गुरुवार, मई 28, 2009

‘‘पुण्य तिथि पर विशेष’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

पीड़ा के परिवेश में दम तोडता सिसकता परिवार यदि यदि समय आने पर देशभक्त बन जाये तो कोई आश्चर्य की बात नही है। किन्तु सम्राट के युवराज जैसा जीवन व्यतीत करने वाला कोई नवयुवक यदि अपने सारे वैभव छोड़कर देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दे तो यह विश्व के लिए एक अनोखा आश्चर्यजनक उदाहरण नही तो और क्या है?

जवाहर लाल ने भारत को स्वतन्त्र करने के लिए जो कष्ट सहे और कुर्बानियाँ दीं उनको भला कौन भूल सकता है?


अपनी माता श्रीमती स्वरूपरानी के विषय में जवाहर लाल लिखते हैं।


‘‘इलाहाबाद में मेरी माँ उस जलूस मे थीं, जिसे पुलिस ने पहले तो रोका और फिर लाठियों से मारा। जिस वक्त जुलूस रोक दिया गया, उस वक्त किसी ने मेरी माँ के लिए एक कुर्सी ला दी। वह जुलूस के आगे उस कुर्सी पर बैठी हुई थी। कुछ लोग जिनमें मेरे सेक्रेटरी वगैरा शामिल थे और जो खास तौर पर उनकी देखभाल कर रहे थे। गिरफ्तार करके उनसे अलग कर दिये गये। मेरी माँ को धक्का देकर कुर्सी से नीचे गिरा दिया गया और उनके सिर पर लगातार बैंत मारे। जिससे उनके सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा और वो बेहोश होकर सड़क पर गिर गयीं। उस रात को इलाहाबाद में यह अफवाह उड़ गयी कि मेरी माँ का देहान्त हो गया है। यह सुन कर कुछ जनता की भीड़ ने इकट्ठे होकर पुलिस पर हमला कर दिया। वे शान्ति और अहिंसा की बात को भूल गये। पुलिस ने उन पर गोली चलाई। जिससे कुछ लोग मर गये। इस घटना के कुछ दिन बाद जब इन बातों की खबर मुझ तक पहुँची तो अपनी कमजोर और बूढ़ी माँ के खून से लथ-पथ धूलढूलाभर सड़क पर पड़ी रहने का ख्याल मुझे रह-रह कर सताने लगा.........


धीरे-धीरे वह चंगी हो गयी और जब दूसरे महीने बरेली जेल में मुझसे मिलने आयी तब उनके सिर पर पट्टी बँधी थी लेकिन उन्हें इस बात की भारी खुशी थी और महान गर्व था कि वह हमारे स्वयं-सेवकों और सवयं-सेविकाओं के साथ बैंतों और लाठियों की मार खाने के सम्मान से वंचित नही रहीं।’’


स्वतन्त्र भारत के निर्माता पं.जवाहर लाल नेहरू को शत्-शत् नमन।


क्रमशः...............।

4 टिप्‍पणियां:

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