सोमवार, सितंबर 27, 2010

"विश्व पर्यटन दिवस" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")




"सैर कर दुनिया की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ।
जिन्दगानी भी रही तो, यह जवानी फिर कहाँ।।"
कुम्भ नगरी हरिद्वार 
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स्वर्ण मन्दिर, अमृतसर 
जलियाँवाला बाग, अमृतसर
वाघा-बॉर्डर, अटारी (पंजाब)
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नैनीताल
माता नैनादेवी मन्दिर, नैनीताल
  
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गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब
दूधवाला कुआँ, नानकमत्ता साहिब

पीरान कलियर, रुड़की
माता पूर्णागिरि दरबार, चम्पावत
22 किमी लम्बा शारदासागर बाँध, खटीमा
नानकसागर बाँध, खटीमा
बाउली साहिब, नानकसागर डाम
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शारदा बैराज, बनबसा (चम्पावत) 

इस पार हमारा भारत है,
उस पार बसा नेपाल देश।
मध्यस्थ शारदा मइया हैं,
सिंचित करती जो उभयदेश।।
बनबसा बैराज का खूबसूरत मॉडल

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शनिवार, सितंबर 18, 2010

"जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

सन् 1979, बनबसा जिला-नैनीताल का वाकया है। उन दिनों मेरा निवास वहीं पर था । मेरे घर के सामने रिजर्व कैनाल फौरेस्ट का साल का जंगल था। उन पर काले मुँह के लंगूर बहुत रहते थे।
मैंने काले रंग का भोटिया नस्ल का कुत्ता पाला हुआ था। उसका नाम टॉमी था। जो मेरे परिवार का एक वफादार सदस्य था। मेरे घर के आस-पास सूअर अक्सर आ जाते थे। जिन्हें टॉमी खदेड़ दिया करता था । एक दिन दोपहर में 2-3 सूअर उसे सामने के कैनाल के जंगल में दिखाई दिये। वह उन पर झपट पड़ा और उसने लपक कर एक सूअर का कान पकड़ लिया। सूअर काफी बड़ा था । वह भागने लगा तो टॉमी उसके साथ घिसटने लगा। अब टॉमी ने सूअर का कान पकड़े-पकड़े अपने अगले पाँव साल के पेड़ में टिका लिए।
ऊपर साल के पेड़ पर बैठा लंगूर यह देख रहा था। उससे सूअर की यह दुर्दशा देखी नही जा रही थी । वह जल्दी से पेड़ से नीचे उतरा और उसने टॉमी को एक जोरदार चाँटा रसीद कर दिया और सूअर को कुत्ते से मुक्त करा दिया।
हमारे भी आस-पास बहुत सी ऐसी घटनाएँ आये दिन घटती रहती हैं परन्तु हम उनसे आँखे चुरा लेते हैं और हमारी मानवता मर जाती है। 
काश! जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता।

गुरुवार, सितंबर 09, 2010

"जरूरत है एक अदद महापुरुष की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

