उल्लू की कहानीआज से लगभग 25-26 वर्ष पुरानी बात है। मैंने उन दिनों खटीमा में छोटे बच्चों का विद्यालय खोल लिया था। एक बालक तीन-साढ़े तीन वर्ष की उम्र में शिशु कक्षा में प्रविष्ट हो गया। उसके पिता जी नित्य-प्रति बेकरी से बिस्कुट, ब्रेड आदि लेकर साइकिल से फेरी लगाते थे। सौरभ नाम के इस बालक का मन पढ़ने में बिल्कुल नही लगता था। परन्तु बातें यह बहुत प्यारी करता था। विद्यालय में प्रत्येक शनिवार को बाल सभा होती थी। उसमें यह बालक निःसंकोच खड़ा हो जाता था। पहले तो दीदी जी की याद कराई हुई कविताएँ ही सुनाता था, लेकिन बाद में अपने मन से बना कर ऊल-जलूल कहानी भी सुना देता था। एक दिन मैंने बाल सभा में बच्चों को उल्लू की कहानी सुनाई। कहानी सुन कर यह बालक भी माइक पर आ गया। इसने जो कहानी सुनाई वह कुछ इस प्रकार है- ‘‘भैया जी- हाँ जी! कैसे बैठोगे? (हाथ बाँध कर बोला) ऐसे!! भैया जी मेरे घर में एक उल्लू है। जो सुबह साइकिल लेकर निकल पड़ता है। पहले तो वह मुझे स्कूल छोड़ता है। फिर आवाज लगाता है- ब्रैड, टोस्ट, बिस्कुट। यह ऐसा उल्लू है जो साइकिल चलाना जानता है। अंधेरे में ही निकल पड़ता है। खुद तो कभी कुछ पढ़ता-लिखता नही। कभी स्कूल भी नही जाता है। दीदी जी का दिया हुआ होम-वर्क भी नही करता है। हाँ! मुझे जरूर मार-मार कर होम वर्क करने को मजबूर करता है। देखो! है ना उल्लू।’’ आज यह बालक युवा हो गया है। एक बहुत बड़ा साफ्टवेअर इंजीनियर बन गया है। यह जब भी घर आता है तो बड़ी श्रद्धा से मुझसे मिलने के लिए आता है। मैं इसे जब भी यह कहानी याद दिलाता हूँ तो यह आज भी शरमा जाता है। किसी ने सच ही कहा है- ‘‘बचपन बड़ा अजीब होता है।’’
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आदरणीय शास्त्री जी ,
जवाब देंहटाएंआपके शब्दों में बंधकर हर विधा खुद बखुद रोचक बन जाती है ...बहुत अच्छा रोचक संस्मरण .
पूनम
बहुत रोचक!
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