य मुनि रख लिया था। वे कृष्ण भगवान की कथा बहुत सुन्दर करते थे। उनकी आयु लगभग 35 वर्ष की थी, परन्तु विवाह नही किया था। संयोगवश् एक बार उनकी कथा सुनने एक ईसाई युवती भी आ गयी। सौम्य मुनि जी की वाणी में तो सरस्वती का वास था ही। वह महिला उनसे काफी प्रभावित दिखी। अब तो अक्सर वो महिला इनकी कथा में आने लगी। मुनि जी तो स्त्री सुख से अब तक वंचित थे ही। अतः वे भी इस युवती की तरफ आकृष्ट होते चले गये। लोगों ने समझा कि मुनि जी इस महिला को हिन्दू धर्म में दीक्षित कर ही लेंगे। परन्तु यह क्या? मुनि जी ने हिन्दू धर्म का चोला उतार फेंका और रातों-रात ईसाई धर्म अपना लिया। अब उनका नया नाम था- ‘‘जॉन करमेल शर्मा। समय गुजरता रहा। मुनि जी इस महिला के पब्लिक स्कूल में ही रहने लगे थे। धीरे-धीरे मुनि जी का यौवन ढलने लगा। उन्हें भयंकर खाँसी ने जकड़ लिया। डाक्टरों ने उन्हें टी0बी0 साबित कर दी। अपने बेड रूम में सुलाने वाली महिला ने भी इन्हें सरवेन्ट क्वाटर के हवाले कर दिया। अब ये बड़े परेशान हुए। मौका देख कर ये इस महिला के स्कूल से खिसक लिए और अपने गृह-जनपद बिजनौर वापिस आ गये। पुराने लोंगों ने इन्हें पहचान लिया। इनके भतीजों ने इनकी कृषि की भूमि का भी हिस्सा इन्हें दे दिया। इतना ही नही इनके एक भतीजे ने इन्हें टी0बी0 सेनेटोरिम भवाली (नैनीताल) में दाखिल करा दिया। कुछ दिनों के बाद इनकी टी0बी0 ठीक हो गई। एक विधवा महिला ने इनसे पुनर्विवाह भी कर लिया। अब ये सुखपूर्वक अपना जीवन-यापन करने लगे हैं। भगवान कृष्ण की कथा कहनी इन्होंने फिर शुरू कर दी है। लेकिन आज यह हिन्दू धर्म की महानता का वर्णन करते नही अघाते हैं। अपनी कथा की शुरूआत में ये अपने जीवन की इस महत्वपूर्ण घटना को अवश्य सुनाते हैं और कहते हैं- ‘‘हिन्दू धर्म में दया और क्षमा के उच्च मानदण्ड आज भी मौजूद हैं और सदैव रहेंगे।’’ |
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रविवार, अगस्त 09, 2009
‘‘महेन्द्र नगर नेपाल’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, अगस्त 06, 2009
‘‘अजब किन्तु सच’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
रुद्रपुर, (उत्तराखण्ड) कल 5 अगस्त की ही घटना है। उत्तराखण्ड विधान सभा में सदस्य काँग्रेस पार्टी के मा0 तिलकराज बेहड़ जी को भा0ज0पा0 के नेता श्री किन्नू शुक्ला द्वारा दी गयी धमकी के प्रकरण में उच्च न्यायालय ने ऊधमसिंहनगर जिले के एस0एस0पी0 को अरुण उर्फ किन्नू शुक्ला को गिरफ्तार कर सी0जे0एम0 की अदालत में पेश करने का आदेश दिया। पुलिस ने अरुण उर्फ किन्नू शुक्ला की गिरफ्तारी के लिए कई जगह दबिश दी परन्तु वह नही मिले। पुलिस उनको पकड़ने की कोशिश कर ही रही थी कि किन्नू शुक्ला अपने कार्यकताओं द्वारा नियत स्थान पर डम्पर की बास्केट में गुपचुप तरीके से बैठ कर वहाँ पहुँचे हजारों कार्यकर्ताओं के बीच डम्पर की बास्केट ने उन्हें मंच पर अपलोड कर दिया। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 10 मिनट के भीतर ही सी0जे0एम0 की अदालत में पेश कर दिया। पूर्व निर्धारित नीति के अन्तर्गत उनके जमानत के कागजात तैयार थे। अतः 10 मिनट में ही बीस हजार के मुचलके पर उन्हें जमानत मिल गई। आधे घण्टे में पूरा एपीसोड समाप्त हो गया। जी हाँ! यही तो होता है सत्ता पक्ष में रहने का मजा। |
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मंगलवार, अगस्त 04, 2009
‘‘फोल्डिंग बैड’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पहली ही बार मैं और श्रीमती जी लुधियाना जा रहे थे। अतः साडू साहिब ने हमारे आने के उपलक्ष्य में जम कर तैयारी की थी। हमारे सोने के लिए मार्केट से वो बिल्कुल नये दो फोल्डिंग बैड लाये थे। रात का खाना खाने के बाद कमरे में बैड बिछा दिये गये। जैसे ही मैं बैड पर बैठा कि बैड का पाइप टूट गया। थोड़ी देर हँसी-मजाक चला और हम लोग सो गये। एक दिन रुकने के बाद हम लोग स्वर्ण-मन्दिर देखने के लिए अमृतसर को प्रस्थान कर गये। उसी वर्ष मेरे साडू भाई और साली जी जून के माह में छुट्टियों में एक सप्ताह के लिए मेरे घर खटीमा पधारे। साडू जी के अपने मन से बैड टूटने की बात भुला नही पाये थे। अतः उन्होंने कोशिश करके हिल-डुल कर मेरी एक प्लास्टिक की चेयर तोड़ दी और बड़ी शान से खुश होकर बोले- ‘‘लो जी हिसाब बराबर। आप लोगों ने हमारा बैड तोड़ा था। हमसे कुर्सी टूट गयी।" खैर बात आई-गयी हो गयी। अगले दिन साडू साहब ने फिर हरकत करनी शुरू की। प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ कर झूलने लगे। अतः यह कुर्सी भी भर-भराकर टूट गयी। लेकिन इसकी सीट भी टूटी बौर एक टाँग भी टूटी और साडू साहब की सीट और गुप्तांग प्लास्टिक टूटने से फट गये। खैर उनकी सीट में 10-12 टाँके लगे। करीब 15 दिन में वो चलने-फिरने लायक हो पाये। अब मैंने और श्रीमती जी ने उनकी मजाक उड़ानी शुरू की। हमने कहा- ‘‘भाई साहब! एक कुर्सी आपने तोड़ी तो बैड टूटने का हिसाब बराबर हो गया। मगर जब आपने दूसरी कुर्सी तोड़ी तो कुर्सी ने अपना हिसाब बराबर कर दिया। आज भी जब कभी साडू साहब के सामने वो संस्मरण याद किया जाता है तो वो बड़े लज्जित हो जाते हैं। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामन न खरीदें।
"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी