"उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की 133वीं जयन्ती पर विशेष"
नाम - धनपत राय
उपनाम - प्रेमचन्द
जन्म - 31 जुलाई, 1880
ग्राम-लमही, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) भारत
मृत्यु - 8 अक्तूबर, 1936
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
कार्यक्षेत्र - अध्यापक, लेखक, पत्रकार
भाषा - हिन्दी-उर्दू
काल - आधुनिक काल
विधा - कहानी और उपन्यास
विषय - सामाजिक
मित्रों!
आज सुप्रसिद्ध कथाकार और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की 133वीं जयन्ती है। उनको अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनकी एक कहानी "दो बैलों की कथा" प्रस्तुत कर रहा हूँ।
दो बैलों की कथाः मुंशी प्रेमचंद
जानवरों में गधा सबसे बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दरजे का बेवकूफ़ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ़ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता से उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।
गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत ग़रीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, लेकिन गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे उस ग़रीब को मारो, चाहे जैसी ख़राब सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी।
बैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो; पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुःख, हानि-लाभ किसी दशा में भी बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ़ कहता है।
सदगुणों का इतना अनाचार कहीं नहीं देखा। कदाचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है। देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी-तोड़ काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर ग़म खा जाते हैं। फिर भी बदमाश हैं।
कहा जाता है, जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल सामने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया।
लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कुछ ही कम गधा है और वह है ‘बैल’। जिस अर्थ में हम ‘गधा’ का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में बछिया के ताऊ का प्रयोग भी करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफ़ों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं। बैल कभी-कभी मारता भी है। कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से वह अपना असंतोष प्रकट कर देता है; अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।
झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम हैं हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे। देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाई-चारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।
दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते। कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के भाव से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से; जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज़्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।
जिस वक़्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते थे और गरदनें हिला-हिलाकर चलते, तो हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज़्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लिया करते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा थी हटा लेता था। संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम, वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे मालिक ने हमें बेच दिया।
अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने; पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकड़कर नीचे करके हुंकारते। अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते; तुम हम ग़रीबों को क्यों निकाल रहे हो?
हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था तो और काम लेते। हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथ क्यों बेच दिया?
संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिन-भर के भूखे थे; लेकिन जब नाँद में लगाए गए, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नए आदमी सब उन्हें बेगाने-से लगे। दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गए।
जब गाँव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने ज़ोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ़ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान नहीं हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा। पर इन दोनों में इस समय दूसरी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं। झूरी प्रातःकाल सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों की गरदनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।
झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गदगद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुंबन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था। घर और गाँव के लड़के जमा हो गए और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्च्य किया, दोनों पशुवीरों को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी।
एक बालक ने कहा-ऐसे बैल किसी के पास न होंगे। दूसरे ने समर्थन किया-इतनी दूर से अकेले चले आए, तीसरी ने कहा-बैल नहीं हैं वे, उस जन्म के आदमी हैं, इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस नहीं हुआ।
झूरी की पत्नी ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली-कैसे नमकहराम बैल हैं कि एक दिन भी वहाँ काम न किया। भाग खड़े हुए। झूरी अपने बैलों का आक्षेप न सुन सका। नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना दिया न होगा तो क्या करते? स्त्री ने रौब के साथ कहा-बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।
झूरी ने चिढ़ाया-चारा मिलता तो क्यों भागते? स्त्री चिढ़ी-भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ कहाँ से खली और चोकर मिलता है? सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खाएँ या मरें। वही हुआ। मजदूर को कड़ी ताकीद कर दी गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए।
