शुक्रवार, मई 29, 2009

‘‘पुण्य तिथि पर विशेष’’ अन्तिम कड़ी (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

धन्य-धन्य तुमवीर जवाहर, धन्य तुम्हारी माता।
जुड़ा रहेगा जन-गण-मन से, सदा तुहारा नाता।
पण्डित जवाहरलाल की बहिनें भी देश के इस कार्य में कभी पीछे नही रहीं। स्वतन्त्रता की लड़ाई में उन्होंने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया। भारत भूमि को दासता से मुक्त कराने के लिए उन्होंने भी यातनाएँ सहीं।
पं0 नेहरु के ही शब्दों में............
"मेरी बहिनों की गिरफ्तारी के बाद शीघ्र ही कुछ युवती लड़कियाँ जिनमें से अधिकांश 15 या 16 वर्ष की थीं। इलाहाबाद में इस बात पर गौर करने के लिए इकट्ठा हुई थी कि अब क्या करना चाहिए। उन्हें कोई अनुभव तो था ही नही। उनमें जोश था और वो सलाह लेना चाहतीं थीं कि हम क्या करें, लेकिन आज वे प्राइवेट घर में बैठी बाते कर रहीं थीं, गिरफ्तार कर ली गयीं। हरेक को दो-दो साल की सख्त कैद की सजा दी गयी, यह तो उन छोटी-छोटी घटनाओं में से एक थी, जो उन दिनों आये दिन हिन्दुस्तान भर में हो रही थी।जिन लड़कियों व स्त्रियों को सजा मिली, उनमें से ज्यादातर को बहुत कठिनाई पड़ी। उन्हें मर्दों से भी ज्यादा तकलीफ भुगतनी पड़ी।’’
कहानी यहीं पर खत्म नही होती, जवाहरलाल कमला जैसी पत्नी को पाकर धन्य हो गये। श्रीमती कमला नेहरू ने अपने जीवन को सुखी और आरामदायक बनाने के लिए कभी भी प्रयास नही किया। बल्कि देश सेवा में लगे अपने पति को सदैव ही देश सेवा के लिए उत्साहित किया। उसने पति के प्यार को देश सेवा के मार्ग में आड़े नही आने दिया। यह पण्डित नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में व्यस्त हो जाने के कारण वे कमला नेहरू के प्रति उदासीन हो गये थे।
उन्हीं के शब्दों में.............
‘‘हमारी शादी के बिल्कुल साथ-साथ देश की राजनीति में अनेक घटनायें हुईं और उनकी ओर मेरा झुकाव बढ़ता गया। वे होमरूल के दिन थे। इसके पीछे पंजाब में फौरन ही मार्शल-ला और असहयोग का जमाना आया और मैं सार्वजनिक कार्यो की आँधी में अधिकाधिक फँसता ही गया। इन कार्यो से मेरी तल्लीनता इतनी बढ़ गयी थी, ठीक उस समय जबकि उसे मेरे पूरे सहयोग की आवश्यकता थी।’’
श्रीमती कमला नेहरू ने अस्वस्थ होते हुए भी सत्याग्रह आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। मेरी कहानी में पं0 जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं-
‘‘इसके बाद उसकी बीमारी का दौर शुरू हुआ और मेरा लम्बा जेल निवास। हम केवल जेल की मुलाकात के समय ही मिल पाते थे।..............और उसे स्वयं जेल जाने पर बड़ी खुशी हुई। बीमारी के दिनों में श्रीमती कमला नेहरू को अपने स्वास्क्य की नही बल्कि देश की चिन्ता थी। नेहरू जी के शब्दों में............ ‘‘राष्ट्रीय युद्ध में पूरा हिस्सा लेने में अशक्त हो जाने के कारण उसकी तेजस्वी आत्मा छटपटाती रहती थी।...........नतीजा यह हुआ कि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहने वाली आग ने उसके शरीर को खा लिया।’’
अपनी मृत्यु के पश्चात भी शायद वे नेहरू जी को कुछ यों सात्वना दे गयीं।
स्वयं काट कर जीर्ण ध्यान को, दूर फेंक देती तलवार।
इसी तरह चोला अपना यह, रख देता है जीव उतार।।
नेहरू जी की प्यारी बेटी इन्दु! हाँ अपनी माता तथा दादी माँ के संस्कारों में पली इन्दुने तो भारतवासियों को एक ऐसा प्रकाश दिया, जिसमें भारत सदियों तक चमकता व दमकता रहेगा। आकाश के चन्द्रमा की भाँतिभारत की इस प्रियदर्शिनी इन्दिरा की त्याग व बलिदान की कहानी कहने में तो लेखनी व शब्द दोनों ही अपने को असहाय अनुभव करते हैं। वह देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे माता-पिता की गोद में पली तथा भारत माता की सेवा करते उसकी गोद में हमेशा-हमेशा के लिए सो गयी।
जब-जब भी भारत का नाम लिया जायेगा, पं0 जवाहर लाल नेहरू का नाम कभी विस्मृत नही किया जा सकता। साथ ही उनकी माँ, बहिन, पत्नी व पुत्री के नाम को देशवासी ही नही अपितु विश्व के लोग भी सदा आदर के साथ श्रद्धा से याद करते रहेंगे।
(मेरा यह लेख 14 नवम्बर सन् 1989 को उत्तर उजाला, नैनीताल से
प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था ‘‘देश सेवा हेतु समर्पित नेहरू परिवार’’)

