मंगलवार, मई 18, 2010

बाबा नागार्जुन की दिनचर्चा! (डा. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)

“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-6”

बाबा नागार्जुन जुलाई 1989 के प्रथम सप्ताह में 5 जुलाई से 8 जुलाई तक मेरे घर में रहे। मेरे दोनो पुत्रों नितिन और विनीत के तो मजे ही आ गये। बाबा उनसे खूब बातें किया करते थे। कुछ प्रेरणा देने वाली कहानियाँ भी उन्हें सुना ही देते थे।
दिन में सोना तो बाबा का रोज का नियम था। दो-पहर को वे डेढ़-दो बजे सो जाते थे और शाम को साढ़े चार बजे तक उठ जाते थे। इसके बाद वो मेरे पिता जी से काफी बातें करते थे। दोनों की बातें घण्टों चलतीं थी।
खटीमा में जुलाई का मौसम उमस भर गर्मी का होता है और अचानक बारिस भी हो जाती है। बाबा को बारिस को देखना बड़ा अच्छा लगता था। वह घण्टों मेरे घर के बरांडे में बिछी हुई खाट बैठे रहते थे और बारिस को देखते रहते थे। हम लोग कहते थे बाबा बहुत देर से बैठे हो थोड़ा आराम कर लो। तो बाबा कहते थे कि मुझे बारिस देखना अच्छा लगता है।

बाबा को 8 जुलाई को शाम को 5 बजे मेरे दोनों पुत्र और मेरे पिता जी वाचस्पति जी के घर तक पहुँचाने के लिए गये। उसी समय का एक चित्र प्रकाशित कर रहा हूँ। जिसमें मेरे पिता श्री घासीराम जी, बड़ा पुत्र नितिन और बाबा नागार्जुन ने छोटे पुत्र विनीत के कन्धे पर हाथ रखा हुआ है।
बाबा की प्रवृत्ति तो शुरू से ही एक घुमक्कड़ की रही है। दिल्ली जाने के बाद बाबा ने मुझे एक पत्र लिखा था। जिसमें पिथौरागढ़ और शाहजहाँपुर जाने का जिक्र किया है। वो पोस्ट-कार्ड भी मैं प्रकाशित कर रहा हूँ।
बाबा नागार्जुन की स्मृति में उनकी एक रचना भी प्रस्तुत कर रहा हूँ।
जो चुनावी परिवेश पर
बिल्कुल खरी उतरती है।

आए दिन बहार के!‘
श्वेत-श्याम-रतनार’ अँखिया निहार के,

सिंडकेटी प्रभुओं की पग-धूर-झार के,

खिलें हैं दाँत ज्यों दाने अनार के,

आए दिन बहार के!


बन गया निजी काम-

दिखायेंगे और अन्न दान के, उधार के,

टल गये संकट यू. पी.-बिहार के,

लौटे टिकट मार के!

आए दिन बहार के!


सपने दिखे कार के,

गगन-विहार के,

सीखेंगे नखरे, समुन्दर-पार के,

लौटे टिकट मार के!

आए दिन बहार के!

8 टिप्‍पणियां:

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  2. मुझे बाबा का सानिध्य याद आ गया ।
    प्रशंसनीय संस्मरण ।

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  3. बहुत खूब , क्या संजो के रखी आपने चिट्ठी, बहुत शुन्दर शास्त्री जी

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  4. बाबा नागार्जुन की बहुत बढ़िया रचना पढ़वाने के लिए आभार!
    --
    सचित्र संस्मरण बहुत दुर्लभ है,
    पर आज आसानी से उपलब्ध हो गया!
    --
    बौराए हैं बाज फिरंगी!
    हँसी का टुकड़ा छीनने को,
    लेकिन फिर भी इंद्रधनुष के सात रंग मुस्काए!

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  5. बहुत सुन्दर संस्मरण, धन्यवाद! और यह पोस्टकार्ड तो किसी खजाने से कम नहीं है.

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