पनी अल्प-बुद्धि से यह लेख लिखने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ कि मेरी विचारधारा किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की नही है। यह केवल मेरी अपनी व्यक्तिगत मान्यता है। मैं हिन्दु धर्म का विरोधी नही हूँ, बल्कि कृतज्ञ हूँ कि यदि हिन्दू नही होते तो वेदों का प्रचार-प्रसार करने वाले स्वामी देव दयानन्द कहाँ से आते?
       वैदिक विचारधारा क्या है? इस पर हमें गहराई से सोचना होगा। उत्तर एक ही है कि ‘वेदो अखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात वेद ही सब धर्मो का मूल है। जब वेद ही सब धर्मों का मूल है तो फिर विभिन्न धर्मों में एक रूपता क्यों नही है। वेद में तो केवल ईश्वर के निराकार रूप का की वर्णन है। फिर मूर्तिपूजा का औचित्य है? महर्षि स्वामी देव दयानन्द घोर मूर्तिपूजक परिवार से थे, लेकिन उन्होंने मूर्तिपूजा का घोर विरोध किया और वेदों में वर्णित धर्म के सच्चे रूप को लोगों के सामने प्रस्तुत किया।
       हमारे इतिहास-पुरूष भी निर्विकार पूजा को श्रेष्ठ मानते हैं परन्तु साथ ही साथ साकार पूजा के भी प्रबल पक्षधर हैं। कारण स्पष्ट है आज धर्म को लोगों ने आजीविका से से जोड़ लिया है।
       पहला उदाहरण-परम श्रद्धेय आचार्य श्रीराम लगातार 25 वर्षों तक स्वामी दयानन्द के मिशन आर्य समाज से मथुरा में जुड़े रहे। परन्तु वहाँ मूर्ति पूजा थी ही नही । अतः उन्होंने अपने मन से एक कल्पित गायत्री माता की मूर्ति बना ली और शान्ति कुंज का अपना मिशन हरद्वार में बना लिया। जबकि वेदों में एक छन्द का नाम ‘गायत्री’ है।
       दूसरा उदाहरण- स्वामी दिव्यानन्द ने आर्य समाज को छोड़कर श्री राम शरणम् मिशन बनाया।
       तीसरा उदाहरण आचार्य सुधांशु जी महाराज ने आर्य समाज का उपदेशक पद छोड़ कर ओम् नमः शिवाय का सहारा ले लिया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। लेकिन आजीविका का रास्ता ढूँढने की होड़ में इन्होंने वैदिक धर्म का स्वरूप ही बदल कर रख दिया। हाँ एक बात इनके प्रवचनों में आज भी दिखाई देती है । वह यह है कि ये लोग आज भी बात तर्क संगत कहते हैं। अनकी विचारधारा में अधिकतम छाप आर्य समाज की ही है। लेकिन चढ़ावा बिना गुजर नही होने के कारण इन्होंने उसमें मूर्तिपूजा का पुट डाल दिया है।
        आज सभी ‘ओम जय जगदीश हरे की आरती बड़े प्रेम से मग्न हो कर गाते हैं परन्तु यह आरती केवल गाने भर तक ही सीमित हो गयी है। यदि उसके अर्थ पर गौर करें तो- इसमे एक पंक्ति है ‘ तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति’ कभी सोचा है कि इसका अर्थ क्या है? सीधा सा अर्थ है-हे प्रभू तुम दिखाई नही देते हो, तुम हो एक लेकिन पूजा में रखे हुए हैं ‘अनेक’। आगे की एक पंक्ति में है- ‘.......तुम पालनकर्ता’ लेकिन इस पालन कर्ता की मूर्ति बनाकर स्वयं उसको भोग लगा रहे हैं अर्थात् खिला रहे हैं। क्या यही वास्तविक पूजा है? क्या यही सच्चा वैदिक धर्म का स्वरूप है। सच तो यह है कि हम पूजा पाठ की आड़ में अकर्मण्य बनते जा रहे हैं।
         दुकान पर लाला जी सबसे पहले पूजा करते हैं और पहला ग्राहक आते ही उसे ठग लेते हैं। शाम को फिर पूजा करते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो हमने आज जो झूठ बोलने के पाप कर्म किये हैं उनको क्षमा कर देना। क्योंकि हमारे धर्माचार्यों ने उनके मन में यह कूट-कूट कर भर दिया है कि ईश्वर पापों को क्षमा कर देते हैं। काश् यह भी समझा दिया होता कि ईश्वर का नाम रुद्र भी है। जो दुष्टों को रुलाता भी है।
         खैर, अब आवश्यकता इस बात की है कि फिर कोई महापुरुष भारत में जन्म ले और वैदिक धर्म की सच्ची राह दिखाये। जहाँ चाह है वहाँ राह है। एक आशा है कि युग अवश्य बदलेगा।

सोमवार, सितंबर 06, 2010

"मक्कारों की जय-जयकार!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

बहन रचना दीक्षित,  का  ५ सितम्बर २०१० ४:१४ अपराह्न   
उच्चारण पर यह कमेंट आया-
"गुरु तो वन्दनीय है ५ सितम्बर ही क्यों हर दिन ही उनकी वंदना होनी चाहिए!"
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गुरू जी का यानि शिक्षक या अध्यापक का सम्मान! ५ सितम्बर को ही क्यों? हर दिन क्यों नहीं?
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आज मैं यह देखता हूँ कि देश, काल और परिस्थतियों के कारण गुरू जी और गुरू शब्द के अर्थ  में काफी अन्तर आ गया है!
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"गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरू आपने, गोबिन्द दियो बताय।।" 
यह दोहा आज समय की आँधी में अपना अस्तित्व खोने सा लगा है।
बानगी देखिए-
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(पहला चित्र)
छात्र बहुत ही श्रद्धा भाव से शिक्षक के पास जाकर कहता है-
"गुरू जी प्रणाम!"
अध्यापक उत्तर देता है- "आयुष्मान रहो वत्स!"
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(दूसरा चित्र)
ट्रक का क्लीनर ट्रक-ड्राईवर से कहता है-
"कहो गुरू! क्या हाल हैं? (यहाँ श्रद्धाभाव में कमी आ गई।)
ट्रक-ड्राईवर उत्तर देता है-
"अबे तू…! कैसा है?"
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(तीसरा चित्र)
छोटा दादा शहर के बड़े भाई से कहता है-
"अरे गुरू! क्या हाल हैं?
भाई उत्तर देता है-
"अबे  स्सा....   तू…..!"
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देख लिया आपने !
कितने बदल गये हैं गुरू शब्द के अर्थ!
यानि पहले चित्र में गुरू माने श्रद्धा के पात्र गुरू जी!
और दूसरे व तीसरे चित्र में-
गुरू माने- "मक्कार" ।
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अब तो आपको समझ में आ ही गया होगा कि -
"5 सितम्बर को केवल गुरू जी का सम्मान होता हैं अपने देश में!"
और बाकी दिन-
"मक्कारों की जय-जयकार!"