गुरुवार, मई 28, 2009

‘‘पुण्य तिथि पर विशेष’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

पीड़ा के परिवेश में दम तोडता सिसकता परिवार यदि यदि समय आने पर देशभक्त बन जाये तो कोई आश्चर्य की बात नही है। किन्तु सम्राट के युवराज जैसा जीवन व्यतीत करने वाला कोई नवयुवक यदि अपने सारे वैभव छोड़कर देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दे तो यह विश्व के लिए एक अनोखा आश्चर्यजनक उदाहरण नही तो और क्या है?

जवाहर लाल ने भारत को स्वतन्त्र करने के लिए जो कष्ट सहे और कुर्बानियाँ दीं उनको भला कौन भूल सकता है?


अपनी माता श्रीमती स्वरूपरानी के विषय में जवाहर लाल लिखते हैं।


‘‘इलाहाबाद में मेरी माँ उस जलूस मे थीं, जिसे पुलिस ने पहले तो रोका और फिर लाठियों से मारा। जिस वक्त जुलूस रोक दिया गया, उस वक्त किसी ने मेरी माँ के लिए एक कुर्सी ला दी। वह जुलूस के आगे उस कुर्सी पर बैठी हुई थी। कुछ लोग जिनमें मेरे सेक्रेटरी वगैरा शामिल थे और जो खास तौर पर उनकी देखभाल कर रहे थे। गिरफ्तार करके उनसे अलग कर दिये गये। मेरी माँ को धक्का देकर कुर्सी से नीचे गिरा दिया गया और उनके सिर पर लगातार बैंत मारे। जिससे उनके सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा और वो बेहोश होकर सड़क पर गिर गयीं। उस रात को इलाहाबाद में यह अफवाह उड़ गयी कि मेरी माँ का देहान्त हो गया है। यह सुन कर कुछ जनता की भीड़ ने इकट्ठे होकर पुलिस पर हमला कर दिया। वे शान्ति और अहिंसा की बात को भूल गये। पुलिस ने उन पर गोली चलाई। जिससे कुछ लोग मर गये। इस घटना के कुछ दिन बाद जब इन बातों की खबर मुझ तक पहुँची तो अपनी कमजोर और बूढ़ी माँ के खून से लथ-पथ धूलढूलाभर सड़क पर पड़ी रहने का ख्याल मुझे रह-रह कर सताने लगा.........


धीरे-धीरे वह चंगी हो गयी और जब दूसरे महीने बरेली जेल में मुझसे मिलने आयी तब उनके सिर पर पट्टी बँधी थी लेकिन उन्हें इस बात की भारी खुशी थी और महान गर्व था कि वह हमारे स्वयं-सेवकों और सवयं-सेविकाओं के साथ बैंतों और लाठियों की मार खाने के सम्मान से वंचित नही रहीं।’’


स्वतन्त्र भारत के निर्माता पं.जवाहर लाल नेहरू को शत्-शत् नमन।


क्रमशः...............।

बुधवार, मई 27, 2009

‘‘................और रेखा छोटी हो गयी’’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

