गुरुवार, जनवरी 01, 2015

‘‘लघुकथा-मनमाना काम, मनमाना दाम’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

बरसात से पूर्व घर में कुछ छुट-पुट मरम्मत का कार्य करवाना था। एक अदद राज मिस्त्री और दो मजदूरों की जरूरत थी। 

इन्हें लाने के लिए चौराहे पर गया। 500 रु0 प्रतिदिन मजदूरी के हिसाब से राज-मिस्त्री तो मिल गया।
अब मजदूर खोजने लगे। 2-4 लोगों से कहा कि मजदूरी पर चलोगे।
उन्होंने पूछा-‘‘क्या काम है।
हमने कहा- ‘‘छुट-पुट मरम्मत का काम है।’’
मजदूरों ने कहा- ‘नही जायेंगे साहब! लिण्टर के काम में जायेंगे, वहाँ 250 की मजदूरी मिलती है।’’
काफी खोज-बीन के बाद 250 रु0 प्रतिदिन के हिसाब से दो मजदूर मिल ही गये। 
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जुलाई का प्रथम सप्ताह। विद्यालय में नये अध्यापकों के लिए इण्टरव्यू चल रहे थे। रिक्तियाँ लगभग पूरी हो गयी थी।
अगले दिन एक नौकरी की आशा में एक नवयुवक विद्यालय में आया।
योग्यता थी- एम0एससी०, लेकिन अध्यापकों के पद तो सारे भरे जा चुके थे।
विद्यालय के प्रबन्धक ने इस युवक को कह दिया-‘‘सीटें तो सारी भरी जा चुकी हैं, हमारे यहाँ कोई वैकेन्सी नही है।"
अब युवक गिड़गिड़ाते हुए बोला- ‘‘सर! 1500 रु0 महीने पर ही रख लीजिए।’’
हमने अपना माथा पीट लिया-
‘‘वाह! अँगूठा छाप को मनमाना काम 
और मनमाना दाम।’’
लेकिन पढ़े-लिखे लोग बेकार.......
दर-दर की ठोकरे खाने को लाचार।