मंगलवार, अगस्त 25, 2009

‘‘पीठ और छाती का अन्तर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


विषय इतना जटिल है कि सोच रहा हूँ कि इसकी शरूआत कहाँ से करूँ।

पहाड़ मेरा घर है और इसके ठीक नीचे बसा हुआ मैदान मेरा आँगन है।
जिन दिनों सरदी कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र से बहुत सारे बच्चे इन मैदानी भागों में नौकरी करने के लिए आ जाते हैं। ये अक्सर घरों या होटलों में साफ-सफाई करते या झूठे बरतन बलते हुए देखे जा सकते हैं। इनकी उम्र 10 साल से 12 साल के बीच होती है। बड़े होने पर ये दिल्ली या बम्बई जैसे महानगरों में पलायन कर जाते हैं।
क्या कारण है कि इन बालकों को घर से बिल्कुल भी मोह नही होता है? जबकि हमारे घरों के बालक माता-पिता से इतना मोह रखते हैं कि विवाह होने तक माता-पिता और घर को छोड़ने की कल्पना भी नही कर सकते।
मैंने जब गहराई से इस पर विचार किया तो बात समझ में आ गई।
मैं नेपाल देश के बिल्कुल करीब में रहता हूँ।
जहाँ माताएँ अपने एक महीने के बालक को भी पीठ से बाँध कर चलती हैं। जबकि हमारे घरों की माताएँ अपने दो वर्ष के बच्चे को भी अपनी छाती के साथ लगा कर रखती है। यदि कहीं जायेगी तो वो बच्चे को सीने से लगा कर ही चलेंगी।
बस यही तो अन्तर होता है, छाती से लगा कर पले बालकों और पीठ के पले बालकों में।
छाती से लगा कर पले बालक हृदय के करीब होते हैं और पीठ के पले बालक हृदय के दूर होते हैं।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)

10 टिप्‍पणियां:

  1. सही कह रहे हैं आप, बच्चे कलेजे के टुकड़े होते हैं। पीठ का बोझ नहीं।

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  2. बढ़िया पोस्ट
    बहुत सही कहा आपने
    आभार


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  3. बिल्कुल सही कहा है आपने और मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ की बच्चे तो जान से भी ज़्यादा प्यारे होते हैं और मासूम भी इसलिए उन्हें बोझ नहीं बल्कि प्यार से सहलाया जाना चाहिए!

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  4. बड़ी बात है जी काफी राज छुपा है आपकी बातों में !

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  5. badi gahri baat kah di aur kitni satik hai.........kitni gahrayi se addhyan kiya hoga aapne.........waah.

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  6. जो कभी सोचा नहीं, उस पर भी एक शानदार शोध.
    अत्यधिक हार्दिक आभार सत्यान्वेषण के लिए.

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  7. डॉ. साहब हमने भी कई बार नेपालियों को पीठ पर बच्चे टांगना देखा था पर उसपे कभी ध्यान ही नहीं गया |

    मुझे लगता है आपने बिलकुल सही कारण ढूंढा है |

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