मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

"बातें हिन्दी व्याकरण की भाग-1 और 2" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


कुछ बातें हिन्दी व्याकरण की
(भाग-एक)
अक्षर
अक्षर के नाम से ही जान पड़ता है कि जिसका क्षर (विभाजन) न हो सके उन्हे अक्षर कहा जाता है!
वर्ण
अक्षर किसी न किसी स्थान से बोले जाते हैं। जिन स्थानों से उनका उच्चारण होता है उनको वरण कहते हैं। इसीलिए इन्हें वर्ण भी कहा जाता है।
स्वर
जो स्वयंभू बोले जाते हैं उनको स्वर कहा जाता है। हिन्दी व्याकरण में इनकी संख्या २३ मानी गई है।
हृस्व दीर्घ प्लुत
अ आ अ ३
इ ई इ ३
उ ऊ उ ३
Î ऋ ३
Æ Æ
- ए ए
- ऐ ऐ
- ओ ओ
- औ औ
कृपया ध्यान रखें :-
हृस्व में एक मात्रा अर्थात् सामान्य समय लगता है।
दीर्घ में दो मात्रा अर्थात् सामान्य से दो गुना समय लगता है
और प्लुत में तीन मात्रा अर्थात् सामान्य से तीन गुना समय लगता है।
व्यञ्जन
जो अक्षर स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते हो वे व्यञ्जन कहलाते हैं। इनकी संख्या ३३ है!

कवर्ग-      क ख ग घ ड.
चवर्ग-      च छ ज झ ञ
टवर्ग-      ट ठ ड ढ ण
तवर्ग-      त थ द ध न
पवर्ग-      प फ ब भ म
अन्तस्थ- य र ल व
      ऊष्म-   श ष स ह

संयुक्ताक्षर
संयुक्ताक्षर वह होते हैं जो दो या उससे अधिक अक्षरों के संयोग से बनते हैं। इनका वर्णन यहाँ पर करना मैं अप्रासंगिक समझता हूँ।

अयोगवाह
जो स्वर के योग को वहन नहीं करते हैं उन्हें अयोगवाह कहते हैं। अर्थात् ये सदैव स्वर के पीछे चलते हैं। इनमें स्वर पहले लगता है जबकि व्यञ्जन में स्वर बाद में आता है। तभी वे सही बोले जा सकते हैं।
ये हैं-
: विसर्ग
जिह्वामूलीय
उपध्यमानीय
अनुस्वार
¤ हृस्व
¦ दीर्घ
अनुनासिक
महाअनुनासिक