दो-शब्दों में अपनी बात कहना चाहता हूँ और वे दो-शब्द हैं, ‘‘अभिमान और स्वाभिमान’’। दोनों का ही अपना-अपना महत्व है।
अभिमान में यदि ‘‘सु’’ लगा दिया जाये तो वह गौरव का प्रतीक बन जाता है। एक ओर जहाँ अभिमान हमें पतन के रास्ते की ओर लेकर जाता है तो दूसरी ओर स्वाभिमान हमारे लिए उन्नति के मार्ग प्रशस्त करता है।
मेरे एक अभिन्न मित्र हैं। वो बड़े विद्वान हैं लेकिन अभिमान उनका स्वाभविक गुण-धर्म है।यदि उनसे कोई भूल हो जाये तो वो उसको कभी स्वीकार नही करते हैं। लेकिन दूसरों की बहुत छोटी-छोटी गल्तियों को उजागर करने में कभी नही हिचकते हैं। वो यह भी जानने का प्रयास नही करते कि कहीं किसी मजबूरी के चलते तो यह मानव-सुलभ त्रुटियाँ तो नही हो गयी हैं।
बस, उन्हें एक ही चिन्ता रहती है कि उनका कथित एकाधिकार कोई छीनने का प्रयास नही कर रहा है।
मुझे याद है आ रही है अपने बाल्य-काल की एक घटना।
मैं उन दिनों कक्षा-8 का छात्र था।
सामान्य ज्ञान का पीरियड चल रहा था। मौलाना फकरूद्दीन सामान्य-ज्ञान पढ़ा रहे थे।
उन्होंने श्याम-पट पर एक रेखा खींच दी और कक्षा के छात्रों को बारी-बारी से बुलाकर कहा कि इस रेखा को छोटी कर दो। कक्षा के सभी छात्रों ने उस रेखा को मिटा-मिटा कर छोटा किया और एक स्थिति यह आयी कि वो रेखा मिटने की कगार पर पहुँच गयी।
तब मौलाना साहब ने चॉक अपने हाथ में ले ली और छात्रों को अपने स्थान पर बैठ जाने को कहा।
उन्होंने फिर से एक रेखा श्यामपट पर खींची और कहा कि अब मैं इसको छोटा करने जा रहा हूँ। परन्तु यह क्या, उन्होंने उस रेखा के नीचे उससे बड़ी एक रेखा खींच कर बताया कि अब पहले वाली रेखा छोटी हो गयी है।
कहने का तात्पर्य यह है कि किसी को मिटा कर उसका वजूद छोटा नही किया जा सकता है, अपितु उससे बड़ा बन कर ही छोटे बड़े के अन्तर को समझाया जा सकता है।
इस पोस्ट को लगाने का मेरा उद्देश्य किसी को उपदेश देने या मानसिक सन्ताप पहुँचाने का कदापि नही है। मैं तो केवल यह कहना चाहता हूँ कि-
ईष्र्या छोड़कर प्रतिस्पर्धा करना सीखो। छिद्रान्वेषी बनने से कुछ भी प्राप्त होना असम्भव है।
कमिंया खोजना बहुत सरल है, लेकिन गुणों का बखान करना बहुत कठिन।

मंगलवार, मई 26, 2009

‘‘सच्चा शिष्य’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

बहुत पुरानी बात है। एक विद्वान आचार्य थे। उनका एक गुरूकुल था।

प्राचीन काल में आचार्य विद्याथियों को निशुल्क शिक्षा दिया करते थे।

एक दिन आचार्य जी ने गुरूकुल के सारे विद्यार्थियों को अपने पास बुलाया और कहा-

‘‘प्रिय विद्यार्थियों मेरी कन्या विवाह योग्य हो गयी है। परन्तु इसका विवाह करने के लिए मेरे पास धन नही है। मेरी समझ में नही आ रहा है कि कैसे इसका विवाह करूँ।’’

कुछ विद्यार्थी जिनके माता-पिता धनवान थे।

उनसे बोले- ‘‘गुरू जी! हम लोग अपने माता‘पिता से कह कर आपको धन दिलवा देंगे।’’

