♥ हकीकत यानि वास्तविकता ♥ और के बाद अब अगर दिल की बात कहूँ तो मुझे नफरत सी हो गई है इस गिरी शब्द से! समझ में ही नही आ रहा कि को कैसे ज्वाइन करूँ? और को तो अपना निवेदन पंजीकृत करा देते थे और इन एग्रीगेटरों के प्रबन्धक ब्लॉगों को जाँच-परखकर शामिल कर देते थे! परन्तु में तो कुछ समझ में ही नही आ रहा कि इसे किस प्रकार ज्वाइन किया जाये! ऊपर से झंझट यह भी है कि हर बार लिखो और ब्लॉगिरी में पोस्ट करो! नही चाहिए मुझे ब्लॉगिरी की दादागिरी! इससे तो अच्छे हैं FEED CLUSTER के ये व्यक्तिगत एग्रीगेटर! निवेदन भेजो और शामिल हो जाओ! आपके द्वारा भेजे गये पते की FEED भी इसमें स्वचालित व्यवस्था के द्वारा स्वयं ही आ जाती हैं! तो आप भी भेज दीजिए ना! अपने ब्लॉग का URL मेरे इस निजी एग्रीगेटर पर! लेकिन इतना अवश्य ध्यान रखिए कि इस सन्दर्भ में देखिए समीर लाल जी से हुई मेरी आज की वार्ता- Udan Tashtari के साथ चैट करेंसभी को उत्तर दें| Udan Tashtari मुझे विवरण दिखाएँ ४:४९ AM ४:४९ AM मुझे: नमस्कार! समीर लाल जी! ब्लॉगवाणी कब तक सक्रिय हो जायेगी? ४:५० AM कुछ जानकारी हो तो बताइएगा! ४:५१ AM "ब्लॉगिरी" क्या है? इस नये एग्रीगेटर को केसे ज्वाइन करें? ४:५२ AM हमारी तो नींद खुल गई है! आप शायद सोने की तैयारी कर रहे होंगे! Udan: ब्लॉगवाणी शीघ्र ही वापस आना चाहिये. किंचित व्यापारिक व्यस्तताओं के चलते अभी मन हटा हुआ है कि उसे सुधारा जाये किन्तु आना तो है ही. ४:५३ AM ब्लॉगीरी आज ही देखा और पंजीयन किया खुद का. अभी स्वयं भी समझ ही रहा हूँ. रजिस्टर करने का टैब है उस पर. ४:५४ AM मुझे: जी हम भी कोशिश करते हैं! मगर सारे व्लॉग कैसे आ पायेंगे? Udan: अभी तो शाम का ७.३० बजा है. सोना ११ तक होता है और फिर वापस जागना ३/३.३० तक ४:५५ AM मुझे: क्या सभी में लिखी गई पोस्टों को हर वार लिखने के बाद डालना पड़ेगा! Udan: ऐसे ही धीरे धीरे जानेंगे किन्तु इसमें भी हर बार लिखने के बाद स्टोरी सब्मिट करने जाना पड़ता है. अपने आप नहीं लेता शायद. जी ४:५६ AM मुझे: अरे इससे तो अपना चिट्ठा जगत बहुत ही बेहतर है! Udan: जी, निश्चित तौर पर चिट्ठाजगत बेहतर है ४:५८ AM मुझे: तकनीकीरूप से, हरेक ब्लॉगर का हिसाब - किताब रखना, ट्रैफिक पर नजर रखना, सक्रियता दिखाना! यह सब तो सिर्फ चिट्ठा जगत ही कर सकता है! ४:५९ AM Udan: जी, वो और ब्लॉगवाणी विकसित तकनीक पर बने हैं मगर लोग उनकी मेहनत समझने को तैयार ही नहीं ५:०० AM मुझे: मन चाहे ब्लॉगरों की फीड प्राप्त करने के लिए तो फीड क्लस्टर पर बने लोकल एगेरीगेटर भी अच्छा काम कर रहे हैं! Udan: देखा मैने फीड क्लस्टर भी. ठीक है वो भी. ५:०१ AM मुझे: अच्छा जी ! बॉ.बॉय! Udan: नमस्कार, शुभ दिवस! |
बुधवार, जून 30, 2010
“दादागिरी, नेतागिरी के बाद ब्लॉगिरी” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
शनिवार, जून 26, 2010
“जन साहित्यकार बाबा नागार्जुन” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आज से जन साहित्यकार बाबा नागार्जुन का जन्म-शताब्दी वर्ष प्रारम्भ हो रहा है! आप इस वर्ष में बाबा नागार्जुन के सम्मान में अपने नगर में कोई कार्यक्रम अवश्य आयोजित करें! इस कालजयी कवि के लिए यही सबसे सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी! |
बुधवार, जून 23, 2010
♥ आवश्यक सूचना ♥ (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
♥ आवश्यक सूचना ♥प्रिय ब्लॉगर मित्रों!26 जून से जन-साहित्यकार बाबा नागार्जुन का शताब्दी वर्ष प्रारम्भ हो रहा है! इस उपलक्ष्य में 26 जून को खटीमा में मेरे निवास पर एक गोष्ठी का आयोजन अपराह्न -3 बजे से किया जायेगा! आप सभी इसमें सादर आमन्त्रित हैं! खटीमा के समीपवर्ती ब्लॉगरों से विशेष अनुरोध है कि अपने व्यस्त समय में से 3 घण्टे का समय इस गोष्ठी के लिए भी निकालने की कृपा करें! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री. राष्ट्रीय वैदिक विद्यालय, टनकपुर-रोड, खटीमा, जिला-ऊधमसिंह नगर! फोन: 05943-250207 मोबाइल: 9997996437, 9368499921, 9456383898 |
शुक्रवार, जून 18, 2010
“मेरी गुरूकुल यात्रा-२” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
"पिता जी पीछे-पीछे!
