मंगलवार, जून 30, 2009

‘‘महाकवि तुलसीदास’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)‘‘

"सूर-सूर तुलसी शशि, उडुगन केशव दास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश।।’’

ब्लागर मित्रों!

आज से 20 वर्ष पूर्व मेरा एक लेख

नैनीताल से प्रकाशित होने वाले

समाचारपत्र
"दैनिक उत्तर उजाला"

में प्रकाशित हुआ था।

भगवान राम की गाथा को
रामचरित मानस के रूप में

जन-जन में प्रचारित करने वाले महाकवि तुलसीदास की स्मृति

उर में संजोए हुए यह लेख मूलरूप में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

इसे साफ-साफ पढ़ने के लिए-

कृपया समाचार की कटिंग पर

एक चटका लगा दें।

सोमवार, जून 29, 2009

‘‘बचपन बड़ा अजीब होता है’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



उल्लू की कहानी

आज से लगभग 25-26 वर्ष पुरानी बात है।

मैंने उन दिनों खटीमा में छोटे बच्चों का विद्यालय खोल लिया था। एक बालक तीन-साढ़े तीन वर्ष की उम्र में शिशु कक्षा में प्रविष्ट हो गया। उसके पिता जी नित्य-प्रति बेकरी से बिस्कुट, ब्रेड आदि लेकर साइकिल से फेरी लगाते थे।

सौरभ नाम के इस बालक का मन पढ़ने में बिल्कुल नही लगता था। परन्तु बातें यह बहुत प्यारी करता था।

विद्यालय में प्रत्येक शनिवार को बाल सभा होती थी। उसमें यह बालक निःसंकोच खड़ा हो जाता था। पहले तो दीदी जी की याद कराई हुई कविताएँ ही सुनाता था, लेकिन बाद में अपने मन से बना कर ऊल-जलूल कहानी भी सुना देता था।

एक दिन मैंने बाल सभा में बच्चों को उल्लू की कहानी सुनाई।

कहानी सुन कर यह बालक भी माइक पर आ गया।

इसने जो कहानी सुनाई वह कुछ इस प्रकार है-

‘‘भैया जी- हाँ जी! कैसे बैठोगे?

(हाथ बाँध कर बोला) ऐसे!!

भैया जी मेरे घर में एक उल्लू है। जो सुबह साइकिल लेकर निकल पड़ता है। पहले तो वह मुझे स्कूल छोड़ता है। फिर आवाज लगाता है- ब्रैड, टोस्ट, बिस्कुट। यह ऐसा उल्लू है जो साइकिल चलाना जानता है। अंधेरे में ही निकल पड़ता है। खुद तो कभी कुछ पढ़ता-लिखता नही। कभी स्कूल भी नही जाता है। दीदी जी का दिया हुआ होम-वर्क भी नही करता है।

हाँ! मुझे जरूर मार-मार कर होम वर्क करने को मजबूर करता है।

देखो! है ना उल्लू।’’

आज यह बालक युवा हो गया है। एक बहुत बड़ा साफ्टवेअर इंजीनियर बन गया है। यह जब भी घर आता है तो बड़ी श्रद्धा से मुझसे मिलने के लिए आता है।

मैं इसे जब भी यह कहानी याद दिलाता हूँ तो यह आज भी शरमा जाता है।

किसी ने सच ही कहा है- ‘‘बचपन बड़ा अजीब होता है।’’

शनिवार, जून 27, 2009

‘‘कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है।’’ . रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

आज लोगों को स्वाइन-फ्लू का डर सता रहा है। इससे पहले बर्ड-फ्लू फैल गया था।
वह दिन दूर नही जब बकरा-फ्लू और भैंसा-फ्लू भी दुनिया को अपनी
गिरफ्त में ले लेगा।
लेकिन आज तक लौकी-फ्लू, टिण्डा-फ्लू , तुरई-फ्लू, परबल--फ्लू या
करेला-फ्लू का नाम नही सुना गया।
इतनी बात तो तय है कि ये सारी बीमारियाँ केवल मांसाहार से ही
होती हैं।
भारत के ऋषि-मुनि यह समझाते-समझाते हार गये कि मांसाहार छोड़ो।
आज वह समय आ गया है कि लोग स्वयं ही मांसाहार छोड़कर
शाकाहारी बनने को मजबूर हो गये हैं।
कुदरत की एक ही मार से दुनियाभर के होश ठिकाने आ गये।
सच ही है कि कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है।