आचार्य जी बोले- ‘‘शिष्यों! मुझे संकोच होता है, मैं लालची आचार्य नही कहाना चाहता।’’ फिर बोले कि मैं अपनी पुत्री का विवाह अपने शिष्यों के धन से ही करना चाहता हूँ। परन्तु ध्यान रहे कि तुममे से कोई भी धन माँग कर नही लायेगा। जो विद्यार्थी धनी परिवारों के नही थे उनसे आचार्य जी ने कहा कि तुम लोग भी अपने घरों से कुछ न कुछ ले आना परन्तु किसी को पता नही लगना चाहिए और उस वस्तु पर किसी की दृष्टि भी नही पड़नी चाहिए।"

कुछ ही दिनों में आचार्य जी के पास पर्याप्त धन व वस्तुएँ एकत्रित हो गयी।

तभी आचार्य जी के पास एक अत्यन्त धनी परिवार का शिष्य आकर बोला-

‘‘आचार्य जी मेरे घर में किसी प्रकार की कमी नही है, परन्तु मैं आपके लिए कुछ भी नही ला पाया हूँ।’’

आचार्य जी बोले- ‘‘ क्यों ? क्या तुम गुरू की सेवा नही करना चाहते हो?’’

शिष्य ने उत्तर दिया- ‘‘नही गुरू जी! ऐसी बात नही है। आपने ही तो कहा था कि कोई वस्तु या धन लाते हुए किसी को पता नही लगना चाहिए और उस वस्तु पर किसी की दृष्टि भी नही पड़नी चाहिए। मुझे वह स्थान नही मिला, जहाँ कोई देख न रहा हो।’’

आचार्य जी बोले- ‘‘तुम झूठ बोलते हो। कहीं तो कोई ऐसा समय व स्थान रहा होगा जब तुम्हें कोई देख नही रहा होगा।’’

शिष्य आँखों में आँसू भर कर बोला- ‘‘गुरू जी! ऐसा समय व स्थान तो अवश्य मिला परन्तु मैं भी तो उस समय अपने इस कृत्य को देख रहा था।’’

आचार्य जी ने उस शिष्य को गले से लगा लिया और बोले-

‘‘तू ही मेरा सच्चा शिष्य है। मुझे अपनी कन्या के लिए विवाह के लिए धन की आवश्यकता नही थी। मैं तो उसके वर के रूप में तेरे जैसा ही सदाचारी वर खोज रहा था।’’

सोमवार, मई 25, 2009

‘‘रबड़-प्लाण्ट बनाम ठा.कमलाकान्त सिंह’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

(१९९८ में मेरी वैवाहिक जीवन की 25वीं वर्ष-गाँठ पर ठा. कमलाकान्त सिंह आशीर्वाद देते हुए)
मेरे घर के आगे रबड़ प्लाण्ट का एक विशाल छायादार पेड़ है। इसकी छाया इतनी घनी है कि हल्की-फुल्की बारिश से भी इसके नीचे खड़े होने से बचाव हो जाता है। मेन रोड पर घर होने के कारण इसके नीचे अक्सर राहगीर थोड़ा सा जरूर सुस्ता लेते हैं।

मेरे एक अभिन्न मित्र थे ठाकुर कमलाकान्त सिंह जो कि आयु में मेरे पिता समान थे। परन्तु वे बहुत जिन्दादिल इन्सान थे। शहर के जाने-माने धनाढ्य व्यक्ति होने पर भी उनका मुझ पर स्नेह था। इतना ही नही वो मुझे अपना दादा-गुरू मानते थे। कभी-कभी जब मेरा विवाद पार्टी के लोगों से हो जाता था तो ठाकुर साहब सदैव ही मेरा पक्ष लिया करते थे।

सच पूछा जाये तो पं.नारायण दत्त तिवारी जी से उन्होंने ही मुझे सबसे पहले परिचित कराया था। शहर में उनका एक मात्र थ्री-स्टार होटल ‘‘बेस्ट-व्यू’’ के नाम से आज भी सुस्थापित है। जिसका शिलान्यास भी पण्डित नारायण दत्त तिवारी ने किया था और इसका उद्घाटन भी उनके ही कर कमलों से हुआ था। मुझे याद है कि इस कार्यक्रम का संचालन मैंने ही किया था।

सन् 1994 की बात है। उन दिनों उनका होटल नया-नया ही बना था। वो रबड़-प्लाण्ट की पौध अपने होटल के लिए लाये थे।

मैं उनके पास बैठा था कि वो अचानक बोले- ‘‘शास्त्री जी! आपको रबड़-प्लाण्ट लगाना है तो ले जाइए।’’