और मैं आगे-आगे!!"
गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरिद्वार) से मैं भाग कर घर आ गया था। पिता जी को यह अच्छा नही लगा। अतः वे मुझे अगले दिन फिर ज्वालापुर गुरूकुल में लेकर चल दिये। सुबह 10 बजे मैं और पिता जी गुरूकुल पहुँच गये। संरक्षक जी ने पिता जी कहा- ‘‘इस बालक का पैर एक बार निकल गया है, यह फिर भाग जायेगा।’’ पिता जी ने संरक्षक जी से कहा- ‘‘ अब मैंने इसे समझा दिया है। यह अब नही भागेगा।’’ मेरे मन में क्या चल रहा था। यह तो सिर्फ मैं ही जानता था। दो बातें उस समय मन में थीं कि यदि मना करूँगा तो पिता जी सबके सामने पीटेंगे। यदि पिता जी ने पीटा तो साथियों के सामने मेरा अपमान हो जायेगा। इसलिए मैं अपने मन की बात अपनी जुबान पर नही लाया और ऊपर से ऐसी मुद्रा बना ली, जैसे मैं यहाँ आकर बहुत खुश हूँ। थोड़ी देर पिता जी मेरे साथ ही रहे। भण्डार में दोपहर का भोजन करके वो वापिस लौट गये। शाम को 6 बजे की ट्रेन थी, लेकिन वो सीधी नजीबाबाद नही जाती थी। लक्सर बदली करनी पड़ती थी। वहाँ से रात को 10 बजे दूसरी ट्रेन मिलती थी। इधर मैं गुरूकुल में अपने साथियों से घुलने-मिलने का नाटक करने लगा। संरक्षक जी को भी पूरा विश्वास हो गया कि ये बालक अब गुरूकुल से नही भागेगा। शाम को जैसे ही साढ़े चार बजे कि मैं संरक्षक जी के पास गया और मैने उनसे कहा- ‘‘गुरू जी मैं कपड़े धोने ट्यूब-वैल पर जा रहा हूँ।’’ उन्होंने आज्ञा दे दी। मैंने गन्दे कपड़ों में एक झोला भी छिपाया हुआ था। अब तो जैसे ही ट्यूब-वैल पर गया तो वहाँ इक्का दुक्का ही लड्के थे, जो स्नान में मग्न थे। मैं फिर रेल की लाइन-लाइन हो लिया। कपड़े झोले मे रख ही लिए थे। ज्वालापुर स्टेशन पर पहुँच कर देखा कि पिता जी एक बैंच पर बैठ कर रेलगाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे। मैं भी आस-पास ही छिप गया। जैसे ही रेल आयी-पिता जी डिब्बे में चढ़ गये। अब मैं भी उनके आगे वाले डिब्बे में रेल में सवार हो गया। लक्सर स्टेशन पर मैं जल्दी से उतर कर छिप गया और पिता जी पर नजर रखने लगा। कुद देर बाद वो स्टेशन की बैंच पर लेट गये और सो गये। अब मैं आराम से टिकट खिड़की पर गया और 30 नये पैसे का नजीबाबाद का टिकट ले लिया। रात को 10 बजे गाड़ी आयी। पिता जी तो लक्सर स्टेशन पर सो ही रहे थे। मैं रेल में बैठा और रात में साढ़े ग्यारह बजे नजीबाबाद आ गया। नजीबाबाद स्टेशन पर ही मैं भी प्लेटफार्म की एक बैंच पर सो गया। सुबह 6 बजे उठ कर मैं घर पहुँच गया। माता जी और नानी जी ने पूछा कि तेरे पिता जी कहाँ हैं? मैं क्या उत्तर देता। एक घण्टे बाद पिता जी जब घर आये तो नानी ने पूछा-‘‘रूपचन्द को गुरूकुल छोड़ आये।‘‘ पिता जी ने कहा-‘‘हाँ, बड़ा खुश था, अब उसका गुरूकुल में मन लग गया है।’’ तभी माता जी मेरा हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर लायीं और कहा-‘‘ये कौन है?’’ यह मेरी गुरूकुल की अन्तिम यात्रा रही। |
रविवार, जून 13, 2010
“मेरी गुरूकुल यात्रा-1” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“बचपन के संस्मरण”