मंगलवार, जून 23, 2009

‘‘मोहन राकेश- एक विहंगम दृष्टि’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मोहन राकेश-
मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 को एक समृद्ध, सुसंस्कृत सिन्धी परिवार में अमृतसर में हुआ था। वे स्वच्छ जीवन के विश्वासी थे। उनकी प्रेयसी पत्नी का नाम अनिता औलिक था। वे यायावर प्रकृति के थे।
उनकी मृत्यु 3 दिसम्बर 1972 को मात्र 48 वर्ष की आयु में ही हो गयी
योगदान-
मोहन राकेश ने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, यात्रावृत्तऔर डायरी आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में अपनी कलम चलाई।
उपन्यास-
मोहन राकेश ने कुल छः उपन्यास लिखे।
अन्धेरे बन्द कमरे (1961), न आने वाले कल (1968) और अन्तराल (1972) प्रमुख
कहानी-संग्रह-
मोहन राकेश के 11 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं-
अपरिचित (1957), नये बादल (1957), मवाली (1958), परमात्मा का कुत्ता (1958), इंसान के खंडहर (1958), आद्र्धा (1958), आखिरी सामान (1958), मिस पाल (1959), सुहागिनें (1961), औलाद का आकाश (1966) और एक-एक दुनिया (1969)
एकांकी-
मोहन राकेश का एक एकांकी संग्रह ‘अण्डे के छिलके तथा अन्य एकांकी’ प्रकाशित हुआ है।
नाटक-
मोहन राकेश के कुल चार नाटक प्रकाशित हुए हैं-
आषाढ़ का एक दिन (1959), लहरों के राजहंस (1963), आधे-अधूरे (1969) और गाँव तले की जमीन उनका अधूरा नाटक था।

शनिवार, जून 20, 2009

‘‘घूमों गाँव‘नगर में’’ (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


उत्तर के अखण्ड का, खण्डूरी जी पीछा छोड़ो।

राज नाथ के साथ, नई-दिल्ली से नाता जोड़ो।।

मटियामेट किया सूबे को, बिजली की भारी किल्लत।

झेल रहे हो नाहक क्यों, अपमानों की सारी जिल्लत।।

गुटबन्दी फैला दी, तुमने अपने ही दल में घर में।

हिम्मत है तो दल की खातिर, घूमों गाँव-नगर में।।

गुरुवार, जून 18, 2009

‘‘विवाह-सम्बन्ध में जल्दबाजी अच्छी नही होती’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


मैं प्रजापति समाज से हूँ। मेरे छोटे पुत्र ने एम.कॉम.,बी.एड. किया हुआ है। मैं उसके लिए पुत्रवधु के रूप में एक कन्या की तलाश में था।

पिछले कुछ माह पूर्व एक सज्जन अपने मौसेरे भाई को साथ लेकर मेरे यहाँ पधारे। वो टेलीफोन विभाग में इंजीनियर के पद पर आसीन थे। गुजरात में कार्यरत थे। लेकिन रहने वाले बरेली के पास के किसी गाँव के थे।

उनकी पुत्री ने भी एम.एससी., बी.एड. किया हुआ था। वो हमारे घरेलू वातावरण को देखकर बड़े प्रभावित हुए।

अन्ततःलड़की दिखाने की तारीख तय हो गयी। हम लोग परिवार सहित लड़की देखने के लिए बरेली पहुँचे। अच्छे वातावरण में बातें हुईं।

इंजीनियर साहब और उनके सगे-सम्बन्धी हम लोगों से राय माँगने लगे और साथ ही अनुनय-विनय भी करने लगे कि साहब गरीब को भी निभा लीजिए।

मैंने अपने पुत्र से बात की तो उसने भी सहमति प्रकट की। परन्तु हमारी श्रीमती जी ने कहा कि इनकी बिटिया से भी तो सहमति लेनी चाहिए।

अतः उनके परिवार की मौजूदगी में मेरा पुत्र और श्रीमती जी लड़की से बात करने चले गये।

मेरे पुत्र ने लड़की से कहा- ‘‘क्या मैं आपको पसन्द हूँ? आपके पिता जी मुझसे मेरी राय पूछ रहे हैं।’’

लड़की ने उत्तर दिया- ‘‘इतनी जल्दी क्या है? मुझे भी सोचने का समय दो और आप भी सोचने का वक्त लो।’’

लड़की के पिता ने फिर हम लोगों से पूछा तो हमने सारी बातचीत उन्हें बताई।

उन्होंने बेटी से इस विषय में बात की, लेकिन उसने हामी नही भरी।

अतः विवाह सम्बन्ध करने में जल्दबाजी से काम नही लेना चाहिए। आज जमाना बहुत बदल गया है। खूब सोच-विचार कर ही विवाह सम्बन्ध तय करने चाहिए।

अगर हम लोग हाँ कह देते तो पुत्र और पुत्रवधु दोनो का जीवन नर्क बन जाता।

बुधवार, जून 17, 2009

‘‘इस सुराज से तो अंग्रेजों का राज बहुत अच्छा था’’

आज के जमाने को देख-देखकर पुराने लोग बड़े हैरान हैं। वो अक्सर कहते हैं कि इस सुराज से तो अंग्रेजों का राज बहुत अच्छा था।

