मंगलवार, जुलाई 15, 2014

"स्वाभिमानी बाबा नागार्जुन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

      नैनीताल जनपद तथा आस-पास के क्षेत्र के सात्यिकारों को अखबारों से जब यह पता लगा कि बाबा नागार्जुन खटीमा आये हुए हैं तो मेरे तथा वाचस्पति जी के पास उनके फोन आने लगे।
      हम लोगों ने भी सोचा कि बाबा के सम्मान में एक कवि-गोष्ठी ही कर ली जाये।
(चित्र में-सनातन धर्मशाला, खटीमा में 9 जुलाई,1989 को सम्पन्न 
कवि गोष्ठी के चित्र में-गम्भीर सिंह पालनी, जवाहरलाल वर्मा, 
दिनेश भट्ट, बल्लीसिंह चीमा, वाचस्पति, कविता पाठ करते हुए
ठा.गिरिराज सिंह, बाबा नागार्जुन तथा ‘डा. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक’) 
      अतः 9 जलाई 1989 की तारीख, समय दिन में 2 बजे का और स्थान सनातन धर्मशाला का सभागार निश्चित कर लिया गया।
      उन दिनों ठा. गिरिराज सिंह नैनीताल जिला को-आपरेटिव बैंक के महाप्रबन्धक थे। वो एक बड़े साहित्यकार माने जाते थे। जब उनको इस गोष्ठी की सूचना अखबारों के माध्यम से मिली तो वह भी बाबा से मिलने के लिए पहुँच गये।
     सनातन धर्मशाला , खटीमा में गोष्ठी शुरू हो गयी। जिसकी अध्यक्षता ठा. गिरिराज सिंह ने की। बाबा को मुख्य अतिथि बनाया गया। इस अवसर पर कथाकार गम्भीर सिंह पालनी, गजल नवोदित हस्ताक्षर बल्ली सिंह चीमा, जवाहर लाल वर्मा, दिनेश भट्ट,देवदत्त प्रसून, हास्य-व्यंग के कवि गेंदालाल शर्मा निर्जन, टीका राम पाण्डेय एकाकी,रामसनेही भारद्वाज स्नेही, डा. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक, भारत ग्राम समाचार के सम्पादक मदन विरक्त, केशव भार्गव निर्दोष आदि ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। गोष्ठी का संचालन राजकीय महाविद्यालय, खटीमा के हिन्दी के प्राध्यापकवाचस्पति ने किया।
     इस अवसर पर साहित्य शारदा मंच, खटीमा का अध्यक्ष होने के नाते मैंने बाबा को शॉल ओढ़ा कर साहित्य-स्नेही की मानद उपाधि से अलंकृत भी किया था।
        उन दिनों मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की स्थायी समिति का सदस्य था। सम्मेलन के प्रधानमन्त्री श्री श्रीधर शास्त्री से मेरी घनिष्ठता अधिक थी। मैंने उन्हें भी बाबा नागार्जुन के खटीमा में होने की सूचना दे दी थी। 
         उनका उत्तर आया कि बाबा को 14 सितम्बर, हिन्दी दिवस के अवसर पर प्रयाग ले आओ। सम्मेलन की ओर से उन्हें सम्मानित कर देंगे।
       मैंने बाबा के सामने श्रीधर शास्त्री जी का प्रस्ताव रख दिया। बाबा ने अनसुना कर दिया। मैंने बाबा को फिर याद दिलाया। अब तो बाबा का रूप देखने वाला था।
     वह बोले-‘‘श्रीधर जी से कह देना कि मैं उनका वेतन भोगी दास नही हूँ। उन्हें ससम्मान मुझे स्वयं ही आमन्त्रित करना चाहिए था।’’
      मैंने बाबा को बहुत समझाया परन्तु बाबा ने एक बार जो कह दिया वह तो अटल था।
इतने स्वाभिमानी थे बाबा।

2 टिप्‍पणियां:

  1. यही बात अब बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है ।

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  2. thank you for sharing such personal experience, which will become the part of history. I believe baba nagarjun was not given th honour and recognition what he deserved and coming days it will be compensated-- as in case of famous artist van Gogh

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