बात लगभग 45 वर्ष पुरानी है। मेरे मामा जी आर्य समाज के अनुयायी थे। उनके मन में एक ही लगन थी कि परिवार के सभी बच्चें पढ़-लिख जायें और उनमें आर्य समाज के संस्कार भी आ जायें। मेरी माता जी अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं और मैं अपने घर का तो इकलौता पुत्र था ही साथ ही ननिहाल का भी दुलारा था। इसलिए मामाजी का निशाना भी मैं ही बना। अतः उन्होंने मेरी माता जी और नानी जी अपनी बातों से सन्तुष्ट कर दिया और मुझको गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरद्वार) में दाखिल करा दिया गया। घर में अत्यधिक लाड़-प्यार में पलने के कारण मुझे गुरूकुल का जीवन बिल्कुल भी अच्छा नही लगता था। मैं कक्षा में न जाने के लिए अक्सर नये-नये बहाने ढूँढ ही लेता था और गुरूकुल के संरक्षक से अवकाश माँग लेता था। उस समय मेरी बाल-बुद्धि थी और मुझे ज्यादा बीमारियों के नाम भी याद नही थे। एक दो बार तो गुरू जी से ज्वर आदि का बहाना बना कर छुट्टी ले ली। परन्तु हर रोज एक ही बहाना तो बनाया नही जा सकता था। अगले दिन भी कक्षा में जाने का मन नही हुआ, मैंने गुरू जी से कहा कि-‘‘गुरू जी मैं बीमार हूँ, मुझे प्रसूत का रोग हुआ है।’’ गुरू जी चौंके - हँसे भी बहुत और मेरी जम कर मार लगाई। अब तो मैंने निश्चय कर ही लिया कि मुझे गुरूकुल में नही रहना है। अगले दिन रात के अन्तिम पहर में 4 बजे जैसे ही उठने की घण्टी लगी। मैंने शौच जाने के लिए अपना लोटा उठाया और रेल की पटरी-पटरी स्टेशन की ओर बढ़ने लगा। रास्ते में एक झाड़ी में लोटा भी छिपा दिया। 3 कि.मी. तक पैदल चल कर ज्वालापुर स्टेशन पर पहँचा तो देखा कि रेलगाड़ी खड़ी है। मैं उसमें चढ़ गया। 2 घण्टे बाद जैसे ही नजीबाबाद स्टेशन आया मैं रेलगाड़ी से उतर गया और सुबह आठ बजे अपने घर आ गया। मुझे देखकर मेरी छोटी बहन बहुत खुश हुई। माता जी ने पिता जी के सामने तो मुझ पर बहुत गुस्सा किया लेकिन बाद में मुझे बहुत प्यार किया। यह थी मेरी गुरूकुल यात्रा की पहली कड़ी। क्रमशः…… |
शुक्रवार, जून 11, 2010
क्या सच्चा वैदिक धर्म यही है ? (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“मेरी निजी विचारधारा”
अपनी अल्प-बुद्धि से यह लेख लिखने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ कि मेरी विचारधारा किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की नही है। यह केवल मेरी अपनी व्यक्तिगत मान्यता है। मैं हिन्दु धर्म का विरोधी नही हूँ, बल्कि कृतज्ञ हूँ कि यदि हिन्दू नही होते तो वेदों का प्रचार-प्रसार करने वाले स्वामी देव दयानन्द कहाँ से आते? वैदिक विचारधारा क्या है? इस पर हमें गहराई से सोचना होगा। उत्तर एक ही है कि ‘वेदो अखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात वेद ही सब धर्मो का मूल है। जब वेद ही सब धर्मों का मूल है तो फिर विभिन्न धर्मों में एक रूपता क्यों नही है। वेद में तो केवल ईश्वर के निराकार रूप का की वर्णन है। फिर मूर्तिपूजा का औचित्य है? महर्षि स्वामी देव दयानन्द घोर मूर्तिपूजक परिवार से थे, लेकिन उन्होंने मूर्तिपूजा का घोर विरोध किया और वेदों में वर्णित धर्म के सच्चे रूप को लोगों के सामने प्रस्तुत किया। हमारे इतिहास-पुरूष भी निर्विकार पूजा को श्रेष्ठ मानते हैं परन्तु साथ ही साथ साकार पूजा के भी प्रबल पक्षधर हैं। कारण स्पष्ट है आज धर्म को लोगों ने आजीविका से से जोड़ लिया है। पहला उदाहरण-परम श्रद्धेय आचार्य श्रीराम लगातार 25 वर्षों तक स्वामी दयानन्द के मिशन आर्य समाज से मथुरा में जुड़े रहे। परन्तु वहाँ मूर्ति पूजा थी ही नही । अतः उन्होंने अपने मन से एक कल्पित गायत्री माता की मूर्ति बना ली और शान्ति कुंज का अपना मिशन हरद्वार में बना लिया। जबकि वेदों में एक छन्द का नाम ‘गायत्री’ है। दूसरा उदाहरण- स्वामी दिव्यानन्द ने आर्य समाज को छोड़कर श्री राम शरणम् मिशन बनाया। तीसरा उदाहरण आचार्य सुधांशु जी महाराज ने आर्य समाज का उपदेशक पद छोड़ कर ओम् नमः शिवाय का सहारा ले लिया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। लेकिन आजीविका का रास्ता ढूँढने की होड़ में इन्होंने वैदिक धर्म का स्वरूप ही बदल कर रख दिया। हाँ एक बात इनके प्रवचनों में आज भी दिखाई देती है । वह यह है कि ये लोग आज भी बात तर्क संगत कहते हैं। अनकी विचारधारा में अधिकतम छाप आर्य समाज की ही है। लेकिन चढ़ावा बिना गुजर नही होने के कारण इन्होंने उसमें मूर्तिपूजा का पुट डाल दिया है। आज सभी ‘ओम जय जगदीश हरे की आरती बड़े प्रेम से मग्न हो कर गाते हैं परन्तु यह आरती केवल गाने भर तक ही सीमित हो गयी है। यदि उसके अर्थ पर गौर करें तो- इसमे एक पंक्ति है ‘ तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति’ कभी सोचा है कि इसका अर्थ क्या है? सीधा सा अर्थ है-हे प्रभू तुम दिखाई नही देते हो, तुम हो एक लेकिन पूजा में रखे हुए हैं ‘अनेक’। आगे की एक पंक्ति में है- ‘.......तुम पालनकर्ता’ लेकिन इस पालन कर्ता की मूर्ति बनाकर स्वयं उसको भोग लगा रहे हैं अर्थात् खिला रहे हैं। क्या यही वास्तविक पूजा है? क्या यही सच्चा वैदिक धर्म का स्वरूप है। सच तो यह है कि हम पूजा पाठ की आड़ में अकर्मण्य बनते जा रहे हैं। दुकान पर लाला जी सबसे पहले पूजा करते हैं और पहला ग्राहक आते ही उसे ठग लेते हैं। शाम को फिर पूजा करते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो हमने आज जो झूठ बोलने के पाप कर्म किये हैं उनको क्षमा कर देना। क्योंकि हमारे धर्माचार्यों ने उनके मन में यह कूट-कूट कर भर दिया है कि ईश्वर पापों को क्षमा कर देते हैं। काश् यह भी समझा दिया होता कि ईश्वर का नाम रुद्र भी है। जो दुष्टों को रुलाता भी है। खैर अब आवश्यकता इस बात की है कि फिर कोई महापुरुष भारत में जन्म ले और वैदिक धर्म की सच्ची राह दिखाये। जहाँ चाह है वहाँ राह है। एक आशा है कि युग अवश्य बदलेगा। |
शनिवार, जून 05, 2010
‘‘बाबा नागार्जुन के तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया था।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-11”
