शुक्रवार, जुलाई 10, 2009

‘‘नहले पे दहला या दहले पे नहला’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


लगभग 10 साल पुरानी बात है। उन दिनों चावल का रेट सस्ता ही था। पर इतना भी नही कि हर आदमी बासमती चावल खा सके। इसलिए लोग शरबती अर्थात बिना खुशबू वाली बासमती चावल ही अक्सर खाते थे।

अब तो उसमें भी पीआर-14 की मिलावट होने लगी है। शुद्ध शरबती बासमती का रेट उन दिनों 16 रु0 प्रति किलो चल रहे थे जबकि पीआर-14 कर रेट 7 रु0 प्रति किलो ही था।
रंग-रूप में दोनों किस्म के चावल एक जैसे ही लगते हैं परन्तु पकने के बाद शरबती लम्बा, बारीक और मुलायम हो जाता है और पीआर-14 मोटा और कठोर हो जाता है।
उन्ही दिनों दो फारमर टाइप के व्यापारी एक मिनी ट्रक में रामपुर जिले से चावल भर कर लाये। अच्छे-अच्छे घरों में उन्होंने 200-200 ग्राम के लगभग चावल पकाने के लिए दिये। चावल बेहतरीन थे। अतः हाथों-हाथ उनके चावल बिक गये।
मैंने भी 50 किलो चावल उनसे 15 रु0 के रेट में ले लिए। अगले दिन वो चावल पकाये गये तो वो मोटे और कठोर हो गये थे। खैर ये चावल रख दिये गये।
ये था नहले पे दहला।
2-3 महीने बाद वही फारमर टाइप के व्यापारी फिर दिखाई दिये।
बानगी के रूप में चावल पकाने के लिए दे ही रहे थे कि इस बार मैंने 100 किलो की पूरी बोरी तुलवा ली।
जब पैसा देने का नम्बर आया तो मैंने उसे डाँटना शुरू किया और उसके खिलाफ धोखाधड़ी की रिपोर्ट करने की धमकी दी।
अब तो वह दोनों लोग माफी माँगने लगे। आखिर कार उन्हे अपना 3 माह पुराना चावल वापिस लेना ही पड़ा और पूरे पैसे देकर चलते बने।
ये था दहले पे नहला।
आज इस घटना को 9-10 साल हो गये हैं। तब से ऐसा कोई व्यापारी खटीमा में चावल बेचता हुआ दिखाई नही दिया है।

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