उनकी बात पर मैं यह सोच कर चुप रहा रहा कि इन्होंने पन्त-नगर से यह पौध मँगाई हैं । अतः मेरा माँगना उचित नही रहेगा। थोड़ी देर उनके पास बैठ कर मैं वापिस अपने घर आ गया।

अगले दिन मैंने देखा कि ठाकुर साहब अपनी मारूति वैन में बैठ कर जब मेरे घर आये तो आये उनके साथ रबड़-प्लाण्ट का एक पौधा भी था।

उन्होंने इसे मेरे घर के सामने अपने हाथों से लगा दिया और कहा- ‘‘शास्त्री जी! मैं तो नही रहूँगा परन्तु यह पौधा आपको मेरी याद दिलाता रहेगा।"

सन् 2002 में ठाकुर साहब तो परलोक सिधार गये परन्तु यह रबड़-प्लाण्ट जो आज एक विशाल वृक्ष बन चुका है। मुझे उनकी याद दिलाता रहता है।

इस वृक्ष को देख कर मुझे ऐसा लगता हैं कि ठाकुर कमलाकान्त सिंह का हाथ आज भी मेरे सिर पर है।

रविवार, मई 24, 2009

‘‘अपना-अपना भाग्य’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरा विवाह यही कोई 20 वर्ष की आयु में हो गया था। उस समय मैं तथा मेरी तीनों छोटी बहनें पढ़ती थी।
पिता जी का कारोबार तो था परन्तु खर्चे भी थे। क्योंकि पिता जी कमाने वाले अकेले थे और एक छोटी सी आढ़त की दूकान थी उनकी , नजीबाबाद में।
शादी से पूर्व मुझे देखने के लिए लडकी वाले आने वाले थे। कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था, इसलिए मैनेज करने में कोई दिक्कत नही हुई।
हम लोग लड़की वालों को पहले से ही जानते थे। वे उस समय धनाढ्य व्यक्ति थे।

हमारी हैसियत और उनके जीवन-स्तर में 1 और 10 का अन्तर था।
मेरे मुहल्ले में पड़ोस में बाबूराम नाम के लड़के की 2 माह पहले ही शादी हुई थी। हम लोग उनके यहाँ से सोफा माँग कर ले आये थे।
लड़की वाले सुबह को करीब 8 बजे आ गये। अपनी सामर्थ्य से कहीं अधिक उनकी आव-भगत की गयी। वो लोग भी बड़े खुश थे। दोपहर बाद 3 बजे की उनकी ट्रेन थी। अतः रिश्ता पक्का करके वो लोग खाना खाकर विदा हुए।
हमने भी चैन की साँस ली और पड़ोसी बाबूराम का सोफा वापिस करने की तैयारी में लग गये। सोफा कमरे से बाहर निकाल लिया गया था। बस उसे पहुँचाना बाकी था।
तभी देखा कि लड़की वाले पुनः हमारे दरवाजे पर थे। उनको देख कर हम लोग हक्के-बक्के रह गये।
कोई बहाना सूझ ही नही रहा था।
तभी मेरी बहिन बोली - ‘‘सोफा अन्दर रखवाओ ना। मैं बैठक में गोबर बाद में लीप दूँगी।"
उन्हें शादी सम्बन्धी कोई बात पूछने से रह गयी थी उसे ही तय करने के लिए ये लोग दोबारा वापिस आये थे।
खैर, पिता जी को दूकान से वापिस बुलाया गया और मेहमान आवश्यक बात करके चले गये।
पिता जी को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने माता जी को बहुत डाँटा।
शाम तक पिता जी सौ रुपये में एक शीशम का बढ़िया सोफा बैठक के लिए खरीद कर ले आये थे।
इसके बाद मेरा विवाह हो गया। बड़ी धूम-धाम से पिता जी ने मेरी शादी की थी।
उन दिनों बहुएँ सलवार-सूट ससुराल में नहीं पहनतीं थी। हमारी श्रीमती जी को शादी में भारी साड़ियाँ मिलीं थी। 2 दिन बाद इन्होंने मुझसे एक हल्की-फुलकी सूती साड़ी लाने के लिए कहा। परन्तु मेरे पास पैसे कहाँ से आते?
मैं श्रीमती जी को ना नहीं कह सका। लेकिन खाली हाथ बाजार भी तो नही जा सकता था।
उन दिनों मेरा एक मित्र था। उसके पिता जी की कपड़े की दूकान थी। मैंने उससे यह समस्या बताई तो वह मुझे अपनी दूकान पर ले गया और एक से एक बढ़िया साड़ियाँ दिखाईं। मैं कुछ संकोच करने लगा तो उसने दो अच्छी किस्म की साड़ियाँ मुझे दिला दी।
कहते हैं कि परिवार में सब अपना-अपना भाग्य साथ लेकर आते हैं। जब से मेरी पत्नी मेरे घर में आईं हैं। तब से मेरे घर में समृद्धि बढ़ती ही गयी है।
आज स्थिति यह है कि मेरी ससुराल वालों में-
और मेरे जीवन स्तर में 10-1 का अन्तर है।
इसे ही कहते हैं- अपना-अपना भाग्य।