घटना आज से लगभग 80 वर्ष पुरानी होगी।

मेरे पिता जी अक्सर इस घटना को सुनाते हैं। नजीबाबाद से 5-6 किमी दूर श्रवणपुर के नाम से एक गाँव है। वहाँ मेरी बुआ जी रहतीं थी। उनके ससुर जी बड़े पराक्रमी थे। वो अपनी बिरादरी के जाने माने चैधरी थे।

उन दिनों अंग्रेजी शासन था। एक अंग्रेज आफीसर बग्घी में सवार होकर गाँव के कच्चे रास्ते से सैर करने जा रहा था। मेरी बुआ जी के ससुर ने उनको कहा कि इस रास्ते में आगे कीचड़ है। इसलिए अपनी बग्गी को आगे मत ले जाओ। नही तो कीचड़ में फँस जायेगी। लेकिन अंग्रेज नही माना और आगे बढ़ गया।

कुछ दूर पर कीचड़ में उसकी बग्घी फँस गयी। वो गाँव में आया और कुछ लोगो की मदद से अपनी बग्घी को कीचड़ में से निकलवा लाया।

अब वो सीधे मेरी बुआ जी के ससुर के पास आया और उनको 25 रुपये ईनाम स्वरूप भेंट किये। जिन्होंने उसकी बग्घी को कीचड़ से निकाला था उनको भी एक-एक रुपये का ईनाम दिया।

बाद में पता लगा कि यह आफीसर जिले का डिप्टी कलेक्टर था।

इस आफीसर ने सबसे पहला काम यह किया कि उस रोड को ऊँची करा कर उसमें खड़ंजा लगवाया।

पिता जी कहते हैं कि आज ऐसे आफीसर कहाँ हैं?

आज तो नेताओं से लेकर अधिरियों तक के मुँह खून लगा है। हर काम में कमीशन व रिश्वतखोरी का बोल-बाला है। न्याय तक में भी रिश्वत का ही सिक्का चलता है। इसीलिए गरीब आदमी को न्याय नही मिल पाता है।

इससे तो लाख गुना बेहतर अंग्रेजी राज था।

मंगलवार, जून 16, 2009

‘‘वैदिक मन्तव्य’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

1985 में मैंने खटीमा में राष्ट्रीय वैदिक विद्यालय की आधार-शिला रखी थी। उस समय मैंने वैदिक सामान्य ज्ञान पुस्तक के सात भाग लिखे थे।

तभी निम्न ग्यारह वैदिक मन्तव्य भी लिखे थे-

1- मन, वचन एवं कर्म में सत्य को धारण करो।

2- ईश्वर एक है। गुण तथाकर्मों के अनुसार उसके अनेक नाम हैं।

3- मन व मस्तिष्क शान्त होने पर ही चित्त एकाग्र होता है, तभी ईश्वर की प्रार्थना उपासना करनी चाहिए।

4- माता-पिता, गुरूजनों एवं धर्मग्रन्थों का सदैव आदर करो।

5- परस्पर सद्-व्यवहार करो, सच्चरित्र बनो तथा ईश्या-द्वेष से अपने को दूर रखो।

6- भाग्य पर भरोसा कायर करते हैं। ईश्वर केवल कर्मशील व्यक्तियों की सहायता करता है।

7- मांस, मदिरा, तम्बाकू आदि का कभी भी सेवन न करो।

8- दीन-दुखियों की सहायता करो तथा जीवों पर दया करो।

9- परिवार के सभी सदस्यों को प्यार करो और उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित करो।

10-कुछ समय अपने लिए भी निकालो। अपने को देखो, अपने को जानो।

11- सुनो सबकी, अपने विवेक से कार्य करो।

रविवार, जून 14, 2009

‘‘बाबू जी हम आपको कभी नही भूल पायेंगे।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

आज सुबह 4 बजे मेरी आँखों में एक मधुर स्वप्न तैर रहा था। स्वप्न में थे मेरे परमपूज्य श्वसुर जी और वन्दनीया सासूमाता जी!
(मेरे श्वसुर श्रीमान् जानकी प्रसाद एवं सास श्री मोहन देवी)

मेरे श्वसुर बाबू जानकी प्रसाद जी रुड़की विश्वविद्यालय में आर्कीटेक्ट के पद से अवकाश प्राप्त थे। जहाँ एक ओर बाबू जी ममता की जीती जागती मूर्ति थे। वहीं दूसरी ओर माता जी श्री मोहन देवी का रौबीला स्वर होने के बावजूद बेटे-बेटियों और दामादो के प्रति अपार स्नेह मैं आज तक भूल नही पाता हूँ।
(हरिद्वार में मेरी साली श्रीमती अमरदीप,श्वसुर जी, सासू जी, मैं और मेरी पत्नी अमरभारती)