बैलों ने नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्या खाएँ। आशा-भरी आँखों से द्वार की ओर ताकने लगे। झूरी ने मजदूर से कहा-थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता रे? ‘मालकिन मुझे मार ही डालेंगी।’‘चुराकर डाल आ।’‘ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी करोगे।’
दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अब की उसने दोनों को गाड़ी में जोता। दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने सँभाल लिया। वह ज़्यादा सहनशील था। संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों सके बाँधा और कल की शरारत का मज़ा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी, सब कुछ दी।
दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी उन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ पर मार पड़ी। आहत सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा। नाँद की तरफ़ आँख तक न उठायी। दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता; पर इन दोनों ने जैसे पाँव उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया; पर दोनों ने पाँव न उठाया।
एक बार जब निर्दयी ने हीरा के नाम में खूब डंडे जमाए तो मोती का गुस्सा काबू से बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, सब टूट-टूटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं तो दोनों पकड़ाई में न आते। हीरा ने मूक भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है। मोती ने उसी भाषा में उत्तर दिया-तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी। अबकी बार मार पड़ेगी।
पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है, तो मार से कहाँ तब बचेंगे?’ ‘गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा है। दोनों के हाथ में लाठियाँ हैं।’ मोती बोला-कहो तो दिखा दूँ कुछ मज़ा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है! हीरा ने समझाया-नहीं भाई, खड़े हो जाओ। ‘मुझे मारेगा, तो मैं एक-दो को गिरा दूँगा।’ ‘नहीं, हमारी जाति का यह धर्म नहीं।’ मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि इस वक़्त मार-पीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पड़ता उसके तेवर देखकर सहम गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक़्त टाल जाना ही मसलहत है।
आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उसी वक़्त एक छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लेकर निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गई। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती; पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का वास है।
लड़की भैरों की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी। दोनों दिन-भर जोते-जोते, डंडे खाते। शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वह वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की आँखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।
एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा-अब तो सहा नहीं जाता हीरा। ‘क्या करना चाहते हो?’ ‘एकाध को सींगों पर उठाकर फेंक दूँगा।’ ‘लेकिन जानते हो वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ हो जाएगी।’ ‘तो मालकिन को न फेंक दूँ। वह तो उस लड़की को मारती है।’
लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, वह भूले जाते हो।’ ‘तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। तो आओ, आज तुड़ाकर भाग चलें।’ ‘हाँ, यह मैं स्वीकार करता हूँ; लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?’ ‘इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोड़ा-सा चबा लो। फिर एक झटके में टूट जाती है।’
रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, तो दोनों रस्सियाँ चबाने लगे; मोटी रस्सी मुँह में न जाती थी। बेचारे बार-बार ज़ोर लगाकर रह जाते। सहसा घर का द्वार खुला और वही लड़की निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूछें खड़ी हो गईं। उसने उनके माथे सहलाए और बोली-खोली देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ के लोग मार डालेंगे।
आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाए। उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खड़े रहे। मोती ने अपनी भाषा में पूछा-अब चलते क्यों नहीं? हीरा ने कहा-चलें तो; लेकिन कल इस अनाथ पर आफ़त आएगी। सब इसी पर संदेह करेंगे। सहसा बालिका चिल्लाई, दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं। जल्दी दौड़ो। गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकड़ने लगा। वह दोनों भागे। गया ने पीछा किया। वे और भी तेज़ हुए। गया ने शोर मचाया।
फिर गाँव के कुछ आदमियों को साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौड़ते चले गए। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नए-नए गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए।
हीरा ने कहा-मालूम होता है, राह भूल गए। ‘तुम भी तो बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।’ ‘उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपने धर्म छोड़ दें, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़ें!’ दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं। जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिला और एक-दूसरे को ठेलने लगे।
मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आया। सँभलकर उठा और फिर मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा, खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गए। अरे! वह क्या! कोई साँड़ डौंकता हुआ चला आ रहा है। हाँ, साँड़ ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बगलें झाँक रहे हैं। साँड़ पूरा हाथी है। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है; लेकिन न भिड़ने पर तो जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ रहा है। कितनी भंयकर सूरत है!
