कल जैसे ही इण्डरनेट खोला तो अविनाश वाचस्पति के निधन का दुखद समाचार पढ़ने को मिला। अविनाश जी से मेरे एक आत्मीय मित्र के सम्बन्ध थे। आघात सा लगा यह हृदयविदारक सूचना पढ़कर।
अविनाश वाचस्पति दसियों साल से हैपेटाइटिस-बी रोग की समस्या जूझ रहे थे। वह इस रोग से लड़ते रहे और जीतते रहे और अन्ततः कल 8 फरवरी को हैपेटाइटिस-बी जीत गया। मगर यह तो एक बहाना मात्र था। रोग का इलाज है मगर मत्यु का कोई इलाज नहीं है। देर-सबेर इस दुनिया से जाना तो सबको ही पड़ता है। व्यक्ति के दुनिया से जाने के बाद ही उसकी महत्ता का पता लगता है। लेकिन अविनाश वाचस्पति के निधन से मुझे व्यक्तिगत आघात पहुँचा है। मैं उनको शत्-शत् नमन करते हुए अपनी भाव-भीनी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हूँ।
इस सन्दर्भ में संस्मरणों की श्रंखला प्रस्तुत कर रहा हूँ।
जब मैंने जनवरी सन
2009 से ब्लॉगिंग शुरू की थी। उस समय मुझे ब्लॉग के तौर-तरीकों का बिल्कुल भी
ज्ञान नहीं था। शुरूआती दौर में मुझे जिन गिने-चुने लोगों का साथ मिला था उनमें
ताऊ रामपुरिया, अजित वडनेकर, आशीष खण्डेलवाल, डॉ.सिद्धेश्वर सिंह, बन्दना गुप्ता
आदि के साथ-साथ अविनाश वाचस्पति का नाम भी प्रमुख था।
अविनाश वाचस्पति
उस शख्शियत का नाम था जो ब्लॉगर साथियों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था।
उन दिनों इंडरनेट
पर बातचीत का माध्यम केवल जी मेल ही था। अतः उसी पर ब्लॉगरों से बातें होती थी। अविनाश
वाचस्पति से तो उन दिनों मेरी प्रायः रोज ही राम-जुहार हो जाती थी। उनका बार-बार
यही आग्रह रहता था कि कभी दिल्ली आओ तो हमसे मिलो।
आखिर मई 2010 में
मेरा दिल्ली जाने का कार्यक्रम बन गया। मैंने जब बताया कि मैं दिल्ली आ रहा हूँ
तो उनका जवाब था कि मिलने जरूर आना है। मैं 18 मई की रात को खटीमा से दिल्ली की
बस में सवार हुआ तो रात में 10 बजे तक अविनाश के 3-4 बार फोन आते रहे। 19 मई को दिल्ली
पहुँच कर मैं अपने साड़ू भाई के यहाँ उत्तम नगर चला गया। वहाँ सुबह के दैनिक
कार्यों से निवृत्त होकर मैं सुबह 9 बजे नेहरू प्लेस के लिए निकल गया। इस बीच
अनिनाश वाचस्पति के फोन आते रहे।
उन्होंने पूछा कि
आप नेहरू प्लेस से कितने बजे तक फारिग हो जाओगे। मैंने उत्तर दिया कि मैं 12-1
बजे तक अपना काम निबटा लूँगा। तभी अविनाश जी ने कहा कि मेरा ऑफिस नेहरु प्लेस के
नजदीक ही है। मैं आपको नेहरू प्लेस लेने आ जाऊँगा। और वो मुझे लेने के लिए आ
गये। उनके कार्यालय में चाय पीने के बाद मैंने उनसे जाने के लिए विदा माँगी तो
उन्होंने कहा कि भाई यह क्या बात हुई...आपको मेरे साथ लंच तो करना ही पड़ेगा।
उनके आग्रह में बल था इसलिए मैं मना नहीं कर पाया। तब तक अपराह्न के साढ़े तीन
बज गये थे। मुझे दिल्ली से घर के लिए निकलना भी था। वाचस्पति जी ने पूछा कि आपको
कहाँ से बस मिलेगी?
मैंने कहा कि आनन्द
विहार से।
तब वाचस्पति ने
कहा कि मैं आपको आनन्दविहार की बस में बैठा देता हूँ। और उन्होंने मुझे अपनी कार
से निकटतम स्टैण्ड से आनन्दविहार की बस में बैठा दिया।
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शेेष भाग अगले संस्मरण में....
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