शनिवार, मई 23, 2009

जगह का नाम खटीमा क्यों पड़ा?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


खटीमा यों तो एक बहुत पुरानी बस्ती है। यह आदिवासी क्षेत्र है।

(थारू समाज के लोगों की पारम्परिक वेष-भूषा)

मुगलों के शासनकाल में इसे थारू जन-जाति के लोगों ने आबाद किया था। अर्थात् यहाँ के मूल निवासी महाराणा प्रताप के वंशज राणा-थारू है।
थारू समाज के एक व्यक्ति से मैंने इस जन-जाति के विकास के बारे में पूछा तो उसने मुझे कुछ यों समझाया।
‘‘जिस समय महाराणा प्रताप स्वर्गवासी हो गये थे। तब बहुत सी राजपूत रानियों ने सती होकर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। लेकिन कुछ महिलायें अपने साथ अपने दास-दासियों को लेकर वहाँ से पलायन कर गये थे । उनमें हमारे पूर्वज भी रहे होंगे। ये तराई के जंगलों में आकर बस गये थे।
’’मैने उससे पूछा- ‘‘इस जगह का नाम खटीमा क्यों पड़ गया?’’
उसने उत्तर दिया-
‘‘उन दिनों यहाँ मलेरिया और काला बुखार का प्रकोप महामारी का विकराल रूप ले लेता था। लोग बीमार हो जाते थे और वो खाट में पड़ कर ही वैद्य के यहाँ जाते थे। इसीलिए इसका नाम खटीमा अर्थात् खाटमा पड़ गया।’’
उसने आगे बताया-
‘‘थारू समाज में विवाह के समय जब बारात जाती है तो वर को रजाई ओढ़ा दी जाती है और खाट पर बैठा कर ही उसकी बारात चढ़ाई जाती है। वैसे आजकल रजाई का स्थान कम्बल ने ले लिया है। इसलिए भी इस जगह को खाटमा अर्थात् खटीमा पुकारा जाता है।’’

(खटीमा में थारू नृत्य का मंचन)

संक्षेप में मुझे इतना ही खटीमा का इतिहास पता लगा है।
आशा है कि इससे आपके ज्ञान में जरूर कुछ इजाफा हुआ होगा।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)

शुक्रवार, मई 22, 2009

‘‘न्याय मिलता तो है?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

सन् 2002 का वाकया है। मेरे बड़े पुत्र नितिन ने कम्प्यूटर मिक्सिंग लैब की शुरूआत की थी। उसके लिए आन-लाइन डिजिटल मिक्सर खरीदने के लिए मैं दिल्ली गया।

जोना फोटो, चाँदनी चौक से यह मिक्सर खरीदा गया। उसका आदमी इसे लगाने के लिए खटीमा आया। लेकिन इसकी क्वालिटी बहुत ही घटिया दर्जे की थी।

मैने फोन से जोना फोटो से इसे बदलने के लिए निवेदन किया। परन्तु वह नही माना।

बाध्य होकर मुझे इसके खिलाफ उपभोक्ता फोरम में केस रजिसटर कराना पड़ा।

डेढ़ साल तक तारीखें पड़ती रही और केस हमारे पक्ष में हो गया।

अब पैसा वसूलने की बारी थी।

प्रतिवादी ने समय अवधि में पैसा नही दिया तो पुनः फोरम से निवेदन करना पड़ा।

फोरम ने इस पर संज्ञान लेते हुए कुर्की वारण्ट जारी कर दिये। प्रतिवादी ने अब फोरम में अपना वकील भेज दिया था। मामला फिर अधर मे लटक गया।

