शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

“एक शाम मदन ‘विरक्त’ के नाम” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

होली के अवसर पर
“महाराजा अग्रसेन समाचार” पत्र के सम्पादक
“मदन ‘विरक्त” दिल्ली से खटीमा पधारे!

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इनके सम्मान में डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” के निवास पर
एक गीतों भरी शाम का आयोजन किया गया। 
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सबसे पहले
सरस पायस के सम्पादक
रावेंद्रकुमार रवि ने अपना गीत प्रस्तुत किया-
आए कैसे बसंत

मौसम की माया है,
धुंध-भरा साया है –
आए कैसे बसंत?
रोज़-रोज़ काट रहे
हर टहनी छाँट रहे!
घोंसला बनाने को
कैसे वे आएँगे?
सुन उनका कल-कूजन
क्या अब अँखुआएँगे?…….

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इसके पश्चात राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
खटीमा  के
हिन्दी विभागाध्यक्ष
डॉ. सिद्धे्श्वर सिंह
और
कर्मनाशा के ब्लॉग-स्वामी ने
अपने काव्य पाठ में निम्न रचना को सुनाया-

“शिशिर का हुआ नहीं अन्त
कह रही है तिथि कि आ गया वसन्त !
क्या पता कैलेन्डर को
सर्दी की मार क्या है।
कोहरा कुहासा और
चुभती बयार क्या है।
काटते हैं दिन एक एक गिन
याद नहीं कुछ भी कि तीज क्या त्यौहार क्या है।
वह तो एक कागज है निर्जीव निष्प्राण
हम जैसे प्राणियों के कष्ट हैं अनन्त।”…….

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गोष्ठी के मेजबान और
उच्चारण के सम्पादक डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” ने अपने काव्य पाठ में  वसन्त पर 
एक गीत प्रस्तुत किया-
टेसू की 

डालियाँ फूलतीं,
खेतों में
बालियाँ झूलतीं,
लगता है बसन्त आया है!
केसर की
क्यारियाँ महकतीं,
बेरों की
झाड़ियाँ चहकती,
लगता है बसन्त आया है!
”….
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अन्त में दिल्ली से पधारे लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार और सर्वोदय साहित्य मण्डल के सम्पादक “मदन ‘विरक्त” ने होली के अवसर पर अपनी इस रचना का सस्वर पाठ किया-
शृंगार किया है, पहली बार राधिका ने,
कान्हा ने ब्रज में, पहली रास रचाई है।
उन्मत्त सहेली वृन्दावन में झूम रही,
साँवरिया ने पहली ही होली गाई है।। 
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गोष्ठी के अन्त में होली के मिष्ठानों और
पकवानों का भी आनन्द लिया गया!

शनिवार, फ़रवरी 20, 2010

“दोहा लिखिएः वार्तालाप” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)


“धुरन्धर साहित्यकार”

वार्तालाप

आज मेरे एक “धुरन्धर साहित्यकार” मित्र की चैट आई-
धुरन्धर साहित्यकार- शास्त्री जी नमस्कार!
मैं- नमस्कार जी!
धुरन्धर साहित्यकार- शास्त्री जी मैंने एक रचना लिखी है, देखिए! मैं- जी अभी देखता हूँ!
(दो मिनट के् बाद)
धुरन्धर साहित्यकार- सर! आपने मेरी रचना देखी!
मैं- जी देखी तो है!
क्या आपने दोहे लिखे हैं?
धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी!
मैं- मात्राएँ नही गिनी क्या?
धुरन्धर साहित्यकार- सर गिनी तो हैं!
मैं- मित्रवर! दोहे में 24 मात्राएँ होती हैं। पहले चरण में 13 तथा दूसरे चरण में ग्यारह!
धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी जानता हूँ! (उदाहरण)
( चलते-चलते थक मत जाना जी,
साथी मेरा साथ निभाना  जी।)
मैं- इस चरण में आपने मात्राएँ तो गिन ली हैं ना! 
धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी! चाहे तो आप भी गिन लो!
मैं- आप लघु और गुरू को तो जानते हैं ना! 
धुरन्धर साहित्यकार- हाँ शास्त्री जी!
मैं लघु हूँ और आप गुरू है!

मैं-वाह..वाह..आप तो तो वास्तव में धुरन्धर साहित्यकार हैं!
धुरन्धर साहित्यकार- जी आपका आशीर्वाद है! 
मैं-भइया जी जिस अक्षर को बोलने में एक गुना समय लगता है वो लघु होता है और जिस को बोलने में दो गुना समय लगता है वो गुरू होता है!  
धुरन्धर साहित्यकार-सर जी आप बहुत अच्छे से समझाते हैं। मैंने तो उपरोक्त लाइन में केवल शब्द ही गिने थे! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!