तीन वर्ष पूर्व माता जी इस संसार को छोड़कर चली गयीं और दो वर्ष पूर्व आदरणीय बाबू जी ने भी इस संसार से विदा ले ली।

माता जी के चले जाने के बाद जीवन के अन्तिम क्षणों में बाबू जी की पिछली याददाश्त तो शेष थी परन्तु वर्तमान स्मृति कमजोर हो गयी थी।

चार-चार बेटे अच्छा कमाते थे। अच्छे-अच्छे पदों पर थे। बाबू जी के पास भी एक लाख से अधिक रुपये बैंक में शेष थे। परन्तु वो सब भूल चुके थे।

जब तक याददाश्त सही सलामत थी, बाबू जी ने कभी मुझे और मेरी पत्नी को खाली हाथ विदा नही किया था।

लेकिन, जब आखिरी बार जब हम उनसे मिलने के लिए गये थे तो उन्होंने मेरी पत्नी का और मेरा माथा चूमते हुए कहा था-
‘‘मेरे पास आज तुम लोगों को देने के लिए इससे अधिक कुछ नही है।’’

मुझे याद है कि उस समय मेरा गला रुँध गया था और मैंने रुँधे हुए स्वर में उनसे कहा था-
‘‘बाबू जी हम आपको कभी नही भूल पायेंगे।’’

यही सब देख रहा था कि वह सलोना स्वप्न दूट गया और मेरी आँख खुल गयीं।
इसके बाद रोज की तरह दिनचर्या प्रारम्भ हो गयी।

शुक्रवार, जून 12, 2009

‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

जी हाँ, आप ये पढ़कर चौंकिए मत। ये तो दुनिया का दस्तूर है। एक ब्लॉगर भाई की पोस्ट आयी है। "भिक्षाम् देहि’’ इन सज्जन ने सारा दोष ब्लॉगर्स और पाठकों को दिया है। बहुत सारे शिकवे-शिकायत इस लेख में उडेल दिये हैं। लेकिन बात फिर वही आती है कि ‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’

किसी साहित्य-साधक ने बड़ा परिश्रम करके कोई पोस्ट लिखी है और उसे अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया है, तो कमेंट्स तो आयेंगे हीं। परन्तु इन कमेंट्स में यदि रचना के बारे में एक शब्द भी नही लिखा हो और केवल यह लिखा हो कि

‘‘इसे टिप्पणी न समझें, मैं अपने स्वार्थ के लिए यह लिंक लगा रहा हूँ’’

तो उस रचनाधर्मी के दिल पर क्या बीतेगी?

यह इन महोदय के अतिरिक्त आप सभी जानते हैं। क्योंकि इन्होंने सीधी सी युक्ति निकाली थी और मेरे जैसे न जाने कितने ब्लागर्स को-

‘‘इसे टिप्पणी न समझें, मैं अपने स्वार्थ के लिए यह लिंक लगा रहा हूँ’’

केवल कापी पेस्ट ही किया है। आत्म-मन्थन की तो कभी आवश्यकता ही अनुभव नही की।

मैंने तो नही लेकिन कुछ लोंगो ने इन्हें मेल के द्वारा उत्तर भी दिये, लेकिन इन्होंने उन पर कभी विचार नही किया। बल्कि पोस्ट के रूप में अपने को सही साबित करने का प्रयास किया। चलो भाई ठीक है।

कुछ ब्लॉगर्स ऐसे भी है जिन्हें टिप्पणी करके कुछ सुझाव दो तो वे उस टिप्पणी को प्रकाशित ही नही करते हैं।

बात फिर वही आती है-‘‘मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू।’’

किसी की टिप्पणी को प्रकाशित करने अथवा न करने का अधिकार तो ब्लॉग-स्वामी के पास सुरक्षित होता ही है, लेकिन इसमें वो अक्सर ईमानदारी या दरियादिली नही दिखाते हैं।

ठीक है, अश्लील टिप्पणी हो तो इसे कदापि मत प्रकाशित करो, लेकिन मेरा मत है कि यदि सुझाव के रूप में कोई टिप्पणी आयी है तो उसे अवश्य प्रकाशित करना चाहिए।

कुछ ब्लॉगर्स अपने ब्लाग पर बाल पहेली प्रतियोगिता भी लगाते हैं और उसमें पुरस्कार देने की घोषणा भी करते हैं। मेरे पौत्र ने भी ऐसी ही एक प्रतियोगिता में भाग लिया। उसको पुरस्कार देने की घोषणा भी हुई परन्तु आज तक उसे पुरस्कार नही प्रेषित किया गया।