इस प्रक्रिया में एक साल और निकल गया।

खैर, निर्णय हमारे ही पक्ष में रहा। लेकिन प्रतिवादी ने इसकी अपील राज्य उपभोक्ता संरक्षण फोरम में कर दी। वहाँ भी केस डेढ़ साल तक चला। अन्त में निचली अदालत के निर्णय को बर करार रखा गया।

इसके बाद निचली अदालत से पुनः पैसा दिलाने की गुहार लगाई गयी।

जैसे-तैसे इकसठ हजार पर ब्याज मिला कर सतासी हजार के लगभग रुपये मिल गये। परन्तु पाँच साल तक केस चलता रहा, पचास हजार रुपये बरबाद हुए, शारीरिक और मानसिक परेशानी अलग रहीं।

प्रश्न यह उठता है कि क्या हर एक उपभोक्ता न्यायालय जायेगा?

यदि गया भी तो क्या पाँच वर्ष से अधिक तक मुकदमा झेल पायेगा?

एक बात तो इससे स्पष्ट हो गयी है कि आम आदमी को न्याय कभी नसीब नही होगा।

गुरुवार, मई 21, 2009

‘‘कद्दू का व्यापार’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

एक सेठ जी थे और एक पण्डित जी थे।
सेठ जी कपड़े के व्यापारी थे। काफी धनाढ्य थे।
पण्डित जी उनके पास अक्सर आकर बैठ जाया करते थे। अपनी पुरोहिताई से मुश्किल से गुजर-बसर करते थे। वे लाला जी को आते ही राम-राम कर लेते थे।
कुछ दिनों में पण्डित जी ने पुरोहिताई से कफी धन जमा कर लिया।
अब वे लाला जी को राम-राम नही करते थे। लाला जी ने सोचा कि इस पण्डित के पास धन इकट्ठा हो गया हे इसलिए इसके मन में पैसे का घमण्ड आ गया है।
कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा।
एक दिन पण्डित जी ने लाला जी से कहा- ‘‘लाला जी! मेरे पास कुछ पैसा इकट्ठा हो गया है। मुझे भी कोई व्यापार करा दो।’’
लाला जी तो चाहते ही यही थे।
तपाक से बोले- ‘‘पण्डित जी! आजकल कद्दू काफी सस्ता हो रहा है। आप कद्दू खरीद कर रख लो। कुछ दिनों में ये महँगा हो जायेगा तो इसे बेच देना।’’
पण्डित जी की समझ में लाला जी की बात आ गयी।उन्होंने एक गोदाम किराये पर लिया और कद्दू का भण्डारण कर लिया।
कुछ दिनों में कद्दू बहुत महँगा हो गया।
पण्डित जी ने लाला जी का धन्यवाद किया और पूछा- ‘‘लाला जी! अब कददू बेच दूँ।’’लाला जी ने कहा- ‘‘अरे क्या गजब करते हो? तुम पण्डित लोग व्यापार करना तो जानते ही नही। थोड़े दिन और तसल्ली करो। अभी कद्दू और महँगा जायेगा।’’
पण्डित जी ने लाला जी की बात मान ली । आखिर व्यापार भी तो उनकी सलाह से ही किया गया था। थोड़े दिन में कददू की नई फसल आ गयी। कद्दू अब सस्ता हो गया था।
इधर गोदाम में कदृदू सड़ने भी लगा था।
लाला जी ने इसकी शिकायत स्वास्थ्य विभाग को कर दी। पण्डित जी को अब अपने खर्चं से कद्दू फिंकवाना पड़ा।
पण्डित जी का सारा धन खर्च हो चुका था।
अब भी वी लाला जी की दूकान पर आते हैं और पहले की तरह लाला जी को राम-राम करते हैं।
किसी ने ठीक ही कहा है- ‘‘जिसका काम उसी को साजे, दूसरा करे तो मूँगरा बाजे।"

बुधवार, मई 20, 2009

"धन्यवाद ज्ञापन"


ब्लागवाणी तथा चिट्ठा जगत को धन्यवाद,

जिन्होंने मेरे एक निवेदन पर ही
इस ब्लॉग को कुछ ही मिनटों में

अपने हृदय में स्थान दे दिया है

सचमुच आज मुझे आभास हो रहा है कि

सिर्फ ब्लॉगर्स ही नही,

अपितु हिन्दी के सर्वोच्च एग्रीगेटर्स का भी

मुझे स्नेह और भरपूर सहयोग मिल रहा है।

सादर, आपका स्नेहाकांक्षी-

(चित्र - रावेंद्रकुमार रवि के कैमरे से साभार)

मंगलवार, मई 19, 2009

‘‘मयंक की डायरी का पहला पन्ना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

प्रिय मित्रों!