शनिवार, फ़रवरी 13, 2010

“यहाँ गौमाता शिव को दूध से नहलाती थी” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

“शिवरात्रि को सात रंग बदलती शिव की पिण्डी”

बरेली-पिथौरागढ़ राष़्टीय राजमार्ग पर खटीमा से 7 किमी दूर श्री वनखण्डी महादेव के नाम से विख्यात एक प्राचीन शिव मन्दिर है!
यह दिल्ली से 300 किमी और बरेली से 100 किमी दूर है।
कभी यह स्थान घने जंगलों के मध्य में हुआ करता था परन्तु अब यह चकरपुर गाँव से बिल्कुल सटा हुआ है। इसके साथ ही बरेली-पिथौरागढ़ राष़्टीय राजमार्ग है।
वनखण्डी महादेव समिति, चकरपुर ने अब यहाँ सुन्दर तोरण-द्वार बना दिया है।

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समिति ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करके इसे सजाया और सँवारा भी है।

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मन्दिर के भीतर का दृश्य देखकर तो आपको आश्चर्य होगा कि यहाँ कोई शिवलिंग नही है अपितु कलश के ठीक नीचे एक साधारण सा दिखाई देने वाला पत्थर है।
अवधारणा है कि शिवरात्रि को यह पत्थर सात बार रंग बदलता है।

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मन्दिर के मुख्य-महन्त ने इससे जुड़ी कहानी सुनाते हुए कहा-
“प्रणवीर महाराणा प्रताप के वीरगति को प्राप्त होने के उपरान्त कुछ राजपूत महिलाएँ तो सती हो गईं थी, लेकिन कुछ राजकुमारियों ने अपने सेवकों के साथ मेवाड़ से पलायन कर खटीमा के समीप नेपाल की तराई के जंगलों में अपना ठिकाना बना लिया था। यह कबीला “थारू” जनजाति के नाम से जाना जाता है।
उसी समय की बात है कि एक थारू की गाय घर में बिल्कुल दूध नही देती थी। लोगों ने जब इसका कारण खोजा तो पता लगा कि यह गाय प्रतिदिन जंगल में जाकर एक पत्थर के पास जाती है और अपने थनों से दूध गिरा कर आ जाती है।”
थारू समाज के लोगों ने यहाँ एक साधारण सा शिवालय बना दिया।
मन्दिर में कलश के नीचे वही पत्थर है जिस पर गाय अपने थनों से दूध गिरा कर इसको प्रतिदिन स्नान कराती थी।
प्रत्येक वर्ष यहाँ शिवरात्रि को एक विशाल मेला लगता है। जो सात दिनों तक चलता है।
कभी आपका भी इधर आना हो तो “वनखण्डी-महादेव” के इस प्राचीन शिव-मन्दिर का दर्शन करना न भूलें!

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2010

“निठल्ला चिन्तन” व्यंग्यः (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

चर्चा मंच
मित्रों!
आज कुछ सामग्री पोस्ट करने के लिए मेरे पास नही है!

मात्र एक  विचार मन में आया है-

“चर्चा मंच” पर दिन की एक चर्चा तो लगा ही देता हूँ, कभी-कभी दो भी हो जाती हैं।

सोच रहा हूँ कि इसमें ढाई दर्जन सदस्य सम्मिलित कर लूँ। इससे चर्चा करने में सुविधा रहेगी।

प्रतिदिन कोई एक सदस्य शेष सभी की पोस्टों की चर्चा किया करेगा।

यह शर्त चर्चामण्डली के सभी सदस्यों पर लागू होगी!

किन्तु,

इसके बाद भी यदि चर्चा में अन्तराल हुआ तो……?

अर्थ आप लगाइए!

मैं तो चला……!

गुरुवार, फ़रवरी 04, 2010

“तुम्हारे प्यार का आभार है!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

कामनाओं के स्वरों में, प्यार का आगार है।
ब्लॉगरों दिल से तुम्हारे, प्यार का आभार है।

जन्म-दिन पर आपकी, शुभकामनाएँ मिल गईं,
आज मेरे उर-चमन की, बन्द कलियाँ खिल गईं,
ब्लॉग मम् परिवार है, परिवार ही आधार है।।
ब्लॉगरों दिल से तुम्हारे, प्यार का आभार है।

जाल की दुनिया का मैं छोटा सा बौना दूत हूँ
आपकी शुभ-भावनाओं से, बहुत अभिभूत हूँ,
ब्लॉग है संसार मेरा, व्लॉग ही अभिसार है।
ब्लॉगरों दिल से तुम्हारे, प्यार का आभार है।
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♥ डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” ♥