मुख के भीतर अक्षरों की ध्वनियों का स्थान
अक्षर स्थान
अवर्ग, कवर्ग, ह, विसर्ग कण्ठ
इवर्ग, चवर्ग, य, श तालु
उवर्ग, पवर्ग, उपध्यमानीय ओष्ठ
ऋवर्ग, टवर्ग, ष मूर्धा
ॡवर्ग, तवर्ग, ल, स दन्त्य
ए, ऐ कण्ठतालु
ओ, औ कण्ठओष्ठ
द दन्तओष्ठ
अनुस्वार, यम नासिका
कुछ बातें हिन्दी व्याकरण की
(भाग-दो)
नाद
जो व्योम में व्याप्त है, वही नाद है। अतः यह वायु के द्वारा मुख में प्रवेश करता है और इसका उच्चारण करने पर जो ध्वनि निकलती है, वह नाद कहलाती है। नाद अव्यक्त है और निरर्थक है।
जब वह मुख में तालु आदि स्थानों को वरण कर लेता है तो वर्ण बन जाता है और सार्थक हो जाता है।
नाद का क्षरण नहीं होता है इसलिए यह अक्षर कहलाता है।
शब्द
शब्द एक या एक से अधिक अक्षरों से मिल कर बनता है।
वाक्य
वाक्य शब्दों से मिलकर बनता है।
तिड्न्त सुबन्तयोःवाक्यंक्रिया वा कारक्न्विता।
अर्थात् जिसमें क्रिया (तिड्न्त) और कारक (सुबन्त) दोनों हों वह वाक्य कहलाता है। जैसे-
गोपाल! गाम् अभिरक्ष।
अर्थात् हे गोपाल! गाय की रक्षा करो।
यहाँ रक्षा करो- क्रिया है और गोपाल कारक है।
भाषा
भाषा वाक्यों से मिलकर बनती है।
इसके दो भेद हैं।
व्यक्त और अव्यक्त।
व्यक्त भाषा
जिस भाषा के शब्दों का अर्थ स्पष्ट होता है वह व्यक्त भाषा कहलाती है।
अव्यक्त भाषा
जिस भाषा के शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं होता है उसको अव्यक्त भाषा कहा जाता है।
व्यक्त भाषा के पर्याय
व्यक्त भाषा के सात पर्याय हैं-
१- ब्राह्मी- जो ब्रह्म से प्रकट हुई है।
२- भारती- जो धारण पोषण करती है। (डुभृञ् धारण पोषणयोः)
३- भाषा- जो व्यक्त अर्थात् स्पष्ट बोली जा सकती है।
(भाषा व्यक्तायां वाचि)
४- गी- जो उपदेश करती है अथवा जो ब्रह्म द्वारा उपदिष्ट है। (गृणातीति)
५- वाक्- जो उच्चारम की जाती है। (उच्यत इति)
६- वाणी- जो वाणी से निकलती है। (वण्यत इति)
७- सरस्वती- जो गति देती है। (सृ गति)
गति के तीन अर्थ हैं-
ज्ञान, गमन और प्राप्ति।
व्यक्त भाषा के भेद
व्यक्त भाषा के दो भेद हैं-
वैदिक और लौकिक।
ये दोनों सार्थक है क्योंकि इनके शब्दों का अर्थ है। अर्थात् ये धातुज हैं। जो धातुओं से उत्पन्न हैं।
१- वैदिक भाषा-
जो ब्रह्म द्वारा उपदिष्ट है वही वैदिक भाषा है। अर्थात् वेदों में वर्णित भाषा को वैदिक भाषा कहते हैं। जिसमें दश लकार होते हैं। वेद व्याकरण के अधीन नहीं हैं क्योंकि वेद से ही व्याकरण निकला है। भाषा पहले और व्याकरण बाद में बनता है। वेद छन्द है अर्थात् स्वतन्त्र है और उसमें जो भी उपदिष्ट है वह सब शुद्ध है। यह भी देखने में आता है कि लोक में किसी भाषा का व्याकरण पहले नहीं होता है। अर्थात् भाषा व्याकरण के अनुसार नहीं होती है। किसी भी भाषा को व्याकरण के नियमों में नहीं बाँधा जा सकता है। इसलिए बहुल, व्यत्यय का विधान वैदिक भाषा में पाया जाता है।
-लौकिक भाषा-
वेद की भाषा के लट् लकार को छोड़कर जो भाषा प्रयोग की जाती है वह लौकिक कहलाती है। जिसे संस्कृत कहा जाता है।