मोती ने मूक भाषा में कहा-बुरे फँसे! जान कैसे बचेगी? कोई उपाय सोचो। हीरा ने चिंतित स्वर में कहा-अपने घमंड में भूला हुआ है। आरजू-विनती न सुनेगा। ‘भाग क्यों न चलें?’ ‘भागना कायरता है।’‘तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ-दो ग्यारह होता है।’‘और जो दौड़ाए?’ ‘तो फिर कोई उपाच सोचो जल्द!’ उपाय यही है कि उस पर दोनों जने एक साथ चोट करें। मैं आगे से रगेदता हूँ तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पड़ेगी, तो भाग खड़ा होगा। ज्यों ही मेरी ओर झपटे तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है।’
दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साँड़ को कभी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजुरबा न था। वह तो शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था। ज्यों ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया। साँड़ उसकी तरफ मुड़ा तो हीरा ने रगेदा। साँड़ चाहता था कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों उस्ताद थे। उसे यह अवसर न देते थे।
एक बार साँड़ झल्लाकर हीरा का अंत कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर उसके पीट में सींग भोंक दिया। साँड़ क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग भोंक दिया। साँड़ क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग चुभो दिया। आखिर बेचारा जख़्मी होकर भागा, और दोनों ने दूर तक पीछा किया। यहाँ तक कि साँड़ बेदम होकर गिर पड़ा। तब दोनों ने उसे छोड़ दिया। दोनों मित्र विजय के नशे में झूमते चले जा रहे थे। मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा-मेरा जी चाहता था कि बच्चे को मार ही डालूँ। हीरा ने तिरस्कार किया-गिरे हुए बैरी पर सींग नहीं चलाना चाहिए। ‘यह सब ढोंग है। बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।’ ‘अब कैसे पहुँचेंगे, यह सोचो।’ ‘पहले कुछ खा लें, तब सोचें।’ सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा, पर उसने एक न सुनी।
अभी दो ही चार ग्रास खाए थे कि दो आदमी लाठियाँ लिए दौड़ पड़े और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा मेड़ पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धँसने लगे। भाग न सका। पकड़ लिया गया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, लौट पड़ा। फँसेंगे तो दोनों फँसेंगे। रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया। प्रातःकाल दोनों मित्र काजी हाउस में बंद कर दिए गए।
दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ में ही न आता था। यह कैसा स्वामी है। इससे तो गया फिर भी अच्छा था। वहाँ कई भैंसें थीं, कई बकरियाँ, कई घोड़े; कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुरदों की तरह पड़े थे। कई तो इतने कमजोर हो गए थे कि खड़े भी न हो सकते थे।
सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनों दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होगी? रात को भी कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी।
मोती से बोला-अब तो नहीं रहा जाता, मोती! मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया-मुझे तो मालूम होता है प्राण निकल रहे है। ‘इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।’ ‘आओ दीवार तोड़ डालें।’ ‘मुझसे तो अब कुछ न होगा।’ ‘बस इसी बूते पर अकड़ते थे!’ ‘सारी अकड़ निकल गई।’ बाड़े की दीवार कच्ची थी।
हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिए और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहर बढ़ा। उसने दौड़-दौड़कर पर चोटें कीं और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा। उसी समय काजीहाउस का चौकीदार लालटेन लेकर, जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का यह उजड्डपन देखर उसने उसे कई डंडे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया। मोती ने पड़े-पड़े कहा-आखिर मार खाई, क्या मिला? ‘अपने बूते प़र ज़ोर तो मार लिया।’ ‘ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गए।’ ‘जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने बंधन पड़ते जाएँ।’ ‘जान से हाथ धोना पड़ेगा।’ ‘कुछ परवाह नहीं। यों भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती, तो कितनी जानें बच जातीं। इतने भाई यहाँ बंद हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा तो सब मर जाएँगे।’ ‘हाँ, यह तो बात है। अच्छा तो लो, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।’
मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और हिम्मत बढ़ी। फिर तो वह दीवार से सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा मानो किसी द्वंद्वी से लड़ रहा है। आखिर दो घंटे की जोर आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई। उसने दूनी शक्ति से धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पड़ी। दीवार का गिरना था कि अधमरे से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोड़ियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैंसें भी खिसक गई; पर गधे अभी तक ज्यों के त्यों खड़े थे।
हीरा ने पूछा-तुम क्यों नहीं भाग जाते? एक गधे ने कहा-जो कहीं फिर पकड़ लिए जाएँ? ‘तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।’ ‘हमें तो डर लगता है। हम यहीं पड़े रहेंगे।’ आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे, भागें या न भागें। और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था, जब वह हार गया तो हीरा ने कहा-तुम जाओ, मुझे यही पड़ा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाए।
मोती ने आँखों में आँसू लाकर कहा-तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो हीरा! हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे। आज तुम विपत्ति में पड़ गए, तो मैं तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊँ? हीरा ने कहा-बहुत मार पड़ेगी। लोग समझ जाएँगे, यह तुम्हारी शरारत है। मोती गर्व से बोला-जिस अपराध के लिए तुम्हें गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पड़े तो क्या चिंता। इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई। ये सब तो आशीर्वाद देंगे।
यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सींगों से मार-मारकर बाड़े से बाहर निकाला और तब अपने बंधु के पास आकर सो रहा। भोर होते ही मुंशी और चौकीदार और अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की ज़रूरत नहीं। बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया गया। एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहाँ बंधे पड़े रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गए कि उठा तक न जाता था। ठठरियाँ निकल आई थीं। एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गए। तब दोनों मित्र निकाले गए और उनकी देखभाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीदार होता?