फिर दूसरी पहेली आयी। उसमें किसी अन्य बालक ने पुरस्कार जीता, पुरस्कार की घोषणा भी हुई तो मेरे पौत्र ने उस बालक को बधायी भेजी और साथ में निवेदन भी किया कि ‘‘ये अंकल केवल पुरस्कार देने की घोषणा भर ही करते हैं, देते किसीको भी नही हैं।’’

इस टिप्पणी को आज तक प्रकाशित नही किया गया और न ही पुरस्कार भेजा गया।

एक ब्लॉगर ने किसी अन्य ब्लॉगर की रचना बिना अनुमति लिए ही छाप दी। उसके परिचय में कुछ ऐसा लिखा जिस पर मूल रचनाकार को आपत्ति थी। इसके साथ ही लिंक लगाकर कुछ यों लिखा-

"अगर आप इनकी अन्य रचनाएँ पढ़ना चाहते हैं,

तो आपको यह दुनिया छोड़कर जाना पड़ेगा ... ... ... ।

..... ... ... ज़रा सोच-समझकर ही .........................पर क्लिक् कीजिएगा!"

इस वाक्य का क्या अर्थ होगा यह सब लोग जानते हैं, क्योंकि ये तो सीधे-सीधे गाली देना हुआ। आखिर दुनिया से मोह तो सभी को होता है।

मूल रचनाधर्मी ने इस पर एक पोस्ट भी लगाई। लेकिन यह उनका बड़प्पन था कि उन्होंने वो पोस्ट निकाल दी। क्योंकि वो विवाद से बचना चाहते थे।

बहुधा यह देखा गया है कि हर व्यक्ति अपने को महाविद्वान समझता है, लेकिन यह भी सत्य है कि रचनाकार की सोच तक प्रकाशक या पाठक कभी नही पहुँच सकता है। अतः यदि हम किसी रचनाकार की रचना अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर रहे हैं तो उसमें जब तक मूल रचनाधर्मी की इजाजत न ले लें, तक तक उसमें अपनी ओर से कुछ भी न घटाएँ न बढ़ायें।

उदाहरण के लिए रचनाकार पर भाई रवि रतलामी कभी किसी रचनाकार की रचना के साथ छेड़-खानी नही करते हैं। इसीलिए वो विवादों से आज तक पाक-साफ रहे हैं।

मित्रो! मेरी इस पोस्ट को आप विवाद या चुनौती के रूप में न लें। इस लेख को लिखने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि यदि कुछ क्षण निकाल कर आत्म-मन्थन कर लें तो बेहतर होगा।

मैं भी एक सामान्य मानव ही हूँ हो सकता है कि इसमें मेरी सोच भी कही गलत हो सकती है।

बुधवार, जून 10, 2009

‘‘भूख’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

लगभग दो वर्ष पूर्व की बात है। उन दिनों मैं उत्तराखण्ड सरकार में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य था।

मेरे साथ एक सज्जन आयोग में अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए जा रहे थे। गर्मी का मौसम था इसलिए रोडवेज बस की रात्रि-सेवा से जाने का कार्यक्रम बनाया गया। रुद्रपुर से हमें देहरादून के लिए एसी बस पकड़नी थी।

खटीमा से रात्रि 8 बजे चलकर 10 बजे रुद्रपुर पहुँचे। बस के आने में एक घण्टे का विलम्ब था। सोचा खाना ही खा लिया जाये। हम दोनों खाने खाने लगे।

हमारे पास ही एक व्यक्ति जो पुलिस की वर्दी पहने था। आकर बैठ गया।

हमने उससे कहा कि भाई! हमें खाना खा लेने दो।

हमने खाना खा लिया, लेकिन 3 पराँठे बच गये।

मैं इन्हें किसी माँगने वाले या गैया को देने ही जा रहा था कि वो बोला- ‘‘साहब ये पराँठे मुझे दे दीजिए। मैं सुबह से भूखा हूँ।’’

मैंने कहा- ‘‘पुलिस वाले होकर भूखे क्यों हो।’’

वह बोला- ‘‘साहब! मेरी जेब कट गयी है।’’

मैंने अब उससे विस्तार से पूछा और कहा कि पुलिस कोतवाली में जाकर कुछ खर्चा क्यों नही ले लेते?

वह बोला- ‘‘साहब! वहाँ तो मुझे बहुत झाड़-लताड़ खानी पड़ेगी। इससे तो अच्छा है कि किसी कण्डक्टर की सिफारिश करके बस में बैठ जाऊँगा।’’

बातों बातों में मुझे पता चला कि यह सिपाही तो खटीमा थाने में ही तैनात है। मैंने उसे पचास रुपये बतौर किराये भी दे दिये। जो उसने खटीमा आने पर मुझे चार-पाँच दिन बाद लौटा दिये थे।

मुझे उस दिन आभास हुआ कि भूख क्या होती है।

एक ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति भूख में झूठे पराँठे और सब्जी खाने को भी मजबूर हो जाता है।