एक निर्धन दम्पत्ति के यहाँ तीन सन्तानें थीं। वह परमात्मा से प्रार्थना करता था कि हे प्रभो! धन-दौलत तो चाहे कितनी ही दे दो परन्तु अब और सन्तान न देना।

ईश्वर ने उसकी यह अरदास कबूल कर ली। परन्तु मैं वह दशरथ हूँ जिसे इस नये ब्लॉग के रूप में मुझे एक रत्न प्राप्त हुआ है।

मैंने इसे माँ वीणापाणि का प्रसाद समझकर स्वीकार किया है। शायद माता मेरी परीक्षा लेना चाहतीं हैं।

मेरे कई मित्रों ने कहा है कि आप एक साथ तीन-तीन ब्लॉगों को कैसे मैनेज करेंगे। लेकिन मैंने चुनौती स्वीकार कर ली है।

हुआ यों कि दिन मेरे पुत्र के एक अभिन्न मित्र मेरे पास बैठे थे। पेशे से वे सिंचाई विभाग में अभियन्ता हैं। कम्प्यूटर में वो बहुत दक्ष हैं परन्तु ब्लॉगिंग में कोरे थे। उन्होंने मुझसे अपना ब्लॉग बनवाने का निवेदन किया। मैंने उनका ब्लॉग बनाना शुरू कर दिया परन्तु लॉगिन में मैं ही था। इसलिए ब्लॉग मेरे ही खाते में आ गया।

मैंने इसे तुरन्त डिलीट कर दिया। पर डैस-बोर्ड पर टोटल ब्लॉग 4 लिख कर आते थे। तीन दिखाई देते थे और एक छिपा रहता था। मुझे यह देख कर बड़ा अवसाद होता था।

इसका नाम उन्हीं अभियन्ता की मर्जी के अनुरूप पावर आफ हाइड्रो रखा गया था।

तीन दिन पूर्व मन में आया कि क्यो न मैं इस ब्लॉग का नाम बदल दूँ।

बस फिर क्या था?

इसका नाम बदल कर ‘‘मयंक’’ रख दिया गया।

अब फिर मूल बात पर आता हूँ। यदि कृत्रिम साधनों का प्रयोग करके हम लोग अपना परिवार सीमित रखते रहे तो ‘‘योगिराज कृष्ण’’ कैसे दुनियाँ मे आ पायेंगे? क्योंकि वो तो अपने माता-पिता की आठवीं सन्तान थे। आपकी सबकी शुभकामनाएँ यदि मेरे साथ रहीं तो मेरा स्वप्न 4-5 ब्लॉग और बनाने का है।

आशा है कि आप सब सुधि जनों का प्यार मुझे मिलता रहेगा।

अन्त में ब्लागवाणी तथा चिट्ठा जगत को धन्यवाद,

जिन्होंने मेरे एक निवेदन पर ही

इस ब्लॉग को कुछ ही मिनटों में अपने हृदय में स्थान दे दिया है।

‘‘चन्दा और सूरज’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

चन्दा में चाहे कितने ही, धब्बे काले-काले हों।

सूरज में चाहे कितने ही, सुख के भरे उजाले हों।

लेकिन वो चन्दा जैसी शीतलता नही दे पायेगा।

अन्तर के अनुभावों में, कोमलता नही दे पायेगा।।

सूरज में है तपन, चाँद में ठण्डक चन्दन जैसी है।

प्रेम-प्रीत के सम्वादों की, गुंजन वन्दन जैसी है।।

सूरज छा जाने पर पक्षी, नीड़ छोड़ उड़ जाते हैं।

चन्दा के आने पर, फिर अपने घर वापिस आते हैं।।

सूरज सिर्फ काम देता है, चन्दा देता है विश्राम।

तन और मन को निशा-काल में, मिलता है पूरा आराम।।