बुधवार, अप्रैल 06, 2011

"छिपी धरोहर है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


 गीत और ग़ज़लों वाला जो सौम्य सरोवर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।

शब्द हिलोरें लेते जब भी मेरी रीती सी गागर में,
देता हूँ उनको उडेल मैं, धारा बन करके सागर में,
उच्चारण में ठहर गया जीवन्त कलेवर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।

पगडण्डी है वही पुरानी, जिसको मैंने अपनाया है,
छंदों का संसार सनातन, मेरे मन को ही भाया है,
छल-छल, कल-कल करती गंगा बहुत मनोहर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।

पर्वत मालाएँ फैली हैं, कितनी धरा-धरातल पर,
किन्तु हिमालय जैसा कोई, नज़र न आता भूतल पर,
जो अरिदल से रक्षा करता वही महीधर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।

बेच रहे ऊँचे दामों में, स्वादहीन पकवानों को,
शिक्षा की बोली लगती है, ऊँचे भव्य मकानों में,
जो देता है जीवन सबको, वही पयोधर है।
इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।

3 टिप्‍पणियां:

  1. गीत और ग़ज़लों वाला जो सौम्य सरोवर है।
    इसमें मन के अनुभावों की छिपी धरोहर है।।

    बहुत प्यारा गीत लिखा है शास्त्री जी । बधाई और शुभकामनायें ।

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  2. चित्ताकर्षक लगी ... शुभकामनायें

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