सोमवार, जून 08, 2009

‘‘संगठन मे ही शक्ति है।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

पिछले कुछ दिनों से मेरे नगर में विजली का संकट चल रहा है। कारण यह बताया जाता है कि लोहियाहेड (खटीमा) का पावर हाउस खराब हो गया है।

नगरवासी आखिर कब तक धैर्य रखते। वो इकट्टे होकर बिजली घर पर पहुँच गये। इस दौरान कई बिजली कर्मियों से उनकी तू-तू, मैं-मैं भी हो गयी।

यह देखकर अभियन्ता महोदय वहाँ से चुपचाप खिसक लिए और पुलिस थाने में ही आकर दम लिया। उनके पीछे-पीछे भीड़ भी थाने में ही चली आयी। पुलिस वाले भी तो आखिर इन्सान ही होते हैं। उन्हें भी गर्मी तो सताती ही है।अतः सबके सामने ही इन अभियन्ता महोदय को खूब खरी खोटी उन्होंने भी सुनाई।

तब से बिजली की स्थिति में मेरे नगर में सुधार आ गया है।

इसी से सम्बन्धित एक घटना आज से 20 वर्ष पूर्व हुई थी। उन दिनों यहाँ के विधायक नैनीताल निवासी श्री विहारी लाल जी थे।

बिजली खटीमा में लोहियाहेड में बनती थी मगर उत्तर प्रदेश होने के कारण वितरण दोहना, बरेली से होता था।अतः बिजली की स्थिति लचर ही रहती थी।

इत्तफाक से विहारी लाल जी खटीमा दौरे पर आये हुए थे। उनके सामने जब यह समस्या लोगों ने रखी तो सीधे लोहियाहेड बिजली इंजीनियर के पास गये। लेकिन वो सीधे मुँह बात करने को राजी नही था।

बिहारी लाल जी ने बहला-फसला कर उन्हें अपनी जीप में बैठाया और बनबसा के पास गढ़ीगोठ गाँव में एक भैसों की खोड़ में बन्द कर दिया।

इस प्रकरण की काफी धूम रही।

उन दिनों उ0प्र0 के मुख्यमन्त्री मा0 पं0 नारायणदत्त तिवारी होते थे। जब उनके पास यह प्रकरण गया तो उन्होंने खटीमा में विजली वितरण खटीमा के ही लोहियाहेड पावरहाउस से करने के आदेश कर दिये।

अब तो खटीमा में बिजली खूब आने लगी थी।

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि जनता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है तो समस्याओं का निदान हो ही जाता है। परन्तु इसके लिए संगठित हाने की आवश्यकता है।

सच ही कहा है- ‘‘संगठन मे ही शक्ति है।’’

शनिवार, जून 06, 2009

‘‘पाप का बाप कौन?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

आतंकवादी सीमा पार से आते हैं, कुछ पकड़े जाते है और कुछ मारे जाते हैं। कुछ जघन्य काण्ड करने में सफल भी हो जाते हैं। आखिर ये इतना बड़ा जोखिम क्यों उठाते हैं?

एक झील के किनारे एक आम का पेड़ था। उस पेड़ पर एक बन्दर रहता था और झील में एक मगरमच्छ अपनी पत्नी के साथ रहता था।

जब पेड़ पर आम के फल आते थे तो बन्दर उन फलों को खाता था। कुछ आम वो झील में भी गिरा देता था। जिन्हें मगरमच्छ बड़े चाव से खाता था।

धीरे-धीरे वो दोनों अच्छे मित्र बन गये। एक दिन मगरमच्छ ने कुछ आम अपनी पत्नी को भी दिये। आम बहुत मीठे और रसीले थे । मगरमच्छ की पत्नी को वो बहुत अच्छे लगे। उसने अपने पति से कहा कि ये बन्दर इतने मीठे आम खाता है तो इसका दिल तो बहुत मीठा होगा।

उसने मगरमच्छ से कहा- ‘‘मैं तो अब बन्दर का दिल खाकर ही मानूँगी। अन्यथा अपने प्राण त्याग दूँगी’’

मगरमच्छ ने अपनी पत्नी से कहा- "बन्दर हमारा मित्र है हमें उसके साथ ऐसा सुलूक नही करना चाहिए।"

किन्तु पत्नी की हठ के आगे मगरमच्छ की एक न चली। अतः वह बन्दर को अपनी पत्नी के सामने लाने के लिए तैयार हो गया।

वह दुखी मन से बन्दर के पास गया और उससे कहने लगा- ‘‘मित्र! तुम रोज ही हमें मीठे आम खाने को देते हो। आज हमारी पत्नी ने तुम्हारी दावत की है।’’

