रविवार, मई 20, 2012

"क्षितिजा की समीक्षा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

     इन दिनों मेरे पास कई पुस्तकें विद्वान रचनाधर्मियों ने भेजी हुई हैं। लेकिन मेरा कम्प्यूटर खराब हो गया जो अभी 8-10 दिन में ही ठीक हो पायेगा। तब तक बेटे ने मुझे काम चलाने के लिए एक डेस्कटॉप दे दिया और समय का सदुपयोग करते हुए मन हुआ कि “क्षितिजा के बारे में कुछ लिखूँ।
    गत वर्ष 30 अप्रैल को हिन्दी साहित्य परिकल्पना सम्मान के दौरान दिल्ली स्थित हिन्दी भवन में मेरी भेंट अंजु (अनु) चौधरी से हुई थी। फिर एक दिन अन्तर्जाल पर मैंने देखा कि इनकी पुस्तक क्षितिजा हाल में ही प्रकाशित हुई है। मैंने अपनी मानव सुलभ जिज्ञासा से एक टिप्पणी में पुस्तक पढ़ने की इच्छा जाहिर की। इस बात को 3-4 दिन ही बीते थे कि मुझे डाक से क्षितिजा की प्रति मिल गई।
     मेरे पास लेखन कला का सर्वथा अभाव रहा है। केवल कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए कुछ बे-तरतीब शब्दों से कुछ लाइनें क्षितिजा के बारे में लिखने का असफल प्रयास कर रहा हूँ।
     क्षितिजाकाव्य संकलन को हिन्द युग्म, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। जिसमें अंजु (अनु) चौधरी की सत्तावन अतुकान्त रचनाएँ संकलित हैं। एक सौ बीस पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 250 रु. है।
      एक कुशल गृहणी के मन की संवेदनाओं के इस संकलन में जीवन के विविध पहलुओं पर कुशलता से प्रकाश डाला गया है। असमंजस शीर्षक से कवयित्री ने अपने मन की व्यथा को अपने शब्द देते हुए लिखा है-
लिखते-लिखते रुकती
लेखनी का असमंजस
पढ़ने का बाद
समझ का असमंजस
दोराहे पर खड़े
बचपन का असमंजस
अन्तिम पड़ाव पर
वृद्धावस्था का असमंजस...
     मैं अक्सर कहा करता हूँ- काम बहुत है, जीवन थोड़ा इसी उक्ति को साकार करते हुए अंजु लिखती हैं-
नई उलझने नये गम होंगे
दिन जिन्दगी के सबसे कम होंगे
      घर का सपना हर इंसान का होता है मगर वर्तमान परिपेक्ष्य में घर कैसे हो गये हैं देखिए कवयित्री की इस कविता में-
आज वो घर कहाँ
बसते थे इंसान जहाँ
आज वो दिल कहाँ
रिसता था प्यार जहाँ
      जिसके पाँव न पड़ी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई गरीबी के बारे में कुशल रचनाधर्मिणी ने अपने शब्द देते हुए लिखा है-
गरीबी एक अभिशाप
जिन्दगी का
सबसे बड़ा सन्ताप...
       जीवन संग्राम में हर एक व्यक्ति अनाड़ी होता है। लेकिन उसे इस संग्राम को झेलना तो पड़ता ही है। इसी पर कलम चलाते हुए लेखिका ने लिखा है-
मैं तो अनजान
और अनाड़ी थी
जीवन संग्राम में
हारी हुई खिलाड़ी थी...
      और इस पर किस प्रकार की अनुभूति होती है, इसको आप अंजु जी के शब्दों में ही देखिए-
एक वर्ष का आना
एक वर्ष का जाना
आने-जाने का
है सिलसिला पुराना
फिर भी मैं खुश हूँ...
      प्रणय की झलक उनकी इस रचना में देखने को मिलती है-
चाँदनी रात के साये में
चाँद की भीगी चाँदनी में
इश्क बोला हुस्न से
लेकर हाथों में हाथ चलो...
--
चाय का कप
जो पकड़ाया तुमने
तो, हाथ को छू गये
वो अहसास, अन्दर तक...
     बचपन एक ऐसी मधुर स्मृति होती है जो जीवन के हर मोड़ पर याद आती है। ऐसी ही मधुर स्मृति को कुछ इस प्रकार से शब्दों में बाँधा गया है-
खुले खेत
कच्ची पगडण्डी
खेतों में पानी लगती फसल
उस राह भागता
बचपन हमारा
पेड़ पर झूला
उसमें झूलता
बचपन हमारा
अमुआ का पेड़
पेड़ की छाया
बस्ते को फेंकता
बचपन हमारा
     समय के मशीनीकरण के बारे में कुछ इस प्रकार से शब्द दिये गये हैं-
आज मशीनी युग में
समय कुछ ज्यादा ही
महँगा हो गया है
आप सब अब
अवकाश निकालो
आप लोगों से
दो बाते करनी हैं...
     शृंगार वियोग का हो या संयोग का उसकी खट्टी-मीठी यादे तो हर एक के पास होती है मगर जो इनको शब्द दे देता है वही कवि हो जाता है। कवयित्री ने इस पर अपनी कलम चलाते हुए लिखा है-
भागीरथ बनकर
भिगो गया कोई
खुद के बोल देकर
गुनगुनाने को
छोड़ गया कोई...
     एक अनकही वेदना को कवयित्री ने अपने शब्दों में इस प्रकार बाँधा है-
एक  की पीड़ा
जो ना तो
अपने बच्चों से
कुछ कह सकती है
और ना ही
अपने बड़ों को....
      बेटी के जवान होने पर एक माँ को कैसा आभास होता है, इसकी बानगी अनु जी की इस रचना में देखिए-
बेटी है कुवाँरी
मैं कैसे सो जाऊँ...?
     अनु जी ने अपनी अतुकान्त रचनाओं में ध्वंयात्मकता के भी दिग्दर्शन होते होते हैं। देखिए इनकी यह रचना-
शब्द सीमित-शब्द असंकुचित
शब्द विस्तृत-शब्द अनन्त
सत्य-असत्य की परिभाषा
शब्द...
अंजु (अनु) चौधरी के काव्यसंग्रह क्षितिजा में जीवन के विविध रंगों को शब्द मिले हैं और विविध आयामों से इन्हें परखा गया है। एक ओर जहाँ इंतजारबारिशनई जिन्दगीबचपनखामोशीनदी आदि प्राकृतिक उपादानों पर कवयित्री की संवेदना बिखरती है तो दूसरी ओर अमूर्त मानवीय संवेदनाओं को भी रचनाधर्मिणी ने अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। इसके अतिरिक्त प्रेम के विभिन्न रूपों को भी उनकी रचनाओं में विस्तार मिला है।
काव्यसंग्रह क्षितिजाको पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इसमें भाषिक सौन्दर्य के साथ-साथ मानवीय सम्वेदनाओं का भी भली-भाँति निर्वहन किया गया है।
मुझे पूरा विश्वास है कि अनु जी का यह काव्य संग्रह जनमानस के लिए उपयोगी सिद्ध होगा और उनकी यह कृति समीक्षकों के दृष्टिकोण से भी उपादेय सिद्ध होगी।
क्षितिजा के लिये अंजु (अनु) चौधरी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"

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