अव्यक्त भाषा
जिस में अव्यक्त शब्दों का प्रयोग होता है उसे अव्यक्त भाषा कहा जाता है। यह निरर्थक होती है। इसके दो भेद होते हैं-
१- पशु-पक्षिक भाषा और
२- मानुषिक भाषा
जिस अव्यक्त भाषा को पशु-पक्षी बोलते हैं वह पशु-पक्षिक भाषा कहलाती है।
जिस भाषा को मनुष्य बोलते हैं वह मानुषिक भाषा कहलाती है।
मानुषिक भाषा के दो भेद होते हैं-
तद्भव और प्रादेशिक।
तद्भव भाषा- यह संस्कृत शब्दों का अपभ्रंश तद्भव रूप है। जब तद्भव शब्दों को संस्कृत शब्दों में बदल देते हैं तभी इसका अर्थ समझ में आता है।
प्रादेशिक भाषा- भिन्न-भिन्न देशों की अव्यक्त भाषा प्रादेशिक भाषा कहलाती है। जो कल्पित होती है।
शुद्ध उच्चारण
प्रायः जिन वर्णों के उच्चारण में भूल की जाती है वह निम्नवत् हैं!
ऋ, Î, ऋ३ का उच्चारण
इनका उच्चारण मूर्धा से होता है। मुँह के भीतर ट, ठ, ड, ढ बोलने पर जीभ जिस स्थान पर लगती है वह स्थान मूर्धा कहलाता है। वहीं पर जीभ को लगा कर बिना स्वर लगाए र् की ध्वनि हृस्व, दीर्घ, प्लुत में बोलेंगे तो ऋ, Î, ऋ३ का सही उच्चारण निकलेगा।
Æ, ॡ, Æ३ का उच्चारण
इसका उच्चारण दन्त से होता है। नीचे और ऊपर के दाँतों को मिलाकर उनपर जीभ लगाकर बिना स्वर लगाए Æ की ध्वनि हृस्व, दीर्घ, प्लुत में करेंगे तो Æ, ॡ, Æका सही उच्चारण निकलेगा।
ड., ञ, ण का उच्चारण
ग को कण्ठ और नासिका से बोलने पर ड. का सही उच्चारण होगा। ज को तालु और नासिका से बोलने पर ञ का सही उच्चारण निकलेगा और ड को मूर्धा और नासिक से बोलने पर ण का सही उच्चारण बोला जाएगा।
श, ष, स का उच्चारण
श को तालु में, ष को मूर्धा में और स को दन्त में जीभ लगा कर बोला जाता है।
च, छ, ज, झ को बोलने पर मुँह में जिस स्थान पर जीभ लगती है, वह स्थान तालु होता है। श बोलने के लिए भी भी इसी स्थान पर जीभ लगाइए तो श का सही उच्चारण निकलेगा।
ट, ठ, ड, ढ को बोलने पर मुँह में जिस स्थान पर जीभ लगती है, वह स्थान मूर्धा होता है। ष बोलने के लिए भी भी इसी स्थान पर जीभ लगाइए तो ष का सही उच्चारण निकलेगा।
त, थ, द, ध को बोलने पर मुँह में जिस स्थान पर जीभ लगती है, वह स्थान दन्त होता है। स बोलने के लिए भी भी इसी स्थान पर जीभ लगाइए तो स का सही उच्चारण निकलेगा।
विसर्ग का उच्चारण
(:) यह चिह्न विसर्ग का है। इसको कण्ठ से बोलना चाहिए।
जहाँ से क, ख, ग, घ बोले जाते हैं उस स्थान को कण्ठ कहा जाता है।
जिह्वामूलीय का उच्चारण
जब (:) विसर्ग के पश्चात् क, ख हो तो उसको जिह्वा मूल से बोलना चाहिए। यह कण्ठ के ऊपर जिह्वा का मूल स्थान है। जैसे- रामः करोति। गोपालः खादति।
उपध्मानीय का उच्चारण
जब (:) विसर्ग के पश्चात् प, फ हो तो उसको ओष्ठ से बोलना चाहिए। जैसे- रामः पठति। गोपालः फलं खादति।
अनुस्वार का उच्चारण
अनुस्वार (अक्षर के ऊपर बिन्दी) को कहते हैं। यह स्वर के पीछे चलता है। इसका उच्चारण कण्ठ नासिका से करना चाहिए। जैसे- हंस, कंस।
समाप्त!