बन्दर ने मगरमच्छ की दावत स्वीकार कर ली और वो मगरमच्छ की पीठ पर सवार हो गया।

जैसे ही मगरमच्छ बीच झील में पहुँचा तो उसने बन्दर से कहा कि मित्र तुम बहुत मीठे-मीठे आम खाते हो। तुम्हारा दिल तो बहुत मीठा होगा। आज मेरी पत्नी तुम्हारा दिल खाना चाहती है।

बन्दर ने इस विपत्ति के समय अपना धैर्य नही खोया और वह तुरन्त मगरमच्छ से बोला- ‘‘मित्र! आपने पहले क्यों नही बताया? हम तो उछल-कूद करने वाले प्राणी ठहरे। दिल को झटका न लगे। इसलिए अपने दिल को पेड़ पर ही टाँग देते है। यदि मेरा दिल चाहिए तो मुझे वापिस पेड़ के पास ले चलो। मैं अपना दिल साथ में ले आता हूँ।’’

मूर्ख मगरमच्छ ने बन्दर की बात पर विश्वास कर लिया और उसे जैसे ही पेड़ के पास लाया। बन्दर ने छलांग लगाई और पेड़ पर चढ़ गया।

बन्दर ने मगरमच्छ से कहा- "मूर्ख! कहीं दिल भी पेड़ पर लटका करते हैं।"

कहने का तात्पर्य यह है कि पाप का बाप लोभ होता है।

एक ओर तो मगरमच्छ और उसकी पत्नी को बन्दर खाने का लोभ था तो दूसरी ओर बन्दर को दावत खाने का लोभ था।

दूसरी शिक्षा इस कहानी से यह मिलती है कि यदि प्राण संकट में भी हों तो धैर्य और बुद्धि से काम लेना चाहिए।

अब तो आप समझ ही गये होंगे कि ‘‘पाप का बाप कौन होता है।’’

गुरुवार, जून 04, 2009

‘‘जानवर भी मित्र बन जाते हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

बन्दर मोटर साइकिल पर बैठ गया।
खटीमा से 1 किमी की दूरी पर घना जंगल शुरू हो जाता है। उसमें बन्दर बहुतायत से पाये जाते हैं। लगभग एक वर्ष से श्रीमती जी के आग्रह पर मैं प्रत्येक मंगलवार को मोटर साइकिल पर बैठ कर इनको चना, गुड़ और केला खिलाने जाता हूँ।
एक माह तक यह क्रम चलने के बाद इस जंगल में मेरी दोस्ती एक बन्दर से हो गयी। मुझे देखते ही यह मेरे पास चला आता था और जब तक मैं अन्य बन्दरों को चना, गुड़ और केला खिलाता था, यह मेरे साथ ही साथ रहता था। जबकि अन्य बन्दर मुझसे डरते थे और अपना हिस्सा लेकर चले जाते थे।
एक दिन तो हद ही हो गयी। जब मैं अन्य बन्दरों को चना, गुड़ और केला खिला कर वापिस लौटने लगा तो यह मेरी मोटर साइकिल पर आगे की ओर टंकी पर बैठ गया।
अब तो इसका यह नियम बन गया है। हर मंगलवार को यह मेरे साथ मोटर-साइकिल की सवारी करता है और बस्ती आने से पहले ही मोटर साइकिल से उतर कर वापिस जंगल में चला जाता है।
प्यार में कितनी ताकत है, इसका मुझे आभास हो गया है।
दिल में अगर सच्चा प्यार हो तो जानवर भी मित्र बन जाते हैं।

मंगलवार, जून 02, 2009

‘‘अपना काम करने में शर्माना नही चाहिए’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मय्रक’ )

(मेरे 88 वर्षीय पिता श्री घासीराम जी आर्य)
गुरूनानक देव जी की कर्मस्थली नानकमत्ता साहिब में जाने का आज अचानक ही कार्यक्रम बन गया। नानकमत्ता खटीमा से दिल्ली मार्ग पर 15 किमी की दूरी पर है।
लगभग पाँच वर्ष पूर्व मैंने यहाँ पाँच-छः कमरों का मकान बनाया था। इसके चारों ओर हरे-भरे खेत हैं। इस भवन का नाम भी मैंने अपनी आशा के अनुरूप तपस्थली रखा था।
अपने गृहस्थी जीवन की झंझावातों के चलते इस भवन में कभी-कभी ही जाना होता है। आज यहाँ आया भी था। मेरे साथ मेरी पाँच वर्षीया पौत्री प्राची, श्रीमती जी और पिता जी भी थे।
मकान काफी दिनों से बन्द था, इसलिए इसके आँगन में जगह-जगह घास उग आयी थी। मेरी श्रीमती जी ने कमरों की साफ सफाई तो कर दी पर आँगन में उगी घास छीलने की समस्या थी।
मैं पास-पड़ोसियों से कह ही रहा था कि कोई मजदूर 2 घण्टे के लिए मिल जाये तो आँगन की सफाई हो जाये।
घर में आकर जब देखा तो पिता जी खुरपी लेकर घास छीलने में लगे थे। उन्होंने एक घण्टे में ही पूरे आँगन की सफाई कर दी थी।
सत्तासी-अट्ठासी वर्ष की आयु में भी उनके अन्दर काम करने की ललक देख कर मैं दंग रह गया।
मैंने पिता जी को काफी मना किया कि आप थक जाओगे। इस तरह का काम करने से हमारी पोजीशन खराब होती है।
पिता जी ने मुझे प्यार से अपने पास बैठाया और कहा-
‘‘बेटा! अपना काम करने में शर्माना नही चाहिए।"

