मंगलवार, सितंबर 29, 2009

"यही सच है" दैनिक जागरण



आज उच्चारण पर एक पोस्ट लगाई है।

उसी के प्रमाण में यह दैनिक जागरण

दिनांक 29-09-2009 के पृष्ठ-4

की उपरोक्त कतरन को पढ़ें।

स्पष्ट नज़र न आये तो

इस कतरन पर चटका लगाकर

इसे बड़ा करके पढ़ लें।

दशहरा का मेला लगा हुआ था।

रावण के जल जाने पर भी

मेले से चार सीताओं का

अपहरण हो गया।

काफी खोज-बीन के बाद

बात समझ में आ गई।

अरे भइया!

यहाँ रावण के केवल

नौ सिर ही तो जलाए थे।

दसवाँ तो बच ही गया था।

नीचे के चित्र में देखें-

वो ही तो इन चार आधुनिक सीताओं को

बाइक पर बैठाकर ले जा रहा है।

"शब्दो का दंगल" पर भी कुछ है,

कृपया उसे भी यहाँ चटका लगा कर

देख लें।

(चित्र गूगल सर्च से साभार)

सोमवार, सितंबर 28, 2009

‘‘आजादी का जश्न’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)

लघु-कथा


गर्मियों के दिन थे। अतः सुबह के दस बजे भी काफी गरमी थी।
एक बहेलिये ने 25-30 तोतों को एक बड़े से जालीदार पिंजड़े में कैद कर रखा था। गरमी और प्यास के कारण कुछ तोतों के मुँह खुले हुए थे, कुछ 
तोते हाँफ रहे थे और कुछ तोते अनमने से पड़े थे।
बहेलिया आवाज लगा-लगा रहा था- 
‘‘तोते ले लो........तोतेएएएएएएएएएए!’’ 
सामने एक सर्राफ की दूकान थी। दूकान पर बैठे लाला जी ने जब बहेलिए 
को देखा तो उसे इशारे से अपने पास बुलाया।उन्होंने बहेलिए से पूछा कि सारे तोतों के दाम बताओ।बहेलिए ने सारे तोतों के दाम पाँच सौ रुपये बताए। मोल-भाव करके लाला जी ने चार सौ रुपये में सारे तोते खरीद लिए। 

अब बहेलिए ने कहा कि लाला जी पिंजड़े मँगाइए। 
लाला जी ने जब यह सुना तो बहेलिए के हाथ में चार सौ रुपये देकर पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया। 

एक-एक करके तोते आसमान में उड़ने लगे। जब तक उनका एक-एक साथी आजाद नही हो गया वो सभी वहीं आसमान में चक्कर लगाते रहे। सब तोते रिहा होते ही झुण्ड के रूप में एक तालाब पर गये। जी भरकर उन्होंने पानी पिया। अब तोते बहुत खुश थे। वे सबके-सब तालाब के किनारे पेड़ पर बैठ कर कलरव कर रहे थे। उनके हाव-भाव देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कि कोई देश आजाद हुआ हो और उसके बाशिन्दे मिल कर आजादी का जश्न मना रहे हों।

शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

"धर्मराज की सभा" डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"



धक्का दे दिया.........! धक्का दे दिया.........!!


(श्री गुरदयाल सिंह जी)