सहसा एक दढ़ियल आदमी, जिसकी आँखें लाल थीं और मुद्रा अत्यंत कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में ऊँगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अंतर्ज्ञान से दोनों मित्रों से दिल काँप उठे। वह कौन है, उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया।
हीरा ने कहा-गया के घर से नाहक भागे। अब जान बचेगी? मोती ने अश्रद्धाभाव से उत्तर दिया-कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं। इन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती? ‘भगवान के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर हैं। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बजाएँगें?’ ‘यह आदमी छुरी चलाएगा। देख लेना।’ ‘तो क्या चिंता है। मांस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जाएँगी।’
नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी। बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे; पर भय के मारे गिरते-गिरते भाग जाते थे, क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर का डंडा जमा देता था। राह में गाय-बैलों का रेवड़ हरे-भरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता था, कोई आनंद से बैठा पागुर करता था। कितनी सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिंता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं।
सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ, यह परिचित राह है। इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गई। अहा, यह लो! अपना ही घर आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे। हाँ, यही कुआँ है।
मोती ने कहा-हमारा घर नजदीक आ गया। हीरा बोला-भगवान की दया है। ‘मैं तो अब घर भागता हूँ।’ ‘यह जाने देगा?’ ‘इसे मार गिराता हूँ।’ ‘नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर ले चलो। वहाँ से हम आगे न जाएँगे।’ दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़ें। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आए और खड़े हो गए।
दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। झूरी द्वार पर बैठा धूप आ रहा था। बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों से आनंद के आँसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था। दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड़ लीं। झूरी ने कहा-मेरी बैल हैं। ‘तुम्हारे बैल कैसे? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिए आता हूँ।’‘मैं तो समझता हूँ, चुराए लिए आते हो। चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मैं बेचूँगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार है?’ ‘जाकर थाने में रपट कर दूँगा।’ ‘मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं।’‘दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया।
दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रूका, पर खड़ा दढ़ियल रास्ता देख रहा था। दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खडा़ था। गाँव के लोग तमाशा देखते थे और हँसते थे। जब दढ़ियल हारकर चला गया, तो मोती अकड़ता हुआ लौटा।
हीरा ने कहा-मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।’ ‘अगर वह मुझे पकड़ता, तो मैं बेमारे न छोड़ता।’ ‘अब न आएगा।’ ‘आएगा तो दूर ही से खबर लूँगा। देखूँ कैसे ले जाता है।’ ‘जो गोली मरवा दे?’ ‘मर जाऊँगा, उसके काम न आऊँगा।’ ‘हमारी जान तो कोई जान ही नहीं समझता।’ ‘इसलिए कि हम इतने सीधे होते हैं।’
जरा देर में नाँद में खली, भूसा, चोकर, दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खड़ा दोनों को सहला रहा था और बीसों लड़के तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था। उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिए।
( साभार: प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां, डायमंड प्रकाशन, सर्वाधिकार सुरक्षित। )