सोमवार, दिसंबर 05, 2011

"बातें हिन्दी व्याकरण की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

कुछ बातें हिन्दी व्याकरण की
अक्षर
 अक्षर के नाम से ही जान पड़ता है कि जिसका क्षर (विभाजन) न हो सके उन्हे अक्षर कहा जाता है!
वर्ण
अक्षर किसी न किसी स्थान से बोले जाते हैं। जिन स्थानों से उनका उच्चारण होता है उनको वरण कहते हैं। इसीलिए इन्हें वर्ण भी कहा जाता है।
स्वर
जो स्वयंभू बोले जाते हैं उनको स्वर कहा जाता है। हिन्दी व्याकरण में इनकी संख्या २३ मानी गई है।
हृस्व     दीर्घ     प्लुत
अ        आ         अ ३
इ         ई          इ ३
उ         ऊ         उ ३
ऋ        Π       ऋ ३
Æ         ॡ        Æ 
-         ए         ए 
-         ऐ         ऐ 
-         ओ        ओ 
-         औ        औ 
कृपया ध्यान रखें :-
हृस्व में एक मात्रा अर्थात् सामान्य समय लगता है।
दीर्घ में दो मात्रा अर्थात् सामान्य से दो गुना समय लगता है
और प्लुत में तीन मात्रा अर्थात् सामान्य से तीन गुना समय लगता है।
व्यञ्जन
जो अक्षर स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते हो वे व्यञ्जन कहलाते हैं। इनकी संख्या ३३ है!

 कवर्ग      क   ख   ग    घ    ड.
चवर्ग      च    छ   ज   झ   ञ
  टवर्ग      ट    ठ    ड    ढ    ण
  तवर्ग      त    थ    द    ध    न
पवर्ग      प    फ   ब    भ   म
        अन्तस्थ    य    र    ल   व
        ऊष्म       श   ष    स   ह

संयुक्ताक्षर
संयुक्ताक्षर वह होते हैं जो दो या उससे अधिक अक्षरों के संयोग से बनते हैं। इनका वर्णन यहाँ पर करना मैं अप्रासंगिक समझता हूँ।

अयोगवाह
जो स्वर के योग को वहन नहीं करते हैं उन्हें अयोगवाह कहते हैं। अर्थात् ये सदैव स्वर के पीछे चलते हैं। इनमें स्वर पहले लगता है जबकि व्यञ्जन में स्वर बाद में आता है। तभी वे सही बोले जा सकते हैं।
ये हैं-
:    विसर्ग
जिह्वामूलीय
उपध्यमानीय
अनुस्वार
¤   हृस्व
¦   दीर्घ
अनुनासिक
महाअनुनासिक

मुख के भीतर अक्षरों की ध्वनियों का स्थान
अक्षर                    स्थान
अवर्ग, कवर्ग, ह, विसर्ग      कण्ठ
इवर्ग, चवर्ग, य, श               तालु
उवर्ग, पवर्ग, उपध्यमानीय     ओष्ठ
ऋवर्ग, टवर्ग, ष            मूर्धा
ॡवर्ग, तवर्ग, ल, स         दन्त्य
ए, ऐ                    कण्ठतालु
ओ, औ                   कण्ठओष्ठ
द                       दन्तओष्ठ
अनुस्वार, यम             नासिका

शेष भाग अगली कड़ी में.........

गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

"आभासी दुनिया वास्तविक जगत से अच्छी है " (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