श्री गुरदयाल सिंह जी मेरे राजनीतिक मित्र होने के साथ-साथ मेरे समाज के स्वजातीय भी हैं।
ये प्रजापति संघ उत्तराखण्ड के संरक्षक हैं और मैं प्रदेश अध्यक्ष हूँ।
इनके एक पुत्र भारतीय सेना में कैप्टेन हैं इसलिए इनका इलाज भी मिलिट्री हास्पीटल में ही चलता है।
पिछले दिनों ये काफी बीमार रहे। अतः इलाज के लिए इन्हें बरेली के सेना के अस्पताल में भर्ती किया गया। लेकिन इनकी स्थिति गम्भीर होती गयी।
मैं भी इन्हे देखने के लिए बरेली गया। रात के 11 बजे इनकी साँसे अनियमित हो गयी और थोड़ी देर में साँस थम भी गई।
सब लोग रोने-पीटने लगे। डाक्टर डेथ सर्टिफिकेट बनाने की तैयारी में लग गये।
करीब 10 मिनट बाद इनकी जोर से चिल्लाने की आवाज आई-
‘‘धक्का दे दिया! धक्का दे दिया!!’’
ये जोर से चिल्लाये जा रहे थे। साँसे नियमित हो गयीं थीं।
अब ये बात भी करने लगे।
हम लोगों ने इनसे पूछा कि भाई साहब! आप चिल्ला क्यों रहे थे?
हमें इन्होंने विस्तार से बताया कि दो सरदार जी मुझे खींच कर एक ऐसे स्थान पर ले गये, जहाँ बहुत शान्ति थी। वहाँ भी एक सरदार जी बड़ा सा मुकुट लगाये सिंहासन पर बैठे थे।
जिनके एक ओर कछ लोग रो रहे थे और दूसरी ओर कुछ लोग हँस रहे थे। मैं तार्किक तो हूँ ही मैंने उनसे पूछा-
‘‘सरदार जी ! ये क्या तमाशा है?ये लोग क्यों हँस और रो रहे हैं।’’
अब धर्मराज जी ने मेरी ओर देखा और मुझे अपने पास बुलाया।
मैं जैसे ही उनके पास गया। उन्होंने मुझे ऐसा धक्का दिया कि मैं सँभल नही पाया और मेरे मुँह से निकल पड़ा-
‘‘धक्का दे दिया! धक्का दे दिया!!’’
यह अपनी बात सुना ही रहे थे कि इसी वार्ड में हमें लोगों की रोने की आवाजें सुनाई दीं।
पता लगा कि चौथे बेड पर पड़ा रोगी मर गया।


मंगलवार, सितंबर 22, 2009

‘‘बुढ़ऊ सुधर गये हो क्या?" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



यह कथा सच्ची नही अपितु एक बुढ़ऊ की तो हो ही सकती है। जिनकी उम्र 50 के लपेटे में होगी।
कविता क्या होती है?

इससे उनका कोई भी लेना-देना नही था। मगर कविताएँ ठेलने का उन्हें बड़ा शौक चर्राया हुआ था।
इस आयु में भी वह आशिक-माशूक की पराकाष्टा की सीमा को लाँघते हुए रात-दिन लेखन में मशगूल रहते थे।
बड़े-बड़े दिग्गज भी उपहास की दृष्टि से मजा लेने के लिए उनको टिपियाते रहते थे।
ये ज़नाब भी रसिया थे और कभी भी गम्भीरता से अपने सत्-साहित्य पर मनन नही करते थे।

एक दिन किसी हास्य रस के एक सशक्त हस्ताक्षर ने अपनी टिप्पणी में इन्हें एक मीठी-फटकार और नेक सलाह भी दे थी। मगर ये उनका आशय नही समझे और अपना रसिया-राग नही छोड़ा।
अन्ततः एक सुधि पाठक ने ये टिप्पणी देकर
BAHUT KOOB ..... JI.
AAPKI HALAT TO US DOGGI JAISI HAI JISE KHUJALI VALI KUTIYA BHI PARI NAZAR AATI HAI.
KYA TUM APANI BIBI SE SANTUST NAHI HO.
इन्हें इस ब्रह्मास्त्र से परास्त कर ही दिया। आज भी यह टिप्पणी इनकी किसी पोस्ट पर अभी भी चमक रही होगी।
लेकिन, इसके बाद महोदय ने टिप्पणियों पर माडरेशन लागू कर दिया। शायद ये कुछ तो सुधर ही गये होंगे।

बहुत बधाई जी!