26 मई 2010 से 26 मई 2011 तक बाबा नागार्जुन का जन्म-शती वर्ष मनाया जाएगा! इस अवधि में आप भी बाबा के सम्मान में अपने स्तर पर कोई आयोजन अवश्य करें! समय पर सूचना देंगे तो मैं भी सम्मिलित होने का प्रयास करूँगा! बाबा नागार्जुन की तो हर बात निराली ही थी। वे जो कुछ बोलते थे। तर्क की कसौटी पर कस कर बहुत ही नपा तुला ही बोलते थे। बात 1989 की है। उन दिनों मेरे एक जवाँदिल बुजुर्ग मित्र ठा. कमला कान्त सिंह थे, इनका खटीमा शहर में ‘होटल बेस्ट व्यू’ के नाम से एक मात्र थ्री स्टार होटल था। ये बाबा नागार्जुन के हम-उम्र ही थे। बिहार से लगते हुए क्षेत्र पूर्वी उत्तर-प्रदेश के ही मूल निवासी थे। बाबा से मिलने अक्सर आ जाते थे। एक दिन बातों-बातों में ठाकुर साहब को पता लग ही गया कि बाबा मीट भी खा लेते हैं। बस फिर क्या था, उन्होंने बाबा को खाने की दावत दे दी। बाबा ने कहा- ‘‘ठाकुर साहब! मैं होटल का मीट नही नही खाता हूँ। घर पर ही मीट बनवाना।’’ शाम को ठाकुर साहब ने बाबा को बुलावा भेज दिया। मैं बाबा को साथ लेकर ठाकुर साहब के घर गया। अब ठा. साहब ने अपनी कार में बाबा को बैठाया और अपने होटल ले गये। बस फिर क्या था? बाबा बिफर गये और बड़ा अनुनय-विनय करने पर भी बाबा ने ठाकुर साहब की दावत नही खाई और होटल से वापिस लौट आये। मेरे घर पर खिचड़ी बनवा कर बडे प्रेम से खाई। मैंने बाबा से पूछा- ‘‘बाबा! आपने ठा. साहब की दावत क्यों अस्वीकार कर दी।’’ बाबा ने कहा- ‘‘शास्त्री जी! मैंने ठा. साहब से पहले ही कहा था कि मैं होटल का मीट नही खाता हूँ।’’ मैंने प्रश्न किया- ‘‘ बाबा! होटल में क्यों नही खाते हो?’’ बाबा बोले- ‘‘अरे भाई! होटल के खाने में घर के खाने जितना प्यार और अपनत्व नही होता है। प्यार पैसा खर्च करके तो नही खरीदा जा सकता।’’ बाबा के तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया था। |
बुधवार, जून 02, 2010
"बाबा नागार्जुन अक्सर याद आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
“बाबा नागार्जुन की संस्मरण शृंखला-10”
उत्तर-प्रदेश के नैनीताल जिले के काशीपुर शहर (यह अब उत्तराखण्ड में है) से धुमक्कड़ प्रकृति के बाबा नागार्जुन का काफी लगाव था। सन् 1985 से 1998 तक बाबा प्रति वर्ष एक सप्ताह के लिए काशीपुर आते थे। वहाँ वे अपने पुत्र तुल्य हिन्दी के प्रोफेसर वाचस्पति जी के यहाँ ही रहते थे। मेरा भी बाबा से परिचय वाचस्पति जी के सौजन्य से ही हुआ था। फिर तो इतनी घनिष्ठता बढ़ गयी कि बाबा मुझे भी अपने पुत्र के समान ही मानने लगे और कई बार मेरे घर में प्रवास किया। प्रो0 वाचस्पति का स्थानानतरण जब जयहरिखाल (लैन्सडाउन) से काशीपुर हो गया तो बाबा ने उन्हें एक पत्र भी लिखा। जो उस समय अमर उजाला बरेली संस्करण में छपा था। इसके साथ बाबा नागार्जुन का एक दुर्लभ बिना दाढ़ी वाला चित्र भी है। जिसमें बाबा के साथ प्रो0 वाचस्पति भी हैं। बाबा ने 15 अक्टूबर,1998 को अपना मुण्डन कराया था। उसी समय का यह दुर्लभ चित्र प्रो0 वाचस्पति और अमर उजाला के सौजन्य से प्रकाशित कर रहा हूँ। बाबा अक्सर अपनी इस रचना को सुनाते थे- खड़ी हो गयी चाँपकर कंगालों की हूक नभ में विपुल विराट सी शासन की बन्दूक उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं मूक जिसमें कानी हो गयी शासन की बन्दूक बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य, वह धन्य है, शासन की बन्दूक सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक जहाँ-तहाँ ठगने लगी, शासन की बन्दूक जले ठूँठ पर बैठ कर, गयी कोकिला कूक बाल न बाँका कर सकी, शासन की बन्दूक |