मुझे आभास हो गया है कि ज़ालजगत पर भी सहृदय लोग हैं। सच पूछा जाए तो यह आभासी दुनिया वास्तविक जगत से बहुत अच्छी है। 
फेस बुक पर भी बहुत से मित्र हैं मेरे और ब्लॉगिंग करने के नाते जी-मेल और ब्लॉगिस्तान में भी मेरे शुभचिन्तकों की कमी नहीं है!
             लगभग एक सप्ताह पुरानी बात है। मैं उस समय बाज़ार में किसी के पास बैठा था कि मेरे मोबाइल पर एक कॉल आयी "मैं महेन्द्र श्रीवास्तव बोल रहा हूँ! शास्त्री जी आप खटीमा में ही रहते हैं क्या?"
मैंने उत्तर दिया कि आप कहाँ पर हैं इस समय!
महेन्द्र श्रीवास्तव जी ने उत्तर दिया कि मैं खटीमा के एरिया में ही आया हुआ हूँ और इस समय शहीद स्मारक के पास हूँ। आपका निवास कहाँ है? मैं आपसे मिलना चाहता हूँ! मैंने महेन्द्र श्रीवास्तव जी को कहा "आप आ जाइए, मेरा निवास स्थान सौरभ अस्पताल के बराबर में टनकपुर रोड पर है। वैसे आप खटीमा में यदि किसी से  भी पूछ लेंगे कि शास्त्री जी का निवास कहाँ है तो वो आपको बता देंगे।"
मैं भी पाँच मिनट में बाज़ार से अपने घर पर आ गया था। देखा तो एक इनोवा मेरे घर के बाहर आकर रुकी और उसमें से 3 लोग बाहर आये। जिनमें एक सहारा समय के स्थानीय रिपोर्टर थे और हरी टी-शर्ट में महेन्द्र श्रीवास्तव थे। तीसरा व्यक्ति शायद कैमरामैन रहा होगा।
        महेन्द्र श्रीवास्तव जी से मिल कर मुझे ऐसा लगा कि जैसे कि हमारी बहुत पुरानी जान पहचान हो।
आधा सच...चाय की चुस्कियों के बीच बहुत सारी बातें हुईं और महेन्द्र श्रीवास्तव जी के ब्लॉग आधा सच का एक हैडर भी मैंने उनके लिए बना दिया। जिससे आधा सच बहुत आकर्षक लगने लगा। लेकिन उसके खुलने में बहुत दिक्कत थी जिसे मैंने कुछ विजेट और एचटीएमएल कोड हटाकर ठीक कर दिया। अब आधा सच आसानी से खुलने लगा था।
जैसे ही चाय समाप्त हुईमहेन्द्र श्रीवास्तव जी कहने लगे कि अब शाम घिरने लगी हैरात में शायद श्यामलाताल में ही विश्राम करना होगा।
जाते-जाते मैंने महेन्द्र जी को अपनी हाल में ही प्रकाशित दो पुस्तकें-"धरा के रंग" और हँसता गाता बचपन" भी उपहार में दीं।
तीसरे दिन सुबह सवेरे ही महेन्द्र श्रीवास्तव जी पुनः मेरे निवास पर आये और पर्यावरण पर मेरा एक छोटा सा इंटरव्यू भी लिया। बातों बातों में पता लगा कि पड़ोसी देश नेपाल के शहर महेन्द्रनगर "महेन्द्र श्रीवास्तव" न करें ऐसा भला कैसे सम्भव था। इन्होंने यहाँ भी एक रात गुजारी थी। यह थी एक सुखद और अप्रत्याशित भेंट आभासी दुनिया के एक मित्र से। जो मुझे हमेशा याद रहेगी।

शनिवार, नवंबर 05, 2011

"एक अद्भुत संसार - 'नन्हें सुमन'" (समीर लाल 'समीर')

मित्रों!
      गतवर्ष बाल कविताओं की मेरी प्रथम बालकृति 'नन्हे सुमन' के नाम से प्रकाशित हुई थी। उन दिनों हिन्दी ब्लॉगिंग के पुरोधा आदरणीय समीर लाल 'समीर' भारत आये हुए थे। दूरभाष पर बातें हुईं और उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका लिखने की सहर्ष स्वीकृति मुझे प्रदान कर दी। मैंने मेल से उन्हें 'नन्हे सुमन' की पाण्डुलिपि भेज दी और उन्होंने एक सप्ताह के भीतर इसकी भूमिका लिखकर मुझे मेल कर दी। मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए इस भूमिका को आपके साथ साझा कर रहा हूँ!