सोमवार, जून 01, 2009

‘‘क्या ब्लागिंग नशा है?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

जिस समय मैंने कक्षा 10 की बोर्ड की परीक्षा दी तो तीन महीने की लम्बी छुट्टियाँ पड़ गयीं। मैंने सोचा कि इनका सदुपयोग किया जाये। अतः इंग्लिश टाइपिंग सीखने का मन बना लिया।

उन दिनों मेरे गृह-नगर नजीबाबाद में मुल्ला जी एक टाइपिंग सेन्टर चलाते थे। वहाँ पर मैंने दस रुपये प्रतिमाह की दर से टाइपिंग सीखनी शुरू कर दी। लगन इतनी थी कि 4-5 दिनों में ही मैंने पूरा की-बोर्ड याद कर लिया और फटा-फट टाइप करने लगा। पिता जी ने मेरी रुचि देख कर दो सौ रुपये में मुझे एक टाइप-राइटर भी दिलवा दिया।

उन दिनों हिन्दी टाइपिंग ठीक से प्रचलन में नही था। लेकिन मेरे मन में अपनी मातृ-भाषा में ही टाइप करने की प्रबल इच्छा थी।

दो साल बाद इण्टर करने के बाद फिर तीन महीने की लम्बी छुट्टियाँ पड़ गयीं। मैं अपने मामा जी के पास घूमने चला गया। मेरे मामा जी के पास उन दिनों 20 खच्चरें थी और वो पहाड़ में माल पहुँचाने के जाने-माने ठेकेदार थे।

कभी-कभी वे नेपाल के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में भी आम जरूरत के सामान का भी ढुलान किया करते थे।

मेरी पहली नेपाल यात्रा 1967 में ही शुरू हुई थी। नेपाल जाकर मैंने देखा कि विदेशी सामान की एक दूकान पर कुछ पोर्टेबल टाइप राइटर भी रखे हुए थे। उनमें एक हिन्दी टाइप राइटर भी था। बस उसे देख कर मेरा मन ललचा गया।

मामा जी से पैसे लेकर वोटाइप-राइटर मैंने साढ़े पाँच सौ रुपये में खरीद लिया। घर आकर उसका अभ्यास किया तो एक सप्ताह में हिन्दी टाइपिंग भी सीख लिया।

अब मैं कमाने लगा था और 1995 आते-आते मेरी आथिक स्थिति भी अच्छी हो गयी थी। कम्प्यूटर का युग अब शरू हो गया था। अतः मैंने एक लाख रुपये व्यय करके एक कम्प्यूटर भी खरीद लिया था और 1997 में मैंने सिर्फ किताब को गुरू मान कर इसे चलाना सीख लिया था।

इसके 10 साल बाद नेट का युग भी आया। मैं अब नेट भी चलाने लगा था, परन्तु नेट पुराने गाने, गेम आदि खेलने के लिए ही प्रयोग करता था। तब तक ब्राड-बेण्ड नही आया था। इसलिए नेट बहुत धीमा चलता था।

सन् 2008 में मेरे नगर खटीमा में ब्राड-बैण्ड की सुविधा उपलब्ध हो गयी और जनवरी 2009 के अन्त में मन में इच्छा हुई की अपना एक ब्लाग बना कर उसमें कुछ लिखा जाये।

एक मित्र की कृपा से मेरा ब्लाग बन गया और तब से नियमित रूप से प्रतिदिन अपने ब्लाग उच्चारण में कुछ न कुछ अवश्य लिखता हूँ।

अभी परसों की ही बात है। मेरे घर में छुट-पुट निर्माण कार्य चल रहा था। शाम को 6 बजे जैसे ही राज-मजदूर छुट्टी करके गये। मैं नेट पर आ गया और अपने काम में तल्लीन हो गया था। लेकिन मच्छरों की क्वाइल जलाना भूल गया था। पैरो में मच्छर काट रहे थे और हाथ की बोर्ड पर चल रहे थे।

आखिर ये कैसा नशा है? कभी-कभी तो भूख-प्यास का भी आभास नही होता है और समय कब गुजर गया इसका पता ही नही लगता है।

क्या ब्लागिंग वास्तव में नशा है?