शनिवार, जून 27, 2009

‘‘कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है।’’ . रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

आज लोगों को स्वाइन-फ्लू का डर सता रहा है। इससे पहले बर्ड-फ्लू फैल गया था।
वह दिन दूर नही जब बकरा-फ्लू और भैंसा-फ्लू भी दुनिया को अपनी
गिरफ्त में ले लेगा।
लेकिन आज तक लौकी-फ्लू, टिण्डा-फ्लू , तुरई-फ्लू, परबल--फ्लू या
करेला-फ्लू का नाम नही सुना गया।
इतनी बात तो तय है कि ये सारी बीमारियाँ केवल मांसाहार से ही
होती हैं।
भारत के ऋषि-मुनि यह समझाते-समझाते हार गये कि मांसाहार छोड़ो।
आज वह समय आ गया है कि लोग स्वयं ही मांसाहार छोड़कर
शाकाहारी बनने को मजबूर हो गये हैं।
कुदरत की एक ही मार से दुनियाभर के होश ठिकाने आ गये।
सच ही है कि कुदरत की लाठी में आवाज नही होती है।

2 टिप्‍पणियां:

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