बुधवार, सितंबर 16, 2009

‘‘हिन्दी संयुक्ताक्षर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


यदि संयुक्ताक्षर शब्द के अर्थ पर ध्यान दें तो संयुक्त + अक्षर। अर्थात् दो या दो से अधिक अक्षरों के मेल से बने अक्षरों को संयुक्ताक्षर कहते हैं।
देखने में यह आया है कि विद्वानों ने ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ को तो हिन्दी वर्णमाला में सम्मिलित करके या तो इन्हें प्रिय मान लिया है या इन्हें संयुक्ताक्षर की परिधि से पृथक कर दिया है। यह मैं आज तक समझ नही पाया हूँ। जबकि संयुक्ताक्षरों की तो हिन्दी में भरमार है। फिर ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ को हिन्दी वर्णमाला में क्यों पढ़ाया जा रहा है?
कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी का ज्ञान प्राप्त करने वाला विद्यार्थी कभी इनकी तह में जाने का प्रयास ही नही करता है। इसीलिए आज इनका उच्चारण भी दूषित हो गया है।
क् + ष = क्ष, इसका उच्चारण आज ‘‘छ’’ ही होने लगा है।
त् + र = त्र, इसकी सन्धि पर किसी का ध्यान ही नही है और
ज् + ञ = ज्ञ,
सबसे अधिक दयनीय स्थिति तो ‘‘ज्ञ’’ की है।
‘‘ज्ञ’’ का उच्चारण तो लगभग ९९.९९ प्रतिशत लोग ‘‘ग्य’’ के रूप में करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह पढ़े-लिखे लोग हिन्दी की वैज्ञानिकता को झुठलाने लगे हैं।
आखिर इस स्थिति का जिम्मेदार कौन हैं?
मैं इसका यदि सीधा-सपाट उत्तर दूँ तो-
इसकी जिम्मेदार केवल और केवल ‘‘अंग्रेजी’’ है।
उदाहरण के लिए यदि ‘‘विज्ञान’’ को रोमन अंग्रेजी में लिखा जाये तो VIGYAN विग्यान ही लिखा जायेगा। यही हमारे रोम-रोम में व्याप्त हो गया है।
आज आवश्यकता है कि हिन्दी वर्णमाला में से ‘‘क्ष’’ ‘‘त्र’’ ‘‘ज्ञ’’ संयुक्ताक्षरों को बाहर कर दिया जाये। तभी तो संयुक्ताक्षरों का मर्म हिन्दी शिक्षार्थियों की समझ में आयेगा।
तब अन्य संयुक्ताक्षरों के साथ -
घ् + र = घ्र, घ् + न = घ्न, ष् + ट = ष्ट, आदि के साथ
क + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ और श् + र = श्र
सिखाया जा सकेगा।

शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

"बूढ़े तोते ब्लॉगिग सीख रहे हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

‘‘बूढ़े तोतों की पाठशाला’’
करीब सात माह पहले जब मैं ब्लॉगिग की दुनिया में आया था तो सोचता था कि कैसे इस महासागर में अपने पैर जमा सकूँगा। लेकिन ब्लॉग-जगत इतना सहृदय है कि इस दुनिया की पुण्यशीलात्माओं ने सदैव मेरा उत्साहवर्धन किया।
आप सबके स्नेह ने मुझे इतना बल दिया कि मैंने कुछ बूढ़े तोतों को ब्लॉगिग सिखाना प्रारम्भ कर दिया है।
नजर डाल लें मेरे इन ब्लॉगार्थियों पर-






इनमें से कुछ तोतों ने तो ब्लॉगिग की ए-बी-सी-डी रट भी ली है। लेकिन कुछ इनमें से अभी ऐसे हैं जो अपना पुराना राग ही अलापते हैं।
आपको एक राज की बात बताऊँ कि ये बूड़े तोते प्रतिदिन मेरी ब्लॉगिग की पाठशाला में हाजिरी जरूर लगाने आ जाते हैं।

गुरुवार, सितंबर 03, 2009

‘‘अन्त समय देख कर ढोंग-ढकोसला खत्म’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



हमारी रिश्तेदारी में एक सज्जन हैं ‘‘श्री रामचन्द्र आर्य’’ वो रिश्ते में हमारे मामाश्री लगते हैं।
उनकी उम्र इस समय 80 वर्ष के लगभग है। प्रारम्भ से ही उनका क्रोधी स्वभाव रहा है।
आज से 28 वर्ष पूर्व उनकी श्रीमती अर्थात हमारी मामी जी का देहान्त हो गया था। तब से तो वो बिल्कुल उन्मुक्त ही हो गये थे। क्योंकि सद्-बुद्धि देने वाला कोई घर में रहा ही नही।
परिवार में 6 पुत्रियाँ तथा सबसे छोटा एक पुत्र है। सभी विवाहित हैं। मनमानी करने की तो शुरू से ही इनकी आदत रही है। अतः मामी जी की मृत्यु के उपरान्त इन्होंने पीले वस्त्र धारण कर लिए। दाढ़ी व केश भी बढ़ा लिए। मुकदमा लड़ना अपना पेशा बना लिया।
इसके लिए इन्होंने अपने सगे पुत्र को भी नही बख्शा। छहों पुत्रियों में गुट-बन्दी करा दी। क्योंकि उस समय इनके शरीर में बल था।
अब एक वर्ष से ये बीमार रहने लगे हैं। अतः ऐंठ कुछ कम हो गयी है।
मृत्यु का भय भी सता रहा है तो दाढ़ी व केश कटा लिए हैं। पुत्र एवं पुत्र-वधु भी खूब सेवा कर रहे हैं।
यह संस्मरण लिखने का कारण यह है कि यदि विनम्रता और सहनशीलता हो गैर भी अपने बन जाते हैं।
काश् इन्होंने बलशाली होते हुए इस गुण को अपनाया होता।