भूमिका
एक अद्भुत संसार - 'नन्हें सुमन'
            आज की इस भागती दौड़ती दुनिया में जब हर व्यक्ति अपने आप में मशगूल है। वह स्पर्धा के इस दौर में मात्र वही करना चाहता है जो उसे मुख्य धारा में आगे ले जाये, ऐसे वक्त में दुनिया भर के बच्चों के लिए मुख्य धारा से इतर कुछ स्रजन करना श्री रुपचन्द्र शास्त्री मयंकजैसे सहृदय कवियों को एक अलग पहचान देता है।
            ‘मयंकजी ने बच्चों के लिए रचित बाल रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ उनके ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन का बीड़ा उठाया है बल्कि उन्हें एक बेहतर एवं सफल जीवन के रहस्य और संदेश देकर एक जागरूक नागरिक बनाने का भी बखूबी प्रयास किया है।
            पुस्तक नन्हें सुमनअपने शीर्षक में ही सब कुछ कह जाती है कि यह नन्हें-मुन्नों के लिए रचित काव्य है। परन्तु जब इसकी रचनायें पढ़ी तो मैंने स्वयं भी उनका भरपूर आनन्द उठाया। बच्चों के लिए लिखी कविता के माध्यम से उन्होंने बड़ों को भी सीख दी है!
डस्टरबहुत कष्ट देता है’’ कविता का यह अंश बच्चों की कोमल पीड़ा को स्पष्ट परिलक्षित करता है-

‘‘कोई तो उनसे यह पूछे,
क्या डस्टर का काम यही है?
कोमल हाथों पर चटकाना,
क्या इसका अपमान नही है?’’

नन्हें सुमनमें छपी हर रचना अपने आप में सम्पूर्ण है और उनसे गुजरना एक सुखद अनुभव है। उनमें एक जागरूकता है, ज्ञान है, संदेश है और साथ ही साथ एक अनुभवी कवि की सकारात्मक सोच है।
            आराध्य माँ वीणापाणि की आराधना करते हुए कवि लिखता है-

‘‘तार वीणा के सुनाओ कर रहे हम कामना।
माँ करो स्वीकार नन्हे सुमन की आराधना।।
इस ध्ररा पर ज्ञान की गंगा बहाओ,
तम मिटाकर सत्य के पथ को दिखाओ,
लक्ष्य में बाधक बना अज्ञान का जंगल घना।
माँ करो स्वीकार नन्हे सुमन की आराधना।।’’

            मेरे दृष्टिकोण से तो यह एक संपूर्ण पुस्तक है जो बाल साहित्य के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान स्थापित करेगी। मुझे लगता है कि इसे न सिर्फ बच्चों को बल्कि बड़ों को भी पढ़ना चाहिये।
            मेरा दावा है कि आप एक अद्भुत संसार सिमटा पायेंगे नन्हें सुमनमें, बच्चों के लिए और उनके पालकों के लिए भी!
            कवि ‘‘मयंक’’ को इस श्रेष्ठ कार्य के लिए मेरा साधुवाद, नमन एवं शुभकामनाएँ!

-समीर लाल समीर
http://udantashtari.blogspot.com/
36, Greenhalf Drive
Ajax, ON
Canada

सोमवार, अक्तूबर 17, 2011

"यह उपयोगी है क्या?" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


मित्रों!


मैंने सन् 1998 में कम्प्यूटर खरीदा था। उस समय में हिन्दी टाइपिंग में हिन्दी के फॉण्ट कृतिदेव आदि को प्रयोग में लाता था और पेज मेकर का अपने को माहिर समझता था, लेकिन जब सन् 2009 जनवरी से हिन्दी ब्लॉगिंग आरम्भ की तो इण्टरनेट यूनिकोड ही स्वीकार करता था और कृतिदेव फॉण्ट को स्वीकार नहीं करता था। इसलिए शुरू-शुरू में बहुत परेशानियाँ आयीं। तभी मुझे जालजगत पर एक ऐसा फॉण्ट परिवर्तक मिला जो कृतिदेव को यूनिकोड और यूनिकोड को कृति में परिवर्तित कर देता था। इससे मुझे पोस्ट लगाने में बहुत आसानी हो गई। इसके डाउनलोड करने का लिंक यह है-

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http://www.mediafire.com/?zdyzznyyzmy कृतिदेव <==> यूनिकोड 2009

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आज भी नेट पर बहुत लोग ऐसे हैं जो रोमन में लिख कर उसी में अपनी पोस्ट प्रकाशित करते हैं। उनके लिए 
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